स्वास्थ्य के लिये उपवास का प्रयोग

May 1964

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स्वस्थ जीवन जीने के लिए आहार, जल, स्वच्छ वायु सफाई व शारीरिक श्रम की आवश्यकता होती है। इनमें से कुछ साधन ऐसे हैं जो शरीर को शक्ति देते हैं, अवयवों का संवर्द्धन व सम्पोषण करते हैं। कुछ तत्व संतुलन बनाये रखते हैं। इन सबसे अधिक उपयोग उन तत्वों का है जो शरीर में सफाई की क्रिया सम्पन्न करते हैं। पहले और दूसरे प्रकार के साधन, शक्ति व सन्तुलन तो देते हैं किन्तु साथ ही मल विकार भी उतनी ही मात्रा में उत्पन्न कर देते हैं। यह विजातीय पदार्थ यदि शरीर में सड़ता गलता रहे, इसके निकालने की सावधानी न बरती जाय तो स्वास्थ्य के जल्दी ही गिर जाने की आशंका बनी रहती है। नावदान की सफाई न करें तो सारा घर दुर्गन्ध से भर जाता है। बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों व कारखानों के धुयें से चिमनी से बाहर निकालने की पद्धति न चलाई जाती तो सारे मजदूर कर्मचारी उसकी घुटन से मर जाते। हर आठ-दस स्टेशन के बाद यदि इंजन का पुराना कोयला व राख न गिरा दिया जाय तो नया ईंधन डालने की जगह ही शेष न रहे।

यही अवस्था शरीर की भी होती है। शरीर भी किसी मशीन से कम नहीं। इसमें मल विकार का पैदा होना स्वाभाविक है। इसे दूर न किया जाय तो दुर्गन्ध फूट पड़ने जैसी क्रिया उत्पन्न हो जाती है। विजातीय द्रव्य किसी-न-किसी रोग के रूप में शरीर फोड़ कर बाहर निकल पड़ती है। इसलिये स्वास्थ्य को स्थिर बनाये रखने के लिये शारीरिक सफाई व मल निष्कासन की बड़ी आवश्यकता है। किसी कारणवश पेट में गड़बड़ी उत्पन्न होने पर इसके लिये जुलाब आदि से कई साधन काम में लाये जाते हैं। किन्तु इन सबसे अधिक उपयोगी प्राकृतिक और निरापद साधन है उपवास। जुलाब जैसे अप्राकृतिक साधनों में एक बुराई यह होती है कि इनकी प्रतिक्रिया इतनी तीव्र होती है कि वे मल विकार के साथ ही पाचक अम्लों, रसों को भी अनुचित मात्रा में बाहर निकाल देते हैं। उपवास में ऐसी किसी बात की आशंका न होने से उसका महत्व अत्यधिक माना गया है।

पाचन संस्थान को आवश्यक विश्राम देने व दुबारा सुविधा व सरलतापूर्वक कार्य करने देने की सृष्टि से भी उपवास का महत्व अधिक है। निरन्तर काम करते हुये सभी की शक्ति का ह्रास होता है। इस खोई हुई क्रीड़ा शक्ति को पुनः प्राप्त कर लेने का सिद्धाँत जीवन के हर क्षेत्र में लागू है। पशु आहार लेने के बाद बैठकर जुगाली करते हैं, बिना विश्राम दिये किसी इंजन या बाइलर को लगातार चलाते रहें तो उसके फट जाने का भय बना रहता है। सप्ताह में एक दिन रविवार का अवकाश भी इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये किया जाता है। शरीर में यह प्रक्रिया उपवास से पूरी होती है।

अध्यात्मिक दृष्टि से तो उपवास का महत्व और भी अधिक है। विषय विकारों के शमन का उपाय वर्णन करते हुए गीताकार ने कहा है-

‘विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।’

अर्थात् निराहार रहने से विषय विकारों की निवृत्ति होती है। ‘उपवास दर्शन’ या ‘फिलॉसफी आफ फास्टिंग‘ के विद्वान रचयिता श्री ए.ए. प्युरिंगटन महोदय ने लिखा है कि रोग चाहे शारीरिक हो अथवा मानसिक उपवास से सभी में लाभ होता है। यदि आप स्वास्थ्य और सौंदर्य, शक्ति व और साहस प्राप्त करना चाहते हैं तो उपवास कीजिये।’ ‘उपवास से नैतिक व आध्यात्मिक प्रगति होती है, नैसर्गिक बुद्धि का उदय होता है। रोग निवारण, आत्म विश्वास की प्राप्ति, प्रेम की विशालता की दिव्य अनुभूति, विराट के साथ आत्म-सामंजस्य आदि का महत्वपूर्ण प्रसाधन उपवास है।’ उनके अनुसार उपवास आरोग्य लाभ का प्राकृतिक व निधात्मक पहलू है।

