त्रिविध प्रशिक्षण की पृष्ठ-भूमि

May 1964

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युग-निर्माण योजना को विशेष गति और साकार स्वरूप देने के लिए ‘त्रिविध प्रशिक्षण’ की जो योजना प्रस्तुत की गई है उसे परिजनों ने बहुत ही आवश्यक एवं उपयुक्त माना है और उसके संबंध में बहुत ही भावनापूर्ण विचार व्यक्त किये हैं। देश भर के विचारशील एवं प्रबुद्ध सम्भ्राँत मनीषियों ने इस योजना को अत्यन्त आवश्यक, व्यावहारिक एवं निश्चित रूप में अभीष्ट परिणाम प्रस्तुत करने वाली माना है।

ऐसा इस एक मास में आये हुए हजारों पत्रों से पूर्णतया स्पष्ट होता है। जिस सुदृढ़ संकल्प के साथ इस योजना को आरंभ किया जा रहा है, जिन तपे हुए व्यक्तियों द्वारा इसे कार्यान्वित किया जा रहा है और युग की पुकार के उपयुक्त जो सामयिक कदम उठाया गया है, उनका सम्मिलित स्वरूप सफल ही होकर रहेगा ऐसी भविष्यवाणी और शुभ कामना के अगणित पत्र हमें प्राप्त हो चुके हैं, यह आशीर्वाद एवं प्रोत्साहन हमारे संकल्प एवं प्रयत्न को अग्रगामी बनाने की प्रेरणा भरी भूमिका प्रस्तुत कर रहे हैं।

अखण्ड ज्योति के माध्यम से, पुस्तकों से, पत्र व्यवहार से तथा वाणी से पिछले पच्चीस वर्षों से धर्म, ज्ञान, नीति सदाचार का यथासंभव प्रचार किया जा रहा है। संस्कारवान व्यक्तियों पर उसका प्रभाव ही पड़ा है और एक सीमा तक सन्तोषप्रद सफलता भी मिली है। लाखों व्यक्तियों की जीवन दिशा बदली है और वे कुछ से कुछ बने हैं। इन सुधरे हुए व्यक्तियों ने समाज की नवरचना में महत्वपूर्ण योगदान भी दिया है। पर इतना चलने से ही मंजिल पूरी नहीं हो जाती, हमें आगे बहुत दूर तक चलना है, जो किया जा चुका उससे हजारों गुना अधिक करना है। राष्ट्र निर्माण एवं विश्व शाँति का कार्य बहुत व्यापक और बड़ा है, उसके लिए उतनी ही बड़ी विचारणा, भावना, प्रक्रिया एवं योजना अभीष्ट है। जैसे-जैसे संकल्प वाला सहयोग बल एवं उत्तरदायित्व बढ़ता जा रहा है वैसे ही वैसे क्रिया में भी तेजी आनी ही है। युग-निर्माण योजना की गतिशीलता को निरंतर अग्रगामी होते ही जाना है। परमात्मा की इच्छा-स्वरूप नवयुग की उषा का उदय होना इसी प्रकार संभव भी है।

जिस विचारधारा को गत पच्चीस वर्षों से सिखाया समझाया जाता रहा है वह पाठकों को हृदयंगम हुई या नहीं इसकी परीक्षा का समय आ पहुँचा। उस विचारधारा एवं प्रेरणा को कार्यान्वित होना ही चाहिए। जो ज्ञान मस्तिष्क का भार एवं मनोरंजन बन कर रह जाय वह निरर्थक है। ज्ञान की सार्थकता तो तभी है जब वह कार्य रूप में परिणत हो। धर्म या अध्यात्म उसी को मानना चाहिए जो व्यावहारिक जीवन में उतरे। धर्म कथा को कहने सुनने भर की, पाठ करने मात्र से पुण्य मिल जाने की जादूगरी मान लिया जाय तो उसे भ्राँति के अतिरिक्त और कहा ही क्या जा सकता है? आवश्यकता इस बात की है कि अध्यात्म को, धर्म और सदाचार को जन-जीवन में ओत-प्रोत होने की प्रक्रिया चल पड़े। तभी तो उसके सत्परिणामों को प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकेगा। अब अखण्ड ज्योति परिवार के सामने वही स्थिति आ उपस्थित हुई है कि जो कुछ पच्चीस वर्ष में सीखा गया है उसे कार्य रूप में परिणत किया जाय।

