पुण्य निःस्वार्थ भाव से किया जाय

May 1964

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पुण्य वह कहलाता है जो सदुद्देश्य के लिए निष्काम भाव से किया गया है। उसके मूल में त्याग और बलिदान की वृत्ति रहती है। इस वृत्ति के कारण ही साधारण दीखने वाले काम भी आध्यात्मिक दृष्टि से पुण्य बन जाते हैं और उनका फल आत्म-कल्याण ही नहीं, साँसारिक सुख-शान्ति भी होता है।

जो कार्य साँसारिक लाभ के उद्देश्य से, भौतिक प्रतिफल प्राप्त करने के लिए किये जाय तो वे व्यवसाय बन जाते हैं। बाहर से पुण्य दीखने वाले कार्य भी यदि भौतिक प्रतिफल पाने के उद्देश्य से किये जाय तो उनका पुण्य तत्व नष्ट हो जाता है और वे भी साधारण श्रेणी के कार्यों में गिने जाते हैं।

सकाम और निष्काम उपासना का अन्तर प्रत्यक्ष है। भगवान भावना को पहचानते हैं और उसी के आधार पर भक्त की आराधना का मूल्याँकन करते हैं। कौन खुदगर्जी से मूर्ति के लिए भजन का ढोंग बनाये बैठा है और कौन प्रभु प्रेम से विह्वल होकर आत्म समर्पण की दृष्टि से प्रभु की इच्छा के अनुसार अपनी इच्छाओं को बनाने का प्रयत्न कर रहा है, यह अन्तर भगवान से छिपा नहीं रहता। वे इसी आधार पर पात्र की पात्रता परखते हैं और उसी अनुपात से उस पर अनुग्रह भी करते हैं। शबरी, निषाद, गोपी, सुदामा, आदि साधना-विधान से अपरिचित होने पर भी प्रभु का अनुग्रह प्राप्त कर सके, जब कि विधि विधान के ज्ञाता कर्मकाण्डी ज्ञानी-ध्यानी लोग भी खाली हाथ रहते देखे गये हैं। त्याग और प्रेम का, श्रद्धा और विश्वास का अभाव कठोर से कठोर कर्मकाण्ड को भी निष्प्राण और निर्जीव बना देता है।

कन्या दान को परम पवित्र पुण्य कार्य माना जाता है इसमें उस दान की निस्वार्थता ही प्रधान कारण है। जीवन भर बड़े स्नेह से पाली हुई ममतामयी कन्या को वर के हाथों बिना किसी बदले की आशा करके सौंपा जाता है। कन्या दान देने वाले उसकी ससुराल की कोई वस्तु नहीं खाते। उसके यहाँ के पैसे को किसी काम में नहीं लेते। दानी की निस्वार्थता ही तो दान की श्रेष्ठता को प्रतिपादन करती है। यदि कोई व्यक्ति कन्यादान के बदले में वर से अपनी बेटी की कीमत वसूल कर ले तो उसे सामाजिक प्रथा के अनुसार घृणित माना जाता है। यही बात प्रत्येक सत्कार्य के लिए लागू होती है। निस्वार्थता से ही कोई शुभ कार्य सच्चे अर्थों में शुभ कार्य कहला सकता है।

मनीषियों का कथन है कि पुण्य भले ही थोड़ा किया जाय पर उसमें उच्च भावनाओं का, निस्वार्थता का पूरा समावेश रखा जाय। उसका स्तर गिरने न दिया जाय। व्यवसाय के लिए अनेक क्षेत्र पड़े हुए हैं, उन्हें अपना कर जीवन क्रम चलाया जा सकता है पर पुण्य को तो व्यवसाय नहीं ही बनाना चाहिए। इससे पुण्य की भी श्रेष्ठता नष्ट होती है। ब्राह्मण और संत की महत्ता इसीलिए मानी जाती है कि वे निरन्तर पुण्य परमार्थ के कार्यों में लगे रहते हैं पर उसके बदले में कुछ नहीं चाहते। यदि वे अपने ज्ञान और प्रेम को बाजारू ढंग से बेचें और उसका व्यवसाय करें तो फिर उन्हें किसी की श्रद्धा पाने का कोई अधिकार न रहेगा।

सेवा वृत्ति हमारे स्वभाव का एक अंग होना चाहिए। इसे एक मानवीय कर्त्तव्य माना जाना चाहिए और पुण्य परमार्थ की दृष्टि से ही इसे किया जाना चाहिए। यदि इसके बदले यश की प्रत्युपकार की आशा की जायगी तो सेवा कार्य बन ही न पड़ेगा। जब जहाँ यश मिलता है तब यहाँ थोड़ा-सा सेवा कार्य बन पड़ता है, जब उसमें कमी दीखती है तभी वह उत्साह ठंडा पड़ जाता है। यह पुण्य प्रवृत्ति कहाँ हुई?

