कन्या की उपेक्षा न हो

May 1964

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किन्हीं माता-पिता को इसलिये खिन्न नहीं होना चाहिये कि उन्हें केवल कन्यायें ही हैं पुत्र नहीं। पुत्र की उपयोगिता एवं आवश्यकता के पीछे व्यक्तिगत स्वार्थपरता एवं एक अन्धकारमय भावना की ही प्रधानता रहती है।

सम्मिलित कुटुम्ब प्रथा के जमाने में परिवार को एक स्वतंत्र संगठन के रूप में विकसित होने की जब गुँजाइश थी तब पुत्रों की अधिकता परिवार की आर्थिक, सुरक्षात्मक एवं सामाजिक स्थिति मजबूत करने की दृष्टि से उपयोगी होती थी। लोगों में एक दूसरे के प्रति प्रेम, सद्भाव, उदारता एवं सहन-शीलता का दृष्टिकोण रहता था इसलिए पुत्र-पौत्रों से, उनकी पत्नियों और पुत्रों से भरा हुआ परिवार सुख-शाँति के सुगंधित पुष्पों से भरे उद्यान जैसा दीखता था, उस जमाने में पुत्रों की उत्पत्ति पर हर्ष मनाया जाना उचित भी था। कृषि और पशुपालन को बड़े परिवार अच्छी तरह कर सकते थे जिनमें पुरुषों की अधिकता रहती थी। माता-पिता को अपने पुत्र-पौत्रों से वृद्धावस्था में जब, सेवा, सम्मान प्राप्त होता था, तब आड़े समय के लिए सहारा समझकर भी उनका महत्व माना जाता था।

आज सोचने का ढंग दूसरा हो गया है। जिनके पास बड़ी-बड़ी जोतें हैं, उन कृषकों के अतिरिक्त और कोई वर्ग सम्मिलित कुटुंब प्रथा को अपनाने के लिये तैयार नहीं। भाई-भाई से तो अलग होते ही हैं- विवाह होते ही पत्नी को लेकर माता-पिता से भी अलग हो जाने वाले युवकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है शिक्षितों को आमतौर से नौकरी करनी पड़ती है उनकी बदली भी होती रहती है। इसलिये स्वभावतः उन्हें अपनी पत्नी को लेकर अलग रहना पड़ता है। जहाँ इकट्ठे रहते हैं वहाँ भी मत भिन्नता, असहिष्णुता एवं स्वार्थों की आपाधापी के कारण खींचतान बनी रहती है और वे यही सोचते रहते हैं और वह सुदिन कब आवे जब अलग घर बसाकर रहेंगे और स्वच्छन्द जीवन बिताने का अवसर मिलेगा।

ऐसे स्वच्छन्दतावाद के युग में वे कारण तथ्य और तर्क निरर्थक हो जाते हैं जो सम्मिलित कुटुम्ब प्रथा के युग में आदर्श प्रतीत होते थे। पुत्रों की अधिकता किसी जमाने में उपयोगी थी पर आज वैसा कहाँ है? भरण-पोषण, शिक्षा विवाह और फिर आजीविका में लगाने तक का क्रम इतना महंगा और सिर दर्द से भरा हुआ है कि कई पुत्रों की उपस्थिति कन्या से कहीं अधिक महंगी पड़ती है। समर्थ हो जाने पर उनका तथा उनकी बहुओं का आमतौर से जो रवैया रहता है उससे भी किसी माता-पिता को प्रसन्नता नहीं होती। सच तो यही है कि असंतोष बढ़ता है। जिनको संतान नहीं है उनकी और जिनको बहुत बेटे पोते हैं उन दोनों की तुलना की जाय तो वे लोग हजार गुने अधिक सुखी मिलेंगे जिन्हें संतान नहीं है। तृष्णा का कोई अन्त नहीं, आकाश कुसुम पाने के लिये कोई रोया करे तो इसका कोई उपाय नहीं। पर आज की स्थिति में तथ्य यही है कि जिसके जितने अधिक पुत्र हैं वह उतना ही अधिक बन्धनों से ग्रसित व्यक्ति की तरह अगनित चिन्ताओं का उत्पीड़न सह रहा होगा। किन्हीं बिरले सौभाग्यशालियों की बात अलग है, उन्हें अपवाद ही माना जा सकता है।

