नास्तिक नित्से

May 1964

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नित्से जर्मनी के उस दार्शनिक का नाम है जिसने धार्मिकता और आस्तिकता अपनाने की अपेक्षा मनुष्य को श्रेष्ठ मनुष्य, महामानव, अतिमानव बनने की प्रेरणा दी। वह प्रत्येक आदर्श और विचार को विवेक एवं उपयोगिता की कसौटी पर कसने का पक्षपाती था। इसलिए उसने समाज में प्रचलित मान्यताओं में से प्रत्येक पर कसौटी लगाई और उसकी दृष्टि में जो कुछ भी खरा नहीं उतरा उसी को उसने अमान्य ठहराया। उसकी कसौटी पर आस्तिकता और धार्मिकता का प्रचलित स्वरूप भी खरा नहीं उतरा इसलिए उसने केवल प्राचीनता के आधार पर या किन्हीं ग्रंथों एवं संतों के द्वारा प्रतिपादित होने के कारण उन्हें मान्य नहीं ठहराया। उसने विवेक को अपनाने पर बहुत जोर दिया, सत्य की कसौटी पर हर आदर्श की कड़ी परीक्षा लेने के लिए उसने जन-साधारण को आमंत्रित किया।

प्रिंस विस्मार्क जर्मनी को शक्तिशाली बनाने में संलग्न थे, राजकीय सैनिक और औद्योगिक शक्ति से अपने राष्ट्र को अधिकाधिक सम्पन्न बनाने का प्रयत्न कर रहे थे, उनके कार्यक्रम को सफल बनाने में नित्से के दर्शन का महत्वपूर्ण हाथ था।

नित्से आरंभ में एक धार्मिक ईसाई थे। बड़े प्रेम से बाइबल पढ़ा करते थे। पढ़ते-पढ़ते कई बार भावावेश में उनकी आँखों से आँसू बहने लगते थे। पर जैसे-जैसे बड़े होते गये, हर बात को उन्होंने कसौटी पर कसना शुरू किया। फलस्वरूप उन्हें ईसाई मान्यताओं से विरति हो गई। धार्मिक ईश्वर के स्थान पर उन्होंने ‘अति मानव’ की देवता के रूप में कल्पना की और इस बात पर जोर दिया कि मनुष्य को आध्यात्मिक ही नहीं भौतिक दृष्टि से भी अधिकाधिक विकसित होना चाहिये।

अपने निजी जीवन के कटु अनुभवों के आधार पर वे सुरा, सुन्दरी के घोर विरोधी थे। उसने इनके फेर में पड़कर बहुत कुछ खोया था और भारी ठोकरें खाई थीं इसलिए वे उनके जाल से विचारशील लोगों को बचते रहने की ही सलाह देते थे।

नित्से ने कितने ही महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे हैं। उनमें ‘दस स्पीक जराथस्ट’ की बहुत प्रशंसा है। स्वयं लेखक ने इसे अपनी सर्वोत्कृष्ट और महान कृति माना है। फिर भी उसके जीवन काल में उसकी बहुत कम प्रतियाँ बिकी।

इस महान दार्शनिक के विचारों से हिटलर प्रभावित हुआ और उसने नाजीवाद अपनाया। उसी की प्रेरणा से जर्मन जाति, शक्ति और शौर्य की उपासक बनी और वह नशा इतना गहरा चढ़ा कि दो-दो महायुद्धों में हारने और भारी क्षति उठाने पर भी खुमारी अभी तक गई नहीं है। जर्मन युवक अभी भी विश्व-विजय के सपने देखते हैं।

नित्से ने लिखा है-’पीछे की ओर नहीं, आगे की ओर देखो। पूर्वजों की कब्र में तुम्हें नहीं रहना है वरन् अपनी सन्तति के साथ ही दिन काटने है, इसलिए भविष्य ही तुम्हारी आशाओं का केन्द्र होना चाहिए। उसी के निर्माण में तुम्हारी इच्छा शक्ति केन्द्रित होनी चाहिए। तुम सबको स्वतंत्र रूप से हर समस्या पर विचार करना चाहिए जैसा कि मैंने किया है। केवल अच्छे बनने से काम न चलेगा। साथ ही दुरुस्त बनने की भी कोशिश करो।’

