अकारण दुःखी रहने की आदत

May 1964

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जीवनचार अनुभव किये जाने वाले सुख-दुःख मनुष्य की मानसिक स्थिति पर निर्भर करते हैं, हालाँकि अधिकाँश लोग बाह्य परिस्थितियों को अपने सुख-दुःख का कारण मानकर उन्हें कोसा करते हैं या सराहना करते रहते हैं। लेकिन इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि सुख-दुःख मुख्यतया मनुष्य की अपनी मानसिक स्थिति का ही परिणाम है। एक सी परिस्थितियों में एक व्यक्ति सुखी रहता है तो दूसरा दुःख अनुभव करता है। शास्त्रकार ने कहा है।

तमेव विषयं प्राप्य सुख-दुःखे ततो नृणाम्।

मनोऽवस्थितिभेदेन जायेते इति दृश्यते॥

“मन ही सुख-दुःख का कारण है इसीलिए ऐसा देखा जाता है कि एक ही विषय को पाकर मन के अवस्था-भेद से लोग सुख-दुःख अनुभव करते रहते हैं।”

अस्वस्थ मनोवृत्ति के अंतर्गत अपने अज्ञान, एवं अविवेक, नासमझी से सुख के क्षणों का भी हम लाभ नहीं उठा पाते वरन् खुशी में भी दुःख का मातम मनाते रहते हैं। कई बार तो असन्तुलित मन तनिक-सी परेशानी न होते हुए भी काल्पनिक परेशानियों का ऐसा ताना-बाना बुन लेता है जिसमें जीवन की संभावनायें अस्त-व्यस्त हो जाती हैं। इतना ही नहीं सुख के क्षणों को भी हम गंवा बैठते हैं।

बाह्य परिस्थितियों को ही यदि आधार बनाया जाय तो भी ऐसा कभी नहीं होता कि किसी व्यक्ति के जीवन में दुख ही दुःख आये और किसी को सुख ही सुख मिले। जगत में सन्तुलन कायम रखना प्रकृति की विशेषता है। वह किसी को सुख साधनों से मुक्त करती है तो उतने ही अनुपात में दुःख का कारण भी जोड़ देती है। प्रकृति के नियमानुसार प्रत्येक व्यक्ति का जीवन सुख और दुःख के दो पहियों पर चलता है। जिसके जीवन में दुःख की घड़ियाँ आती हैं तो उसके साथ कुछ ऐसी परिस्थितियाँ भी पैदा हो जाती हैं, जिन पर मनुष्य संतोष, शाँति, प्रसन्नता की साँस ले सके।

अति सुख या अति दुःख मनुष्य का अपनी ही अस्वस्थ मनोवृत्ति का परिणाम है।अपने दुःख या अपने सुख में हम एकाकी भाव से इतने डूब जाते हैं कि दूसरे पक्ष का तनिक भी विचार नहीं कर पाते।

कई बार तो मनुष्य को अपने सुख, सफलता, प्रसन्नता के क्षणों में भी भय होने लगता है, अपनी असन्तुलित मनोवृत्ति के कारण। किसी भी परिस्थिति से प्राप्त अति सुख के समय भी हमारे मन में कई तरह के भय, शंकायें, उठ खड़ी होती हैं और सुख के क्षणों को हम दुःख में परिवर्तित कर लेते हैं। अपनी इच्छानुसार सुस्वादु भोजन पाकर भी कई लोग अपनी स्वाद लोलुपता, अथवा पेटू कहलाने की आशंकाओं से ग्रस्त होकर परेशानी में पड़ जाते हैं। कई व्यक्ति परम्परा और संकोच की भावनाओं से ग्रस्त होकर अपने सुखी दाम्पत्य जीवन का भी लाभ नहीं उठा पाते। कई साधन सम्पन्न व्यक्ति मन की शंकाओं के कारण सुविधायुक्त जीवन भी नहीं बिता पाते। गलत नीति और दुराचरण की विकृत कल्पनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य दूसरे के सुख, वर्चस्व से भी दुःखी होने लगता है। दूसरे की सफलता, उन्नति से परेशान होता है, नाक भौं सिकोड़ता है। यह सब मनुष्य की अस्वस्थ और असन्तुलित मनोवृत्ति का कारण है। दुःख-सुख की व्यवस्था इसी मनोवृत्ति का परिणाम है।

दुःख अपने आप में कुछ भी नहीं है न इसका कारण कोई परिस्थिति विशेष ही है। हमारी मनोभावनायें, मानसिक स्थिति ही जीवन में अनुभव होने वाले छोटे से लेकर बड़े दुःख का कारण हैं। हमारे अपने अन्दर ही, अपने व्यक्तित्व के पर्दे में ही दुःख की भयावनी तस्वीर छिपी रहती है।

दुःख का मूल आधार मनुष्य के अपने नकारात्मक विचार होते हैं। रचनात्मक, विधेयक विचार मनुष्य में बड़े परिश्रम और लम्बे अभ्यास के बाद परिपक्व होते हैं। किन्तु नकारात्मक मनोभूमि मनुष्य की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति का परिणाम है, जिसके कारण मनुष्य में चिन्ता, परेशानी, क्लेश, भय, निराशा, हीनता, अवसाद के भावों का विस्तार होता है और ये ही दूषित भाव मनुष्य के दुःख का आधार बनते हैं। बाह्य परिस्थितियों के अनुकूल और सुख साधनों से सम्पन्न होकर भी नकारात्मक मनोभूमि का व्यक्ति दुःख ही अनुभव करता है। इतना ही नहीं वह सुख आनन्द के अवसरों का भी लाभ नहीं उठा पाता। इस तरह जीवन में कभी दुःखों से छुटकारा नहीं मिल पाता।