परिवार की सुसंपन्नता और सुव्यवस्था से जहाँ तक इस युग की परिस्थितियों का संबंध है वहाँ तब सबसे अच्छा वह है जिसे कोई संतान नहीं। देश की आर्थिक परिस्थितियों की माँग भी यही है कि अब संतानोपार्जन को सीमाबद्ध किया जाय। व्यक्ति को अपने विकास का अवसर भी छोटे परिवार में ही मिल सकता है। इसलिये उन्हें ईश्वरीय कृपा का विशेष भाजन मानना चाहिये जिन्हें संतान नहीं है। व्यक्तित्व एवं प्रेम की अभिव्यक्ति के लिये ऐसे व्यक्ति किन्हीं अनाथ असहाय बालक को अपने घर में रखकर उसका पालन-पोषण कर सकते हैं। इस प्रकार उन्हें सन्तान पालन का सुख मिल सकता है और परमार्थ का श्रेय भी उपलब्ध हो सकता है। निःसंतानों से कुछ कम भाग्यवान वे हैं जिन्हें केवल कन्यायें ही कन्यायें हैं। कुछ समय संतान पालन का हर्षोल्लास अनुभव करने के बाद उसे ससुराल में भेज देने से जल्दी से अभिभावकों का उत्तरदायित्व हलका हो जाता है और वे निश्चिंतता का अनुभव करते हुए वृद्धावस्था को शाँति प्राप्ति एवं सत्प्रयत्न में लगा सकते हैं।

जिन्हें भगवान ने पुत्र दिये हैं उनके लिये यही उचित है कि भावनापूर्वक उनका लालन-पालन करें और तत्परता पूर्वक उनकी शिक्षा-दीक्षा के साधन जुटायें। राष्ट्रमाता के सुसंस्कृत नागरिक होने का पुण्य परमार्थ उन्हें मिल सके। अपनी सुन्दर प्रतिकृति रूप में लोकसेवी सुसंस्कृत नागरिक पीछे छोड़ जाना किसी सद्गृहस्थ को सच्चा स्मारक हो सकता है। यह सोचकर पुत्रवानों को पूरा-पूरा ध्यान उनके आत्मिक विकास पर देना चाहिये। बच्चों के लिये बहुत धन छोड़ जाना या ऊंची पढ़ाई पढ़ाकर ज्यादा पैसे ही नौकरी से लगा देने से कोई पिता-पुत्र ऋण से उऋण नहीं हो सकता। सुसंस्कृति, सज्जन एवं सद्गुणी संतान बन सकी तो ही पिता-माता का प्रजनन श्रम सार्थक माना जा सकता है।

जिन्हें पुत्र नहीं केवल कन्यायें हैं उन्हें ईश्वर की इस महान अनुकम्पा को सौभाग्य ही मानना चाहिये। दुःखी या निराश होने का तो इसमें कोई कारण है ही नहीं। जो लोग इसलिए दुःखी है कि उन्हें कन्यायें ही क्यों प्राप्त हुईं, उन्हें अविवेकी के अतिरिक्त और क्या कहा जाय। चूँकि लोग यह समझते हैं कि पुत्र महत्वपूर्ण और कन्या निरर्थक है- इसलिये हम भी वैसा ही समझें यह बिलकुल भी आवश्यक नहीं।

