भाव उत्कृष्टता से पूर्णता की प्राप्ति

May 1964

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भावना के आधार पर पत्थर में भगवान प्रकट होते हैं। इस जड़ जगत में चेतन का साधारण स्वरूप तो वह है जिसके अनुसार जीव जन्मते मरते, सोते, खाते, और अपनी शरीर यात्रा पूरी करते हैं, पर विशिष्ट स्वरूप भावना में ही सन्निहित है। बाहर से देखने में मनुष्य, देवता और असुर एक सी ही शकल सूरत के होते हैं पर उनका भीतरी स्वरूप एक दूसरे में सर्वथा भिन्न होने के कारण उनका आचरण एवं व्यक्तित्व उसी के अनुसार ढल जाता है।

बाह्य जीवन में मनुष्य जैसा भी कुछ दीखता है। वस्तुतः वह उसके आन्तरिक स्वरूप का प्रतिबिम्ब मात्र ही होता है। मोटर किस दिशा में दौड़ रही है इसमें श्रेय मोटर का नहीं ड्राइवर की इच्छा का है। वह चाहे तो क्षण कर में उसे मोड़ भर विपरीत दिशा में वापिस भी लौटा सकता है। इसी प्रकार जीवन का बाहरी ढर्रा आज जिस प्रकार का चल रहा है कल उसमें भारी परिवर्तन भी हो सकता है और वह परिवर्तन इतना बड़ा होना भी सम्भव है कि उसे आश्चर्य जैसा देखा या माना जाय।

बाल्मीकि और अंगुलिमाल जैसे भयंकर डाकू क्षणभर में परिवर्तित होकर इतिहास प्रसिद्ध सन्त बन गये। गणिका और अम्बफली जैसी वीराँगनाओं को सती साध्वी का प्रात-स्मरणीय स्वरूप ग्रहण करते देर न लगी। विश्वामित्र और भर्तृहरि जैसे विलासी राजा उच्च कोटि के योगी बन गये। नृशंस अशोक बुद्ध धर्म का महान प्रचारक बना। तुलसीदास और सूरदास की कामुकता का भक्ति भावना में परिणत हो जाना प्रसिद्ध है। विशिष्ट लोगों के इस प्रकार के असंख्य चरित्र इतिहास के पृष्ठों पर पढ़े जा सकते हैं। छोटी श्रेणी के लोगों में छोटे-मोटे आश्चर्यजनक परिवर्तन नित्य ही देखने को मिल सकते हैं। इससे स्पष्ट है कि जीवन का बाहरी ढर्रा जो चिर प्रयत्न से बना हुआ होता है, विचारों में-भावनाओं में परिवर्तन आते ही बदल जाता है।

मित्रों को शत्रु बनते, शत्रु को मित्र रूप में परिणत होते, दुष्ट को सन्त बनते, संत को दुष्टता पर उतरते, कंजूस को उदार, उदार को कंजूस, विषयी को तपस्वी, तपस्वी को विषयी बनते देर नहीं लगती। आलसी उद्योगी बनते है और उद्योगी आलस्यग्रस्त होकर दिन बिताते है। दुर्गुणियों में सद्गुण बढ़ते-और सद्गुणी में दुर्गुण उपजते देर नहीं लगती। यह जादू जैसे हेर-फेर आये दिनों मनुष्यों के जीवनों में होते रहते हैं। इसका एक मात्र कारण इतना ही है कि उनकी विचार धारा बदल गई, भावनाओं में परिवर्तन हो गया। भीतरी आस्थाओं, विश्वासों मान्यताओं एवं आकाँक्षाओं में यदि थोड़ा भी हेर-फेर होता है तो उसकी छाया बाह्य जीवन में तुरन्त दिखाई देने लगती है।

संसार का जो भी भला-बुरा स्वरूप हमें दृष्टिगोचर हो रहा है, समाज में जो कुछ शुभ-अशुभ दिखाई पड़ रहा है, व्यक्ति के जीवन में जो कुछ उत्कृष्ट-निकृष्ट है उसका मूल कारण उसकी अन्तः स्थिति ही होती है। धनी, निर्धन, स्वस्थ-निरोग, अकाल मृत्यु-दीर्घ जीवन, सन्त-असन्त, मूर्ख विद्वान, घृणित-प्रतिष्ठित, सफल असफल का बाहरी अन्तर देखकर उसके व्यक्तित्व का मूल्याँकन किया जाता है। पर लोग यह भूल जाते हैं कि यह बाहरी भली-बुरी परिस्थितियाँ और कुछ नहीं मनुष्य के मनोबल, आस्था और अन्तः प्रेरणाओं की प्रतीक है। भाग्य भी यदि कभी कुछ करता होगा तो निश्चय ही उसे पहले मनुष्य की मनोरुचि में ही प्रवेश करना पड़ता होगा। जिसकी अन्तः गतिविधियाँ सही दिशा में चलने लगीं उसके लिए अभीष्ट दिशा में सफलता ही मिलने वाली है किन्तु जिसका मानसिक स्तर चंचलता, अवसाद, अविश्वास, आलस, आवेश, दैत्य आदि दोषों से दूषित हो रहा है, उसके लिए अच्छी परिस्थितियाँ और अच्छे साधन उपलब्ध होने पर भी दुर्गति का ही सामना करना पड़ेगा।