नित्से ने दो प्रकार की नैतिकता का प्रतिपादन किया है। एक वीरोचित दूसरी दासोचित। वीरोचित नैतिकता में वे पुरुषत्व, साहस, कर्मठता और वीरता का प्रतिपादन करते हैं और इसके लिए कठोरता, हिंसा, भयंकरता, युद्ध और कूटनीति को आवश्यक गिनाते हैं। दासोचित नैतिकता में वे विनम्रता, अनासक्ति, दीनता, दयालुता और शाँति को मिलते हैं। उसने ईसाई धर्म से बौद्ध युग जैसा खतरा देखा और जनता को केवल सज्जनता और शाँति की ही रट न लगाते रहने की चेतावनी देते हुए कहा-’यह संसार शक्ति और श्रेष्ठता के सिद्धान्तों पर चल रहा है। योग्यतम का, दूसरों को परास्त करके जीवित रहना, एक कठोर तथ्य है जिसे समझ लेना ही बुद्धिमानी है। जीवन संग्राम में पिछड़ कर अपने आपको नष्ट होने से बचाने के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति, प्रभुत्व की लालसा और प्रबल मनोवेगों की आवश्यकता है इसके बिना कोई व्यक्ति या समाज महान नहीं बन सकता। साहसी बनना, शक्तिशाली बनना ही सत् है। दुर्बलता ही असत है।’

उन्होंने गणतंत्र के सिद्धांतों का भी विरोध करते हुए कहा-’सब मनुष्य समान नहीं हो सकते। गणतंत्र का अर्थ है-’घटिया लोगों का वर्चस्व और श्रेष्ठ व्यक्तियों का तिरस्कार’ ऐसी स्थिति में महापुरुष न तो उत्पन्न हो सकते हैं और न उन्हें वर्चस्व प्राप्त हो सकता है। चुनावों में होने वाली धाँधली और अशिष्टता को पार कर आगे बढ़ सकना श्रेष्ठ पुरुषों के लिए किस प्रकार संभव हो सकता है?’

आज जनतंत्र के युग में नित्से के विचार विलक्षण लगते हैं, उनकी व्याख्यायें विचित्र मालूम पड़ती हैं, और शाँति तथा समानता के सर्वप्रिय सिद्धान्तों से परिचित लोगों के लिए उनकी बातें अग्राह्य जंचती है, फिर भी इसमें संदेह नहीं कि उनके विचारों के पीछे एक बल है और एक समय ऐसा आया था जब लगता था कि नित्से द्वारा पोषित अधिनायकवाद के सिद्धान्तों के आगे ही कहीं दुनिया को मस्तक न झुकाना पड़े।

नित्से जब मरने को थे तो उनने अपनी बहिन से कहा-”मेरे शव के साथ स्वजनों के अतिरिक्त और कोई कोलाहल करने वाली भीड़ न हो। मेरी समाधि के पास किसी पादरी को न आने देना। मैंने अपनी रक्षा उनसे की है, तुम मेरी समाधि को भी उनकी परछांई से बचाना और एक ईमानदार नास्तिक की तरह मुझे दफना देना।”

सन् 1844 में वे जन्मे और 1889 में पैंतालीस वर्षों के होकर मर गये। अन्तिम दिन उनके निराशापूर्ण थे। उन्हें व्यक्तिगत जीवन के सब ओर असफलता ही मिली थी। इटली छोड़कर वे आल्पस पर्वत पर एकाँकी जीवन व्यतीत करने लगे थे। स्वास्थ्य भी उनका साथ नहीं देता था। उसने लिखा है-आज मेरी आकाँक्षाओं के अनुरूप समय नहीं है पर एक दिन वह आवेगा अवश्य।’ कौन जाने वह समय कब आवे? फिर भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उनके विचारों में बड़ी जीवट थी और उसने बहुत बड़े जनसमुदाय को प्रभावित भी किया।

नित्से के विचारों से कोई सहमत हो या असहमत पर इतना तो मानना ही पड़ेगा कि वे अपने विचारों के प्रति ईमानदार रहे। जैसा उसने सत्य समझा वैसा निर्भीकता पूर्वक कहा। भय या प्रलोभन के कारण वे अपनी मान्यताओं को दबाने या छिपाने की अपेक्षा आजीवन कष्ट भुगतते रहना, विरोध व्यंग्य और उपहास सहना तथा लोगों द्वारा तिरस्कृत लाँछित होना पसंद करते रहे। मनुष्य को अपनी अन्तरात्मा के प्रति आस्थावान और निर्भीक होना चाहिए, इतनी शिक्षा तो उनसे हर कोई प्राप्त कर ही सकता है।


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