राष्ट्र निर्माण में नारी का योग अधिक है। पुरुष में कठोरता और दुष्टता अधिक रहती है। आज की परिस्थितियों में यह दोष अपनी चरमसीमा तक पहुँच चुका है। इस समय करुणा और सहृदयता की आत्मदृष्टि ही विश्व शाँति का उद्देश्य पूरा कर सकती है। इस प्रयोजन की सिद्धि के लिये युग की पुकार यह है कि पुरुष का वर्चस्व भावनात्मक संतुलन का, सच्ची उन्नति का यही मार्ग है। राजनीति, शिक्षा, सेवा, अर्थ का संचालन क्रम यदि पुरुष के हाथ से छीनकर स्त्री के हाथ में दे दिया जाय तो आज की ये विभीषिकायें जो मानव सभ्यता को निगल जाने लिये मुँह बायें बैठी हैं, देखते-देखते सरल हो सकती हैं। मितव्ययितापूर्वक घर खर्च चलाने वाली नारी जब राष्ट्र कोष की मंत्राणी होगी तो एक पैसा भी शासन कार्यों में अपव्यय न हो सकेगा। जब ये विदेश मंत्री होंगी तो दूसरे देशों के नागरिक भी उन्हें वैसे ही प्रिय लगेंगे जैसे ससुराल में रहते हुये पितृगृह के भाई भतीजों का उन्हें ध्यान रहता है। ऐसी मनोभावना से शोषण और आक्रमण की नीति कैसे अपनाई जा सकेगी? अपने सुहाग और बच्ची का निरन्तर मंगल चाहने वाली नारी जब युद्ध मंत्री होगी तो वह पड़ोसी देश की अपनी बहिनों का सुहाग और बच्चों को रक्त स्नान कराने की क्रूरता पर कैसे कटिबद्ध हो सकेगी? जो कार्य तोपें नहीं कर सकती वह उनकी करुणा के द्वारा हल हो सकेगा। सीमा संघर्ष जैसी समस्यायें तब कहाँ रहेंगी? महिला शिक्षा मंत्री बने तो वह सब से पहले वही वातावरण उत्पन्न करेंगी जिसमें पढ़कर बच्चे अपने परिवार के लिये, माता-पिता, बहिन और पुत्री के लिये सहृदय एवं उदार बन सकें। राजनीति को धर्म नीति में परिणित करने का प्रयोग पुरुषों द्वारा सफल न हो सका तो अब उसका परीक्षण नारी के हाथों सत्ता सौंप कर किया जाना चाहिए।

साहित्य सृजन का कार्य नारी के हाथों सौंप कर अब अश्लील, निर्लज्ज, वासनात्मक, कुत्सित रचनाओं की समाप्ति के संबंध में निश्चिन्त हो सकते हैं। चिकित्सक बनकर वे अपनी स्वाभाविक करुणा से रोगियों के प्रति अधिक सहृदयता पूर्ण व्यवहार कर सकेंगी। शिक्षा का कार्य उनके हाथ में रहे तो बालकों में सहृदयता और सज्जनता के संस्कार ही उत्पन्न होंगे। हमें विश्वासपूर्वक यह आशा करनी चाहिए कि नारी के हाथों ही मानव जाति का भविष्य उज्ज्वल बनेगा। उनकी सुसंस्कृति बढ़ने से ही उनके शरीर और मन का रस पीकर उत्पन्न होने वाले बच्चे सुसंस्कृत बनेंगे। नारी का जितना उत्कर्ष होगा, नर का भविष्य भी उतना ही उज्ज्वल बनता जायेगा। इस उभय पक्षीय प्रगति से ही संसार में सुख शाँति का वातावरण उत्पन्न हो सकेगा।

युग निर्माण योजना में ईश्वर की उपासना नारी रूप में की जाती है। गायत्री को माता की आकृति में पूजा अर्चना करने का उद्देश्य नारी मात्र के प्रति अधिक श्रद्धा एवं अधिक सम्मान उत्पन्न करना भी है। अनुष्ठानों के अन्त में तथा नवरात्रियों में कन्या पूजन, कन्या भोजन की प्रथा के मूल में भी यही उद्देश्य छिपा हुआ है। वैदिक सभ्यता में नारी को हर दृष्टि से अधिक पूज्य, अधिक पवित्र, अधिक श्रेष्ठ एवं अधिक महान माना गया है।

नव युग की इस निर्माण बेला में हमें नारी के प्रति अपना दृष्टिकोण ऊंचा उठाना ही होगा ताकि वह अपना समुचित विकास कर सके और उस विकास का महत्वपूर्ण लाभ समस्त संसार को मिल सके। यह कार्य हमें पुत्र और कन्या के बीच माने जाने वाले अन्तर को समाप्त करते हुए आरंभ करना चाहिये।


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