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May 1964

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अकृत्यं नैव कर्तव्यं प्राण त्यागेऽप्यु परिस्थते।

न च कृत्यं परित्याज्यमेष धर्मः सनातनः।

चाहे मृत्यु सामने आ जाय, अकृत्य कभी न करें और मृत्यु का सामना करते हुये भी सत्कार्य करते रहना चाहिये, यही सनातन धर्म है।

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षतिः।

तस्माद्धर्मो त हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीन॥

धर्म का निरादर करने वाला स्वयं नष्ट हो जाता है और धर्म की रक्षा करने वाले की धर्म स्वयं रक्षा करता है। इसीलिए धर्म का कभी त्याग न करके धर्माचरण करते रहना चाहिये।

आजकल अशिष्टता की व्यापक वृद्धि होती जा रही है। व्यवहार में उच्छृंखलता बढ़ती जा रही है। यह हमारे समाज और देश के लिए एक अभिशाप है। दूसरे के सम्मान, आदर का कोई ध्यान नहीं रखकर अपने स्वार्थ और स्वेच्छाधार से प्रेरित होकर दूसरों के साथ मनमाना व्यवहार करना अशिष्टता है। दूसरों की भावनाओं को ध्यान न रखकर उनका मजाक उड़ाना, ताने कसना, व्यंगबाण मारना, दूसरों में त्रुटियाँ निकाल कर उनका उपहास करना अशिष्टता का साकार रूप है। माँ-बाप या अभिभावकों की उपेक्षा या कुसंगति के फलस्वरूप बच्चे गाली का प्रयोग करना, भद्दे अश्लील वचन बोलना सीख लेते हैं और फिर इसमें तनिक भी लज्जा महसूस नहीं करते। घर हो या बाहर, एकान्त स्थान हो या सार्वजनिक, लोगों को बुरे शब्द बोलते, अशिष्ट आचरण करते हुए देखा जा सकता है। सभा, जुलूसों में भाग लेते समय, रेल में सफर करते समय, सिनेमाओं में इस तरह का कुत्सित आचरण, अशिष्टाचार लोगों में सहज ही देखा जा सकता है। गुरुजनों अथवा परिवार में वृद्ध जनों के सम्मान, आदर, उन्हें प्रमाण करने, पैर छूने की परम्परायें मिटती जा रही हैं। आज के शिक्षित और सभ्य कहे जाने वाले लोग इनमें अपना अपमान-सा समझते हैं।

कुछ भी हो, किसी भी रूप में अशिष्टता मानव-जीवन का बहुत बड़ा कलंक है, समाज में बढ़ती हुई अशिष्टता देश और जाति के लिए हानिकारक है। इसे हेय और त्याज्य माना जाय। दैनिक जीवन की छोटी से लेकर बड़ी बातों में शिष्टाचार ही हमारी सभ्यता और संस्कृति का दर्पण है। किसी भी तरह की अशिष्टता अपनी असभ्यता और पिछड़ेपन की निशानी है। इससे दूसरे लोगों में हमारी साख और कीमत कम होती है।

आवश्यकता इस बात की है कि हमारे पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय जीवन में बढ़ती हुई अशिष्टता को व्यापक स्तर पर दूर किया जाय। तभी हम विश्वास के क्षेत्र में आगे बढ़ सकेंगे। परस्पर व्यवहार, बात-चीत, रहन-सहन में शिष्टाचार के सिद्धान्तों का पालन करने का हम सभी को प्रयत्न करना चाहिए। बचपन से ही उठने, बैठने बोलने, चलने, व्यवहार करने के शिष्ट तरीके सिखाये जायें। बच्चों के अशिष्ट आचरण में सुधार का ध्यान दिया जाय। शिष्टाचार का स्वयं आचरण करके अपने से छोटों के समक्ष हमें उनके सुधार का उदाहरण पेश करना चाहिए।

स्वाध्याय सन्दोह-


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