एक से दस की सुनिश्चित योजना के अनुसार इस आन्दोलन को सुगठित और विकसित किया जाना है। अब इसलिए वह उपयुक्त समय आ पहुँचा जिसमें एक क्षण का विलम्ब न करके वह पद्धति कार्यान्वित करने में हमें संलग्न हो जाना चाहिए। उसके लिए दो प्रयत्न इसी महीने से आरंभ कर दिये जाने चाहिए।
(1) अखण्ड-ज्योति का प्रत्येक सक्रिय कार्यकर्ता पाक्षिक ‘युग-निर्माण योजना’ पत्र मंगाना आरंभ करे और उसे एक-एक दिन के लिए अपने से संबंधित दस व्यक्तियों के पास पहुँचाने का व्यवस्था क्रम बनावें। उस एक पत्रिका को कम से कम दस व्यक्ति पढ़ें। एक दूसरे को पढ़ने देता रहे और अन्त में दस दिन बाद वह पत्रिका दसों व्यक्तियों के पास घूमता हुआ उसी सक्रिय कार्यकर्ता-शाखा संचालक के पास वापिस आ जाय। उस पक्ष में छिपे समाचारों और प्रेरणाओं के संबंध में शाखा संचालक को अपने संबंधित दस सदस्यों से परामर्श करना चाहिए और जिसके लिए जो गति विधि एवं प्रेरणा अपना सकना संभव हो उसके लिए उन्हें प्रोत्साहित किया करें। पाक्षिक पत्रिका का प्रत्येक पृष्ठ युग-निर्माण की दिशा में अग्रसर बनाने की प्रेरणाओं से ओत-प्रोत रहा करेगा। उसमें छपी पाठ्य−सामग्री से जो प्रभाव पाठक कर पड़ेगा उसे शाखा संचालक व्यक्तिगत संपर्क बना कर थोड़ा-थोड़ा उत्पन्न करते रहेंगे तो उन लोगों के लिए इन आदर्शों को जीवन में उतर सकना अवश्य ही संभव होगा। इसलिए पाक्षिक अपने नाम मंगाकर उसे सबको पढ़ाने का नियमित रूप से प्रत्येक सक्रिय कार्यकर्ता को शाखा संचालक को पढ़ा ही देना चाहिए।
(2) अखण्ड-ज्योति की पंक्तियाँ कलम, स्याही में नहीं वरन् हमारी अन्तरात्मा के आग पानी से लिखी जाती है उसे जो लोग ध्यानपूर्वक पढ़ते है उनके भीतर भी वे ही चिनगारियाँ उठना स्वाभाविक है जो कागज के पन्नों में लपेटकर हम यहाँ से भेजते हैं। पर कई नये ग्राहक जो किन्हीं दूसरों की बलात् प्रेरणा से इसी वर्ष सदस्य बने हैं, उसके महत्व से अपरिचित होने के कारण पढ़ने में आलस्य और उपेक्षा करते रहते हैं। ऐसी दशा में घाटा सहकर पत्रिका चलाने और पाठकों के सुविकसित व्यक्तित्व को नर-नारायण बनाने का हमारा मनोरथ अधूरा ही रह जाता है। आवश्यकता इस बात की है कि जो भी सज्जन अखण्ड-ज्योति मंगाते हैं एक लेख प्रतिदिन के हिसाब से पूरी श्रद्धा के साथ पठन करें और उनके घर का एक भी सदस्य ऐसा न बचे जो प्रशिक्षित होते हुए भी पढ़ता न हो। प्रयत्न यह होना चाहिए कि उस घर में जो अशिक्षित हो उन्हें पत्रिका घर के किसी शिक्षित द्वारा सुनने को मिल जाया करें।
अभीष्ट लक्ष की पूर्ति के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि वर्तमान अखण्ड ज्योति के पाठक पत्रिका को श्रद्धापूर्वक आद्यापान्त पढ़ें उस पर मनन चिन्तन करें और घर के प्रत्येक सदस्य को उस विचारधारा के संपर्क में लावें। यह प्रक्रिया ठीक प्रकार चलती है या नहीं, इसके लिए भी सक्रिय कार्यकर्ताओं को, शाखा संचालकों को, अपने कंधे पर ही उत्तरदायित्व वहन करना पड़ेगा। प्रगति के लिए इस विधि-व्यवस्था को कार्यान्वित किये बिना और किसी प्रकार काम न चलेगा।
किया यह जाना चाहिए कि जहाँ जितने अखण्ड ज्योति के सदस्य हैं, वे दस-दस के छोटे संगठनों से संगठित हो जायं। इनका एक शाखा संचालक हो। प्रत्येक शाखा संचालक अपने संबंधित दसों अखण्ड-ज्योति सदस्यों के घर आने-जाने का क्रम बनाये रखें और यह देखें कि उस परिवार के सब सदस्यों को पत्रिका के पढ़ने सुनने का लाभ मिलता है या नहीं। जहाँ इस संबंध में शिथिलता हो उसे दूर करने के लिए प्रयत्न करना, अभिरुचि, उत्पन्न करना तथा प्रोत्साहन देना शाखा संचालकों का आवश्यक कर्त्तव्य रहे। प्रत्येक परिवार में औसतन पाँच वयस्क व्यक्ति माने जाय तो इस अखण्ड-ज्योति सदस्यों के परिवारों में पचास व्यक्ति होंगे। शाखा संचालक इन पचासों का एक प्रकार से प्रेरणा पुरोहित होगा। और उन सब तक युग-निर्माण विचारधारा का प्रकाश पहुंचाने का प्रयत्न करेगा। शाखा संचालक जब यह उत्तरदायित्व निबाहने लगेंगे तो इन दिनों जो पाँच हजार शाखा संचालक हैं वे पचास-पचास को प्रकाश पहुँचाने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेकर कई लाख व्यक्तियों को नव-जीवन की प्रेरणा से प्रभावित कर सकते हैं।