हममें से हर एक को अपना निर्माण करने के लिए कटिबद्ध होना होगा। लोक शिक्षण की दिशा में वाणी और लेखनी एक सीमा तक ही अपना प्रभाव उत्पन्न करती हैं। इसके बाद प्रभाव डालने का, उन्हें प्रेरणा देने का सबसे बढ़िया सबसे कारगर और सबसे निश्चित मार्ग एक ही है- अपनी श्रेष्ठता का अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करना। इसी कसौटी पर हमारी वास्तविकता अब परखी जानी है। पच्चीस वर्ष में जो हम लोगों ने लिखा या पढ़ा है उसका कितना प्रभाव अन्तःकरण पर हुआ? उस प्रेरणा ने कितनी गतिशीलता प्रदान की? इन प्रश्नों का उत्तर अब हमें अपने आचरण द्वारा ही देना पड़ेगा।

धर्म और अध्यात्म के महान आदर्शों को कहते लिखते ही न रहकर अब हमने भी अपनी नीति यह बना ली है कि जो सिखाया जाय उसे कार्यान्वित भी किये जाने पर पूरा-पूरा जोर दिया जाय। जो लोग सद्ज्ञान की विचारधारा से प्रभावित हों उन्हें सत्कर्म की गतिविधि अपनाने के लिए भी दबाया जाय। कुछ ठोस काम होगा तो वह इसी तरह होगा।

हमारी अभिलाषा है कि अखण्ड-ज्योति परिवार का हर सदस्य उत्कृष्ट प्रकार के व्यक्तित्व से सम्पन्न भारतीय धर्म और संस्कृति का शिर ऊंचा करने वाला सज्जन व्यक्ति बने। उसका जीवन उलझनों और कुण्ठाओं से भरा हुआ नहीं वरन् आशा, उत्साह, संतोष एवं मस्ती से भरा हुआ बीते। हर व्यक्ति अपने परिवार के बारे में ऐसा ही सोचता है, हम भी ऐसा ही सोंचे तो यह स्वाभाविक ही है। मनुष्य यदि थोड़ा-सा बदल और ढल जाय तो एक-एक के जीवट क्रिया में ऐसा सुसंयत सुयोग उत्पन्न हो सकता है। प्रश्न केवल कुछ बदलने, कुछ सुधरने और कुछ करने का है। इसके लिए अपेक्षाकृत कुछ अधिक प्रेरणा एवं जीवन चाहिए। प्रशिक्षण योजनाओं का उद्देश्य इसी आवश्यकता की पूर्ति करना है।

हर व्यक्ति अपनी समस्याओं को हल कर सकता है, अपने भाग्य और भविष्य को उज्ज्वल बना सकता है, पर यह सब कैसे किया जाय इस विधि-व्यवस्था को कोई विरले ही जानते हैं, जो जानते हैं वे मनोबल के अभाव में वैसा कर नहीं पाते। निरोगता, विद्या, समृद्धि, प्रतिष्ठा, मैत्री, कौटुम्बिक सुख शाँति आदि विभूतियों को चाहता तो हर व्यक्ति है पर उनको किस मूल्य पर प्राप्त किया जा सकता यह नहीं जानता, जो जानता है वह उस मूल्य को चुकाने का साहस नहीं करता। फलस्वरूप प्रगति और सुख शाँति की कामना कल्पना मात्र बनकर रह जाती है। आवश्यकता इस बात की है कि यह स्थिति बढ़ती जाय। यह परिवर्तन जिस प्रेरणाप्रद प्रोत्साहन के मार्गदर्शन की अपेक्षा रखता है उसी की पूर्ति के लिए ‘त्रिविध प्रशिक्षण योजना’ को क्रियान्वित करने के लिए हमें कटिबद्ध होना पड़ा है।

सिक्के ढालने की टकसाल में नया पैसा, दो पैसा, पाँच पैसा, दस पैसा, पच्चीस पैसा, पचास पैसा का सिक्का ढलता है और उसमें अर्थ व्यवस्था की आवश्यकता पूरी होती है। युग-निर्माण योजना की प्रशिक्षण योजना को भी एक टकसाल ही कहना चाहिए। इसमें चारों वर्ण और चारों आश्रमों का ठीक प्रकार पालन करने की समग्र व्यवस्था राष्ट्र की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करने वाले व्यक्तित्व ढालेगी और उससे साँस्कृतिक एवं नैतिक पुनरुत्थान की एक भारी आवश्यकता पूर्ण होगी। आशा यह करनी चाहिए कि यह टकसाल ऐसे व्यक्तित्व ढालने में समर्थ होगी जिन्हें हीरे-मोतियों के वजन से भी अधिक मूल्यवान गिना जायेगा।

संतोष की बात है कि इस योजना का परिवार के भीतर और बाहर आशातीत स्वागत हुआ है। अखण्ड-ज्योति के प्रत्येक सदस्य को इस बात की तैयारी करनी चाहिए कि वह अपनी स्थिति के अनुसार जीवन-निर्माण के त्रिविध प्रशिक्षणों द्वारा आत्म-कल्याण और युग-निर्माण का दुहरा श्रेय प्राप्त करने का जीवन को धन्य बनाने वाला सुअवसर प्राप्त कर सके।


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