सौ वर्ष से भी कम गुजरे हैं कि हम लोग स्त्री-शिक्षा के लिये पुकार मचाया करते थे। कहते थे कि जिस समाज की नारियाँ अशिक्षित-मूर्ख होंगी, उसके पुरुष किस प्रकार सभ्य, उन्नतिशील और आदर्श हो सकते हैं? आज हमारी वह पुकार बहुत कुछ कार्यान्वित हो गई है। गाँवों की नहीं तो शहरों की अधिकाँश लड़कियाँ स्कूल जाकर थोड़ा-बहुत पढ़ना-लिखना सीख ही लेती हैं। हायर सैकिन्डरी और कालेजों में पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या भी लाखों तक पहुँच चुकी है।
पर क्या जिस आशा, जिस आदर्श की पूर्ति के लिये हमने स्त्री-शिक्षा की पुकार उठाई थी, उसमें भी कुछ सफलता प्राप्त हुई? हमें ¹द से कहना पड़ता है कि हमारी आगामी पीढ़ी में कोई ऐसे विशेष लक्षण दिखलाई नहीं देते जिन्हें हम वास्तविक उन्नति या प्रगति के चिन्ह कह सकें। इसके विपरीत कभी-कभी तो उनकी उच्छृंखलता फैशन परस्ती, स्वार्थपरता को देखकर यही विचार आता है कि ‘चौबेजी चले छब्बे जी बनने को पर रह गये दुब्बेजी।’ साक्षरता का प्रचार अवश्य बढ़ा है, पुस्तकों और अखबारों का प्रचार भी अधिक हो गया है, इधर-उधर की बातें बनाने और ज्ञान-विज्ञान के ‘सिद्धाँत’ झाड़ने में भी वृद्धि हुई है, पर सच्ची कर्मशीलता, परोपकार और उदारता की भावना और गंभीर अध्ययन तथा मनन का दर्शन बहुत कम होता है।
क्या कारण है कि स्त्री-शिक्षा की पर्याप्त वृद्धि हो जाने पर भी समाजोत्थान में उसका कोई प्रभाव दिखाई नहीं देता? मुख्य बात यही जान पड़ती है कि इस समय लड़कियों को जो शिक्षा दी जा रही है वह जीवनोपयोगी नहीं है, वरन् इधर-उधर की सस्ती नकल मात्र है। इस शिक्षा-प्रणाली पर दृष्टिपात करते हुए एक विचारक ने कितने ही वर्ष पहले लिखा था-’हर साल हजारों लड़कियाँ हाई स्कूल की परीक्षा में पास निकलती हैं और जिनको ईश्वर ने साधन दिये हैं वे कालेजों में भी जाती हैं। पर उच्च शिक्षित लड़कियों में से कितनी ऐसी है, जिनका विवाहित जीवन सफल कहा जा सकता है, जिनके जीवन में अतृप्ति नहीं है, अशाँति नहीं है, जो अपने वर्तमान पर सन्तुष्ट हैं और भविष्य की तरफ आशापूर्ण दृष्टि से देखती हैं? जो कुछ देखने में आता है, वह ठीक इसका उल्टा है। यह सच है कि पढ़ी-लिखी लड़कियाँ इससे इन्कार करेंगी, नव-शिक्षित सम्प्रदाय इस पर नाक-भौं सिकोड़ेगा, पर इसका कारण यही है कि आधुनिक शिक्षा में हमें आत्म वंचना की कला में पारंगत बना दिया है। ----यह बात नहीं है कि लड़कियों को जो शिक्षा मिली है वह तत्वतः बुरी है। उसमें अच्छाइयाँ है, उसमें कल्पनाशक्ति और बुद्धि के विकास की गुँजाइश है। उसमें जो चीज बुरी है वह है उसका गलत प्रयोग। भावी जीवन के उपयोग का ख्याल किये बिना शिक्षा का प्रयोग करना नादानी है। और सबको एक ही साँचे की शिक्षा देना भी ठीक नहीं। शिक्षित लड़कियाँ इसीलिये गृहजीवन में अपनी विद्या का विशेष उपयोग नहीं कर पाती, क्योँकि शिक्षा देते समय उनके भावी जीवन का कुछ विचार ही शिक्षकों और पाठ्य-क्रम बनाने वालों के सामने नहीं होता।’
जिस लड़की को भावी-जीवन में अनेक प्रकृति के लोगों के साथ मिलकर एक गृहस्थी का संचालन करना है उसको सहिष्णु, धैर्यशील और सेवाभावी होना आवश्यक है। इससे भी बढ़कर बात यह है कि वह मातृत्व के गौरव और कर्तव्यों को समझे और पालन करे। इस प्रकार की शिक्षा से ही वह परिवार तथा समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व की पूर्ति कर सकती है। ऐसी शिक्षा उसे वैसे तो उसके माता-पिता तथा ससुराल के संबंधी ही दे सकते हैं, पर स्कूली शिक्षा में भी इस बात का ध्यान रखना अत्यावश्यक है कि वह उपरोक्त गुणों की वृद्धि में सहायक सिद्ध हो।