शरीर का पाचन संस्थान यंत्र सरीखा है, यह रबड़ जैसे पदार्थ से बना है। भोजन नली से आँत तक पहुँचने में आहार में स्टार्च, लार, हाइड्रोक्लोरिक एसिड आदि रासायनिक तत्व उसे रस के रूप में परिवर्तित करने का काम करते हैं किन्तु आँत में पहुँचते ही पाचन क्रिया प्रारंभ हो जाती है। जीवन भर अविवेकपूर्ण आहार लेते रहने से इसमें फैलाव आ जाता है, इससे रक्त के अतिभार और तंतुओं के दबाव में रुकावट पड़ती है। साथ ही सफाई के अम्लों के पर्याप्त स्राव न हो पाने के कारण मल विकार व विजातीय द्रव्य आँतों से चिपकना शुरू कर देता है, छोटी आँत तक पहुँचते-पहुँचते यह विकार और भी बढ़ जाता है। डाक्टरों का मत है कि आँतों में यह मल तीन से पाँच सेर तक जमा होता है। प्रारंभ में इससे अपच व गैस आदि का बनना यही उपद्रव दिखाई देते हैं किन्तु धीरे-धीरे इसमें गाँठें पड़ना शुरू हो जाता है जिससे भयानक परिणाम उपस्थित होने की आशंका बढ़ जाती है।

भोजन बंद कर देने के साथ ही रक्त का अतिभार कम होना प्रारंभ हो जाता है। अभी तक जो अम्ल व क्षार पाचन क्रिया सम्पन्न कर रहे होते थे वे सब मिलकर सफाई का, मल को बाहर धकेलने का कार्य प्रारंभ कर देते हैं। रक्त की संश्लेषण क्रिया फालतू पानी को बाहर निकालने लगती है। यह क्रिया कुछ समय तक चलती है। धीरे-धीरे रक्त प्रवाह का मार्ग संकुचित होने लगता है तब शारीरिक क्रिया में विशेष प्रकार की उथल-पुथल महसूस होने लगती है क्योंकि इस समय रक्त में विजातीय मल से उत्पन्न विष को घुलाना व श्लेष्मा को नियंत्रण में बनाये रखने व इस विषैले पदार्थ को बहा ले जाने का कार्य तेजी से प्रारंभ होता है।

इस प्रतिक्रिया के फलस्वरूप शारीरिक व्यवस्था क्रम में कुछ गड़बड़ी सी उत्पन्न होती जान पड़ती है। जी मिचलाता है। मुँह में बार-बार थूक आता है। फेफड़ों से लौटी हुई साँस में अपेक्षाकृत अधिक दुर्गन्ध होती है। थकावट बढ़ जाती है। पसीने के साथ भी बदबू उड़ने लगती है। इन लक्षणों से प्रायः लोग घबड़ा जाते अथवा उपवास को नुकसानप्रद मान लेते हैं। किन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं। यह अवस्था तीन-चार दिन से अधिक नहीं चलती। रुधिर संचार की व्यवस्था में जो अभी तक रुकावट पड़ रही थी, वह मल शोधन व निष्कासन की निरन्तर प्रक्रिया चलते रहने के कारण अपने पूर्व रूप में आने लगती है यह अवस्था छठवें या सातवें दिन से प्रारंभ हो जाती है और शरीर निर्मल स्निग्ध और हलका हो जाता है। लम्बे उपवासों में यह क्रिया कई बार आवृत्त होती है इनसे शारीरिक अवस्था में बार-बार फेर बदल होता है। लगभग बीस दिन बाद शरीर मल रहित, शुद्ध व पवित्र बन जाता है। रक्त, माँसपेशियाँ, भेजा, नाडियों, तंतुओं और अस्थियों के मल विकार दूर हो जाने से शरीर की व्यवस्था व ग्रहणशीलता परिपक्व हो जाती है। इससे लंबे उपवासों के बाद स्वास्थ्य में शीघ्रता से सुधार होते देखा गया है।

उपवास का अर्थ केवल यही नहीं होता कि एक लंबे समय के लिये आहार का बिलकुल त्याग कर दिया जाय। भिन्न-भिन्न अवस्था के व्यक्तियों के अनुरूप उपवास की भी व्यवस्था कई प्रकार की संभव है। दुर्बल व क्षीणकाय व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं कि वह लंबा उपवास कर सके। ऐसे व्यक्तियों को प्रातःकाल का नाश्ता छोड़ देना व एक समय हलका आहार लेते रहना सबसे अच्छा उपवास है। इससे शरीर को शक्ति भी मिलती रहती है और आहार की कमी के कारण पाचन के बाद जो शक्ति शेष बच जाती है वह मल निष्कासन व सफाई का कार्य प्रारंभ कर देती है। कठोर शारीरिक श्रम करने वालों के अतिरिक्त सभी को प्रातःकालीन नाश्ता छोड़ देना भी उपवास जैसा लाभ देता है। आहार में एक निश्चित मात्रा की कमी कर देना भी अच्छा उपवास है। इनमें अस्वाद भोजन लेने और एक ही समय आहार लेने की क्रिया जोड़ दी जाय तो और भी अधिक लाभ होता है।