जीवन पथ पर आगे बढ़ने के लिए हमें स्वस्थ, सबल, रचनात्मक मनोभूमि की अत्यन्त आवश्यकता है। इसके बिना हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकेंगे प्रत्युत हमारा असन्तुलित मन ही हमारे विनाश का कारण बन जायेगा। इसके लिए आत्म निरीक्षण द्वारा अपने मनोविकारों को समझा जाय। अपनी मनोभूमि का पूरा-पूरा निराकरण किया जाय। जो भी नकारात्मक विचार हों उनसे पूर्णतया मुक्त होने का प्रयत्न किया जाय। स्मरण रहे आत्मनिरीक्षण की प्रक्रिया इतनी गंभीर भी न हो जिससे जीवन के अन्य अंगों की उपेक्षा होने लगे। केवल अपने बारे में ही सोचते रहना, अपने व्यक्तित्व में घुसाकर ही ताना-बाना बुनते रहना भी आगे चलकर मानसिक दोष बन जाते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि अपनी मनोविकृति के बारे में गंभीरता से सोचा जाय और फिर उसे सुधारने में तत्परतापूर्वक लग जाया जाय।

नकारात्मक विचारों को हटाकर रचनात्मक, विधेयक दृष्टिकोण अपनाने पर दुःखदायी परिस्थितियाँ भी मनुष्य के लिए सुखकर परिणाम पैदा कर देती हैं। वस्तुतः स्वस्थ मनोवृत्ति का व्यक्ति सुख और आनन्द को ही जीवन का सर्वस्व नहीं मानता। एक सीमा तक इन्हें उपयोगी भी माना जा सकता है।

स्वस्थ मनोवृत्ति का मनुष्य दूसरों के सुख, आनन्द से प्रसन्नता अनुभव करता है। वह दूसरों को सुखी देखकर अधिक संतोष अनुभव करता है। जीवन के प्रति सरस और सजीव दृष्टिकोण अपनाने के कारण अपनी कठिनाइयों से भी बहुत कुछ सीखता है और उन्हें एक उग्र अध्यापक मात्र मानकर स्वागत ही करता है।

यदि हमारा मानसिक संस्थान रचनात्मक, स्वस्थ एवं सबल हो तो ऐसा कोई क्षण नहीं होता जिसमें हमें दुःखी रहने का अवसर मिले। सारा जगत एक चमत्कार और प्रसन्नता का स्रोत है हमारे लिये, विशाल नीला आकाश, उड़ते फुदकते कलरव करते पक्षी, धरती पर फैली हरियाली, छोटे-छोटे बच्चों के खेल, सुन्दर पुष्प, मित्र सगे सम्बंधियों का प्रेम आदि अनेकों सुख स्रोत धरती पर मौजूद हैं। इतना ही नहीं दुःख और कठिनाईयों में सुख की खोज की जा सकती है यदि हमारा दृष्टिकोण उत्कृष्ट एवं विधेयक हो। सारा जीवन ही सरस, सजीव और उत्साह का स्रोत है धरती पर। हम कितना सुख या आनन्द प्राप्त कर सकते है यह हमारे अपने ही दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।

स्वस्थ मानसिक स्थिति में सुख और आनन्द की सीमा मनुष्य के निजी व्यक्तित्व तक सीमित नहीं रहती। वह अकेला सुख अनुभव नहीं कर सकता। दूसरों को सुखी, प्रसन्न, देखकर भी उसे आनन्द मिलता है। इसीलिए ऐसे लोग अपने सुख आनन्द तक ही सीमित न रहकर दूसरों को भी सुखी बनाने का प्रयत्न करते हुए सन्तोष अनुभव करते रहते हैं।

जो जीवन से प्यार करता है, उसे ही जीवन का रस, और आनन्द का वरदान मिलता है। उसे ही स्वास्थ्य, बल, लोकप्रियता मिलती है, जो जीवन से दोस्ती का हक अदा करता है, सुख और आनन्द उनका स्वागत करते हैं, उनसे लिपटे रहते हैं जिसकी मनोभूमि रचनात्मक, विधेयक रहती है। निराशा, कुढ़न, चिन्ता, क्लेश, ईर्ष्या, अवसाद, भावावेश जहाँ घर किए बैठे रहते हैं वहाँ से सुख, शाँति, आनन्द सदैव दूर ही रहते हैं।

सुख दुःख हमारे अपने ही पैदा किए होते हैं। हमारी अपनी ही मनोभूमि का परिणाम हैं। हम अपनी मनोभूमि परिष्कृत करें, विचारों को उत्कृष्ट और रचनात्मक बनायें, भावनायें शुद्ध करें, इसी शर्त पर जीवन हमें सुख शाँति, प्रसन्नता, आनन्द प्रदान करेगा। अन्यथा वह सदा असंतुष्ट और रूठा हुआ ही बैठा रहेगा और अपने लिए आनन्द के द्वार सदैव बंद रखे रहेगा।


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