जीवन और उसका सदुपयोग

May 1964

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जीवन का सदुपयोग कर सकना मानवीय बुद्धिमत्ता एवं दूर-दर्शिता का सबसे बड़ा प्रमाण है। जिसने इस सुर-दुर्लभ मानव-जीवन का ठीक उपयोग कर लिया, उसका समुचित लाभ उठा लिया वह आन्तरिक दृष्टि से निरन्तर संतुष्ट और प्रसन्न रहता है। बाह्य-जीवन में उसे दूसरों का सम्मान, सहयोग एवं स्नेह मिलता है तथा सद्गुणों के फलस्वरूप सुख-साधनों की भी कमी नहीं रहती। मनुष्य-जन्म ऐसा अलभ्य अवसर है जो कठिनाई से ही मिलता है। उसे अस्त-व्यस्त रीति से गंवा देने को नादानी ही कहा जायगा।

बुद्धिमत्ता और पूर्णता की कसौटी दुनिया की दृष्टि में धन और पद को माना जाता है। जिसने जितना कमा लिया, जिसको जितना बड़प्पन मिला वह उतना ही चतुर कहलाता है। पर विचार करने से यह मापदण्ड सर्वथा अनुपयुक्त एवं भ्रमपूर्ण सिद्ध होता है। अनीति से कोई दुष्ट व्यक्ति भी धनवान हो सकता है और धूर्तता से भी बड़प्पन पाप जा सकता है। अमीर बाप का अयोग्य बेटा भी प्रचुर सम्पत्ति का अधिकारी हो सकता है। लाटरी आ जाने पर कोई हीन स्तर का व्यक्ति भी समृद्ध कहला सकता है अथवा कोई सज्जन, सद्गुणी व्यक्ति परिस्थितिवश गिरी दशा में पड़ा रह सकता है। इससे बुद्धिमत्ता की परख कहाँ हुई? संयोगवश मिली हुई सफलता-असफलताओं से किसी व्यक्ति का बौद्धिक स्तर नापा जाना किसी भी प्रकार उचित नहीं कहा जा सकता।

बुद्धिमत्ता की सबसे बड़ी बात यह है कि मनुष्य अपने जीवन का उद्देश्य और लक्ष्य समझे और उसे प्राप्त करने के लिये गंभीरतापूर्वक सोचे एवं साहस के साथ कदम उठाए। इस दिशा में समुचित विचारणा, भावना, प्रेरणा एवं गति प्राप्त हो सके इसलिये अध्यात्म ज्ञान को सुनना, समझना आवश्यक होता है। आत्म-शास्त्र की रचना इसी उद्देश्य से हुई है। अपनी मानसिक और शारीरिक गतिविधियों की समुचित समीक्षा कर सकने, अपने गुण दोषों को पूरी तरह जान सकने, दोषों को हटाने और गुणों को बढ़ाने में तत्पर हो सकने की प्रवृत्ति आध्यात्मिक विचारधारा से ही प्राप्त होती है। इसलिए इस सद्ज्ञान एवं तत्व-ज्ञान को जान लेने से जीवन सार्थक एवं सरल बन जाता है। ऋषियों ने सद्ज्ञान को ही जीवनमुक्ति का आधार माना है।