जिन्हें इसमें भी असुविधा होती हो वे सप्ताह में एक या दो दिन भी ऐसा क्रम अपना सकते हैं। इन आँशिक उपवासों से जिनमें एक समय बिना नमक या गुड़ के एक ही लगावन के साथ भूख मिटाने जितना आहार ले लिया जाय, स्वास्थ्य सुधार में बड़ी सहायता मिलती है। ये सब के लिये समान रूप से सुलभ है। इन्हें बालक वृद्ध, रोगी स्त्रियाँ आदि सभी कर सकते हैं। लंबे उपवासों में अधिक सावधानियाँ बरतने के खतरों से बचने का सबसे अच्छा उपाय इन क्ररिक व आँशिक उपवासों को ग्रहण करना है। इसमें शरीर का नव संस्कार भले ही मन्द गति से हो किंतु विसर्जन व श्लेष्मा हीन खाद्य वस्तुओं से शरीर को पर्याप्त शक्ति मिलने की दोनों ही क्रियायें आसानी से चलती रहती है।

कई लोग आध्यात्मिक दृष्टि से उपवास काल में जल तक पीने का निषेध करते हैं। किन्तु यह हानिकारक है। हल का उपयोग दिन में कई बार बिना प्यास के भी करते रहना चाहिये इससे मल शोधन व शारीरिक सफाई के कार्यों में, मल को नर्म बनाकर बाहर निकालने में बड़ी सुगमता हो जाती है। पानी के साथ नींबू या सोडा का उपयोग और भी लाभदायक है। इससे आँतों की बड़ी सुगमता से सफाई होती रहती है। संभव हो सके तो एनिमा की भी सहायता से आँतों की सफाई क्रम चलाया जा सकता है। लंबे उपवासों के पूर्व इसी प्रकार कोई रेचक पदार्थ लेने से भी लाभ होता है। स्वच्छ व ताजी हवा में रहना, घूमने टहलने जैसे हल्के व्यायाम करते रहना व थकावट महसूस होने पर पर्याप्त विश्राम करना भी उतना ही आवश्यक है। शोधन प्रणाली से उत्पन्न विष जब भेजे से गुजरता है तो अनिद्रा, दुःस्वप्न जैसे दृश्य भी उपस्थित हो सबसे है ऐसे समय अपने विश्वास में कमी नहीं आने देनी चाहिये। बीच में ही परिवर्तन की आवश्यकता जान पड़े तो श्वेतसार हीन तरकारी का रस या टमाटर का रस थोड़ी मात्रा में लिया जा सकता। इन सामान्य नियमों का पालन करते रहने से उपवास काल की आशंकाओं से बचा जा सकता है।

सबसे अधिक सावधानी उपवास समाप्त करने पर आहार लेते समय बरतने की आवश्यकता होती है। एक निश्चित समय तक शरीर में खाद्य पदार्थ न जाने और पर्याप्त शक्ति न मिलने के कारण पाचन संस्थान में शिथिलता आ जाती है। आहार न लेने से भूख भी बढ़ जाती है। इस समय यदि भारी पदार्थ या पेट भरकर भोजन कर लिया जाय, तो आँतों में धक्का लगता है। पाचन शक्ति के अनुपात में आहार की मात्रा अधिक होने से अपच आदि की विषोत्पादक परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। इससे अब तक का सारा श्रम व किया कराया उद्यम व्यर्थ चला जाता है और नुकसान तक हो जाने का भय बना रहता है।

उपवास के बाद पहला आहार रेचक प्रभाव वाला हो, अधिक पोषक पदार्थों की उनकी आवश्यकता नहीं। साधारण अवस्था में श्वेतसार हीन तरकारी का रस, पालक का रस अथवा जल मिला हुआ थोड़ा सा दूध लेना अच्छा होता है। आहार व्यवस्था में क्रमिक बढ़ोतरी करते हुये पूर्णाहार तक जाना चाहिये। उपवास के बाद शरीर निर्माण की गति में तेजी आ जाती है इसलिये खाद्य व्यवस्था के सन्तुलन पर पूरा ध्यान बनाये रखना अच्छा रहता है।

लंबे उपवासों को छोड़कर, जिनमें किसी अनुभवी चिकित्सक की आवश्यकता पड़ती है, जीवन में उपवास को कोई न कोई स्थान देने से स्वास्थ्य की स्थिरता व सुधार में बड़ी सहायता मिलती है। हल्के व विवेकपूर्ण उपवास न तो इतने कठिन होते हैं कि किये न जा सके, न ही इनसे किसी प्रकार खतरे की संभावना रहती है। यह खाद्यान्न की समस्या से सुधार का भी सर्वोत्तम उपाय है। राष्ट्रीय दायित्व का निर्वाह, शारीरिक स्वास्थ्य व आध्यात्मिक विकास इन सभी उद्देश्यों की पूर्ति का उपवास बड़ा ही सीधा सच्चा और सरल उपाय है। हम में से हर एक को किसी-न-किसी रूप में उपवास अवश्य करना चाहिये।


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