बदले का भाव आते ही हर वस्तु व्यावसायिक स्तर की हो जाती है। माता अपने बच्चे को निस्वार्थ प्रेम करती है और अपने रस रक्त से उसे सींचती है इसीलिए उसकी महत्ता सर्वोपरि मानी जाती है। गाय भी बच्चे को दूध पिलाती और उसे खिलाती-दुलारती है, पर उसका वह कार्य प्रतिफल की भावना से किया हुआ होता है। इसलिए उस पाले हुए बच्चे का जो भाव अपनी माता के प्रति होता है वह धाय के प्रति नहीं।

वह पुण्य जो स्वार्थ या लाभ के लिए किया गया है और कुछ भले ही हो पुण्य नहीं हो सकता। जिसका लौकिक लाभ मिल चुका, उससे पारलौकिक प्रयोजन प्राप्त करना चाहते हैं, तो दुहरा प्रयोजन कहाँ सिद्ध होगा? जिस टिकट पर मुहर लग चुकी वह दूसरी बार फिर लिफाफे पर नहीं चिपकाया जा सकता। जिस चेक को एक बार बैंक में भुना लिया गया उसे ही दुबारा भुनाने में सफलता न मिलेगी। कोई ऐसा दुहरा लाभ उठाने की चेष्टा कर रहा होगा तो उसे जालसाज ठहराया जायगा। यह बात सत्कर्मों के ऊपर भी लागू होती है। वाहवाही लूट लेने का लाभ मिल जाने पर वह पुण्य चले हुए कारतूस की तरह अपनी शक्ति और संभावना समाप्त कर चुका होता है।

हमारे सार्वजनिक जीवन में फैले हुए भ्रष्टाचार का कारण उतना धन नहीं जितना मान है। मान पाने के लिए सरकारी और गैर सरकारी संस्थान में नाम के भूखे लोग इतनी धमाचौकड़ी मचाते हैं कि सारा वातावरण ही गंदा हो जाता है। सार्वजनिक संस्थाओं में मंत्री और प्रधान बने जाने के लिए गुटबन्दी और दुरभिसंधि का ऐसा जाल फैलता है कि वह संस्था अपना उद्देश्य और गौरव ही खो बैठती है। हमारे देश की तीन चौथाई सार्वजनिक संस्थाएं इसी रोग से ग्रसित हैं। उनके कार्यकर्ता यदि पद, सत्ता, मान प्रतिष्ठा के फेर में जितना समय और मस्तिष्क लगाते हैं उतना उस मिशन को पूरा करने में लगाते तो न जाने कितना उपयोगी काम हो गया होता।

पूजा प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए कितने ही लोग सन्त महात्मा बनते हैं। कोई-कोई तो शहरों और भीड़ में समाधि लगाने का खेल दिखाते हैं। समाधि के लिए वन, पर्वत उपयुक्त होते हैं। शहरों में, भीड़ में, पैर पुजाने, पैसा बटोरने की समाधि लगाने वाले की क्या आवश्यकता पड़ गई यह बहुत सोचने पर भी कुछ समझ में नहीं आता।

परमार्थ और पुण्य की आकाँक्षा आत्मा की भूख है। उससे तत्काल आत्म सन्तोष मिलता है यह उसका वास्तविक प्रतिफल है। दया, करुणा, सहृदयता, उदारता, स्नेह, सहयोग एवं सेवा भावना को चरितार्थ करने का, बढ़ाने का अवसर पुण्य परमार्थों के द्वारा ही तो मिलता है। सत्कर्म न करें तो सद्विचारों का कोई महत्व ही न रह जायगा। विचारों को जब कर्म का जामा पहनाया जाता है तभी वे संस्कार बनते हैं और आत्मिक प्रगति की व्यवस्था जुटाते हैं, इसलिए मानव-जीवन की सार्थकता का लाभ प्राप्त करने के इच्छुक विचारशील व्यक्ति को अपने जीवन में परमार्थ के लिए समुचित स्थान रखना चाहिए, पर उसे लोकहित, जन कल्याण एवं सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन की दृष्टि से निस्वार्थ भाव से ही करना चाहिए और निस्वार्थता में यश कामना के त्याग को भी सम्मिलित रखना चाहिए तभी तो सच्ची सेवा भावना को विकसित होने का अवसर मिलेगा और तभी आत्मसन्तोष का रसास्वादन कर सकना सम्भव होगा।

मरने के बाद अपनी कृतियों के द्वारा नाम अमर कर जाने वाली बात भी मूर्खतापूर्ण है। मान लीजिए आज कानपुर निवासी लाला सोहनलाल एक लाख रुपया लगाकर धर्मशाला बनाते हैं। कुछ दिन बाद उनकी मृत्यु हो जाती है। फिर वे इलाहाबाद में जन्म लेकर रमई कुम्हार बनते हैं। रमई जी से कोई व्यक्ति कानपुर के स्वर्गीय लाला सोहन लाल जी द्वारा बनाई हुई धर्मशाला की चर्चा करता है तो जीवात्मा वही होते हुए भी उसे उस पिछले जीवन के यश से न कोई लाभ होता है और न प्रसन्नता। सोहन लाल नामक शरीर की प्रशंसा होती रहे तो उस जीवात्मा का क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ जो आज रमई कुम्हार के शरीर में निवास कर रही है? इसलिए यह सोचना भी अनुपयुक्त है कि अमुक स्थान खड़ा कर जाने से हमारा यश बना रहेगा। जब मरने के बाद ‘हमारे’ की परिभाषा ही बदल जाती है, उसका स्वरूप ही दूसरा बन जाता है तो फिर पिछले जन्म के उस मरणधर्मा शरीर के यश से भी क्या कुछ काम निकला?

उच्चस्तरीय कर्म सदा निःस्वार्थ भाव से ही सम्भव है। लालची और नामवरी का भूखा आदमी उन ठोस कार्यों के सर्वथा अयोग्य ही रहता है जिनके द्वारा देश, धर्म, समाज और संस्कृति की सच्ची सेवा हो सकती है।


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