तत्वज्ञान के नाम पर आज निरर्थक कूड़ा, कचरा हमारे सामने आ उपस्थित होता है। किन्हीं देवी देवताओं के अनहोने, कौतूहलपूर्ण चरित्र बच्चों का परी-कथा जैसा मनोरंजन तो कर सकते हैं पर उनमें वह तथ्य कहाँ होते हैं जिनसे मनुष्य जीवन की गूढ़-गुत्थियों को समझने और सुलझाने में सहायता मिल सके। जिन्हें पढ़ने या सुनने मात्र से उद्धार हो सके ऐसी कथा प्रवचनों के भेद भरे महात्म्य हमें सुनने को मिलते हैं किन्तु उन वस्तुओं का अभाव ही रहता है जो जीवन के यथार्थ स्वरूप को बताते हुए उसके सदुपयोग का व्यावहारिक एवं बुद्धिसंगत मार्ग बता सकें। धर्म प्रवचनों का उद्देश्य यही होना चाहिए था पर खेद की बात है कि मूल प्रयोजन की आवश्यकता तनिक भी पूर्ण न करने वाली निरर्थक बातें पढ़ने और सुनने को मिलती हैं। विस्तृत विधि विधान वाले धार्मिक कर्मकाँड तो बताये जाते हैं, पर यह नहीं सुझाया जाता कि हम अपनी मनोवृत्तियों का परिष्कार करते हुए जीवन का सदुपयोग करने के लिये क्या करें? पूजा, पाठ, दान, स्नान, दर्शन, झाँकी के अतिरिक्त जीवन विकास के लिये जिस ज्ञान और विधान की आवश्यकता है उससे सर्वथा रहित होने के कारण आज का तत्व ज्ञान, अध्यात्म एवं कथा प्रवचनों का आयोजन भी निरर्थक आडम्बर का रूप धारण करता चला जा रहा है।

आवश्यकता इस बात की है कि हम मानव जीवन की महत्ता को समझें और उसकी विशेषताओं का सदुपयोग करते हुये भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करें। बुद्धिमत्ता का यही सच्चा प्रमाण है। भगवान ने हमें बुद्धि दी है तो उसका उपभोग उस प्रकार ही करना चाहिये जिससे हम वस्तुतः समझदार और सच्चे बुद्धिमान भी कहला सकें।

परमात्मा ने हमारे शरीर में सभी योग्यताएं विशेषताएं और क्षमताएं भर रखी हैं जिनका सदुपयोग करने से अन्तःजगत में शान्ति एवं बाह्य जगत में सुख की संभावनाएं प्रत्यक्ष प्रकट होने लगती हैं। सुख साधन प्राप्त करने के लिए बाह्य जगत में हम जितना श्रम करते हैं उसका एक चौथाई भी यदि हम अन्तःजगत की स्थिति को समझने और सुधारने में लगावें तो उतना बड़ा कार्य हो सकता है जिसके फलस्वरूप समृद्धि और प्रसन्नता की अगणित सम्भावनाएं हाथ बाँध कर आगे आ खड़ी होंगी।

आत्म निर्माण के आधार पर गुण, कर्म, स्वभाव का विकास करते हुए जो प्रगति की जाती है वही स्थिर रहती है और वही निरन्तर अग्रसर होती चली जाती है। चतुरता और परिस्थितियों की अनुकूलता से जो लाभ उठा लिया जाता है वह देर तक ठहरता नहीं। जो परिस्थितियाँ अनुकूल होने पर समृद्धि लाई थीं वे प्रतिकूल होने पर विपत्ति भी प्रस्तुत कर सकती हैं। पर यदि आधार मजबूत है, मनुष्य अपना व्यक्तित्व सुदृढ़ बना चुका है तो फिर कठिन परिस्थितियाँ भी उसे देर तक विपन्न स्थिति में नहीं रख सकती। अपने सद्गुणों द्वारा वह अपने खोये वैभव एवं सम्मान को पुनः प्राप्त कर लेगा। प्रतिकूल परिस्थितियाँ उन्हें ही दबोच सकती हैं जिनका व्यक्तित्व खोखला है। जिसने अपनी जड़ें गहराई तक जमीन में धँसा रखी हैं वह बरगद का पेड़ बड़े-बड़े आँधी तूफानों को आसानी से सहन कर लेता है। सुसंस्कृत स्वभाव और परिष्कृत व्यक्तित्व के मनुष्य भी संसार की हर प्रतिकूलता से टकरा कर अनुकूलता उपलब्ध कर सकने में समर्थ और सफल होते हैं।