वर्तमान शाखा संचालकों के प्रयत्न उनके से दस संबंधित पाठकों में से एक व्यक्ति नया शाखा संचालक बन कर अन्य नये दस सदस्य बनाने और उनके परिवार के पचास व्यक्तियों को प्रकाश देने के लिए तत्पर किया जा सके तो यह क्रम चक्रवृद्धि पद्धति से बढ़ता हुआ तीन-चार छलाँगों में सारे भारतवर्ष तक और पाँच छः छलाँगों में सारे विश्व तक नव-जीवन का प्रकाश पहुँचाने में समर्थ हो सकता है। वर्तमान शाखा संचालकों के लिए यह परीक्षा की घड़ी और कर्त्तव्यनिष्ठ होने की कसौटी हो। ‘एक से दस’ का क्रम उन्हें चलाना ही चाहिए। इसके बिना युग-निर्माण जैसे महान कार्य को साकार रूप दे सकना और किसी भी प्रकार संभव न होगा।
जहाँ कम से कम बीस अखण्ड-ज्योति के सदस्य हैं, जहाँ कम से कम दो शाखा संचालक हैं, वहाँ ऐसा किया जाना चाहिए कि सब सदस्यों की पत्रिकाएं इकट्ठी ही मंगा ली जायं। जहाँ रेलवे स्टेशन पास हो वहाँ रेल से, जहाँ रेलवे न हो वहाँ डाक से हम रजिस्ट्री डाक पार्सल या रेल पार्सल से अंक भेज दिया करेंगे और शाखा संचालक उन सदस्यों के पास पत्रिका पहुँचा दिया करे। इसमें साधारण डाक व्यय की अपेक्षा हमें थोड़ा दुगना खर्च करना पड़ेगा। पर इससे दो महत्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति होगी। एक तो यह कि डाक में अंक कम होने की शिकायत अब अत्यधिक बढ़ गई है। अच्छी पत्रिका देखकर लोग उसे बीच में ही चुरा लेते हैं। पाठक समझते हैं मथुरा से भेजी नहीं गई। यहाँ हर महीने दो-बार जाँचकर बहुत सावधानी से सबके अंक भेजने पर भी भारी संख्या में गुम होने की शिकायत आती हैं। प्रायः 500 अंक हर महीने दुबारा भेजने पड़ते हैं। यह झंझट उपरोक्त व्यवस्था बन जाने पर सहज ही दूर हो जायेगी। किसी को न मिलने की शिकायत न रहेगी, न किसी को असंतोष होगा। दूसरा लाभ यह है कि शाखा संचालक इस बहाने अपने उन दस सदस्यों के घर जाकर यह पता लगा सकेंगे कि अंकों को पढ़ा जाता है या नहीं। जहाँ कुछ शिथिलता दिखाई देगी उसे वे दूर करेंगे और गत अंक में जो महत्वपूर्ण छपा था उसके बारे में पूछेंगे तथा उस अंक में जो प्रेरणाप्रद है उसके संबंध में संकेत करेंगे। इस आधार पर संगठन के मजबूत होने और प्रस्तुत विचारधारा को जन-मानस में प्रवेश करने का अवसर मिलेगा।
जहाँ यह व्यवस्था संभव हो वहाँ अवश्य ही बना ली जानी चाहिए। एक बड़े नगर में, या ग्रामीण क्षेत्र में एक परिधि के शाखा संचालक इकट्ठे होकर अपना संगठन बना लें। इकट्ठे अंक मंगा लिया करें और फिर परस्पर उनका वितरण कर दिया करें तो यह एक बड़ी सुविधाजनक तथा महत्वपूर्ण बात होगी।
संगठन के द्वारा ही युग-निर्माण का मिशन व्यापक बनेगा। संगठन किसी कार्यक्रम के आधार पर ही बनता है। प्राथमिक आधार अखण्ड-ज्योति तथा “युग-निर्माण योजना” पाक्षिक पत्रिका को वर्तमान पाठकों के गले उतारने की कार्यप्रणाली के आधार पर सुनियोजित किया जाय, इससे अगला कदम शत सूत्री कार्यक्रमों को जहाँ, जिस प्रकार, जितनी मात्रा में कार्यान्वित किया जा सकना संभव हो उतना वहाँ आरंभ कराते हुए प्रगति के स्वयं ही बढ़ना होना चाहिए। कदम-कदम बढ़ने का संकल्प किया 7) हो तो आज जो कुछ असंभव एवं आश्चर्य जैसा दीखने वाला एक दिन है कल वह पूर्ण व्यावहारिक, सर्वथा संभव और नितान्त सरल प्रतीत होने लगेगा।