सुख समृद्धि की स्थिति प्राप्त करने के लिए हमें काफी तैयारी करनी पड़ती है। स्वास्थ्य, शिक्षा, मित्रता, धन आदि का संग्रह इसीलिए किया जाता है कि इनके द्वारा उन्नतिशील सुख साधनों को उपलब्ध किया जा सके। पर हम यह भूल जाते हैं कि उनसे भी महत्वपूर्ण माध्यम है-व्यक्तित्व का निर्माण। छिछोरा, बचकाना, अशिष्ट, सतावला एवं अस्त-व्यस्त व्यक्तित्व वाला मनुष्य बाह्य साधनों में चाहे कितना ही सम्पन्न क्यों न हो किसी की दृष्टि में श्रद्धा एवं सम्मान का पात्र न बन सकेगा। सामने न सही पीठ पीछे उसे केवल उपहास एवं भर्त्सना का भाजन ही बनना पड़ेगा। किन्तु सुसंस्कृत, शालीन, सभ्य एवं परिष्कृत दृष्टिकोण वाले व्यक्ति भले ही आर्थिक या अन्य प्रकार की कठिनाइयों में पड़े हो, अपना सम्मान अक्षुण्ण रख रहे होंगे। बादलों में छिपे सूर्य का भी प्रकाश तो फैलता ही है, सज्जनता सम्पन्न मनुष्य भी अपने महत्व को किसी भी परिस्थिति में गिरने नहीं दे सकता।

जीवन का सदुपयोग करने का पहला कदम यह है कि हम अपने व्यक्तित्व को सुधारने, बनाने एवं विकसित करने पर समुचित ध्यान दे। उस साहित्य को पढ़ें जो उस सम्बन्ध में मार्ग दर्शन कर सके, उन प्रवचनों को सुनें जो जीवन विकास के लिए व्यावहारिक मार्ग दर्शन दे सकें, उन लोगों की संगति करें जिनने अपने गुण, कर्म, स्वभाव का सज्जनोचित परिष्कार कर लिया हो। आत्म ज्ञान की प्राप्ति इन उचित माध्यमों से करनी चाहिए। सच्चा अध्यात्म ज्ञान यही है। वह भले ही वेद शास्त्र से सन्त-महात्माओं से प्राप्त होता हो अथवा किसी मामूली पुस्तिका या सामान्य गृहस्थ से, हमें तथ्य को पकड़ना चाहिए। बाह्य परिधान से कुछ बनता बिगड़ता नहीं। सोने की डली चाहे मखमल की डिब्बी में रखकर दी जाय चाहे ढाक के पत्ते में लिपटी हुई हो, उसके मूल्य में कोई अन्तर नहीं आता। सद्ज्ञान वही कहला सकेगा जो हमें व्यक्तित्व सम्पन्न बना सके।

जान लेने के बाद, करना सुगम होता है। अपने दोषों को ढूंढ़ने समझने और उन्हें सुधारने की विधि हमें सीखनी चाहिए। अपने गुणों को पहचानने और उन्हें निरन्तर बढ़ाने की पद्धति का ज्ञान भी प्राप्त करना चाहिए। इसी मार्ग पर चलते हुए जीवन का सदुपयोग कर सकने की प्रक्रिया हाथ लगेगी और यदि आत्म-निर्माण को सर्वोपरि महत्वपूर्ण कार्य समझकर उसे करने के लिए कटिबद्ध होने का साहस मिल गया तो समझना चाहिए कि नरतनु को सार्थकता के लक्ष तक पहुँचाने वाली आधी मंजिल पार हो गई।

निर्माण का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। उत्पादक और निर्माता ही यश, धन और श्रेय प्राप्त कर सकते हैं। सबसे बड़ा उत्पादन अपने गुण, कर्म, स्वभाव के क्षेत्र में उत्कृष्टता को उत्पन्न करना और निर्माणों में सब से बड़ा आत्म-निर्माण ही माना गया है। इस और जिसका ध्यान है, जिसका प्रयत्न इस दिशा में लगा हुआ है वस्तुतः वही सबसे बड़ा बुद्धिमान है। जीवन के सदुपयोग कर सकने का श्रेय उसे ही मिलेगा और उस सफलता के फल स्वरूप प्राप्त होने वाली विभूतियों का अधिकारी भी वही बनेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118