सौभाग्य और दुर्भाग्य यों दैवी अनुग्रह एवं कोष का, प्रारब्ध भोगों का परिणाम दिखाई पड़ता है, पर गंभीरता से विचार करने पर इसी परिणाम पर पहुँचना पड़ता है कि यह तत्व केवल हमारी आन्तरिक उत्कृष्ट और निकृष्ट परिस्थितियों का ही परिणाम है। यदा-कदा अपवाद स्वरूप कभी-कभी इसमें ऐसे विपरीत उदाहरण भी देखे जाते हैं जब सुव्यवस्थित व्यक्तित्व वाले व्यक्ति भी आपत्तियों में फँसते और अस्त-व्यस्त लोग मौज मारते रहते हैं। इसमें भी उनका कोई गुप्त गुण दोष ही कारण रहता है। अच्छे समझे जाने वाले व्यक्ति, अधिकाँश अच्छाइयों के होते हुए भी कुछ दोष अपने में छिपाये रहते हैं, वे दोष भी अपनी विकृतियाँ तो उत्पन्न करेंगे ही। समझा यह जाता है कि यह आपत्ति अच्छाइयों के कारण आई पर वस्तुतः वह उनकी किन्हीं भूलों एवं त्रुटियों का ही परिणाम होता है। इसी प्रकार कई बुरे समझे जाने वाले व्यक्ति भी कुछ लाभ एवं सफलताएं उठाते हैं। वह भी उनकी किन्हीं अच्छाइयों का ही प्रतिफल होता है।

सत्यवादी और ब्रह्मचारी व्यक्ति यदि क्रोधी स्वभाव का है तो उसके प्रति लोग विरोध एवं द्वेष भाव रख रहे होंगे। सत्यवादिता को इसके लिए दोष नहीं दिया जाना चाहिए। इसी प्रकार कोई डाकू लूट का माल ले आता है तो इसमें उसके साहस को ही श्रेय मिलेगा। सत्यवादिता का शुभ और डकैती का अशुभ फल तो समयानुसार उन्हें मिलेगा ही पर सज्जन में जो छोटा दोष और दुर्जन में जो थोड़ा गुण था उसका भी तो बुरा-भला फल उन्हें मिलना ही चाहिए। यह कहना उचित नहीं कि डकैती में धन मिलता है। डकैती तो समाज में घृणा, परलोक में नरक और राज दंड में जेल का ही परिणाम उत्पन्न कर सकती है। जो लाभ मिला वह तो उसके निरोग शरीर, मनोबल, दुस्साहस, सतर्कता, मुस्तैदी, निशानेबाजी, चतुरता आदि अनेक गुणों का ही प्रतिफल मात्र था।

यह कहना उचित नहीं कि इस कलियुग में सज्जन घाटे में और दुर्जन लाभ में रहते हैं। सनातन नियमों में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। सत्य और तथ्य देश-काल, पात्र का अन्तर किये बिना सदा सुस्थिर और अक्षुण्ण ही रहते हैं। सन्मार्ग पर चलने वाले की सद्गति और कुमार्ग पर चलने वाले की दुर्गति होने की सच्चाई में कभी भी किसी प्रकार भी अन्तर नहीं आ सकता। कलियुग, सतयुग की कोई बाधा इन सत्यों को झुठला नहीं सकती। सूर्य सदा से गर्मी और प्रकाश का केन्द्र रहा है। जल सदा ही प्रवाही और शीतल माना जाता है। परिस्थितिवश थोड़ा अन्तर कभी पड़ जाय यह बात दूसरी है पर उनके मूल स्वरूप में स्थायी अन्तर नहीं आ सकता। इसी प्रकार श्रेष्ठता के सत्परिणाम और दुष्टता के दुष्परिणामों के अतिरिक्त और किसी भिन्नता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह अटल तथ्य सूर्य और चन्द्रमा की तरह अपने-अपने स्थान पर आदिम ही बने रहेंगे।

अध्यात्म का मूल्याँकन किसी कर्म काण्ड, आवरण, आडम्बर या दृश्य से नहीं किया जा सकता। वह तो विशुद्ध रूप से एक आन्तरिक स्थिति है, जिसकी विचारणा और मान्यता उच्च आदर्शों पर अवलम्बित है। वस्तुतः वही अध्यात्मवादी है जो स्वार्थ, लालच, वासना और विलास को पृथक रखकर सोचता है। बाह्य परिस्थितियाँ इससे भिन्न प्रकार की भी देखी जाती हैं। कई ढोंगी धर्म-ध्वजी लोग दूसरों को ठगने के लिए धर्मात्मा का आडम्बर ओढ़े बैठे रहते हैं और इसी प्रदर्शन से भोले लोगों को ठगते खाते रहते हैं। साधु का भेष धारण किये कितने ही दुरात्मा लोग धन और माल की लूट मचाते रहते हैं। बेचारे सरल स्वभाव व्यक्ति उनके आडम्बर को ही साधुता का प्रमाण मानकर अपनी गाँठ कटाते रहते हैं।

इसी तरह ऐसा भी देखा जाता है कि साधारण गृहस्थ जैसा कार्य क्रम अपनाये हुए सादा और सरल जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति अत्यन्त उच्च कोटि की भूमिका में जाग्रत रहते हुए सन्त, ऋषि, महामानव, देवदूत जीवन-मुक्त एवं नर-नारायण जैसा व्यक्तित्व बनाये रहने में समर्थ होते हैं। कई व्यक्तियों को छोटी-सी सरल पूजा विधि उत्कृष्ट भावनाओं से ओत-प्रोत होने के कारण महान तपश्चर्या जैसा लाभ देती है, और कई कष्टसाध्य योगाभ्यास, करने वाले विरक्त वनवासी भी भावना के अभाव में केवल लकीर ही पीटते रहते हैं। भूसी कूटने की तरह उनके हाथ लगता कुछ नहीं। कर्मकाण्ड की उपयोगिता तभी है जब उसके साथ भावना का समुचित संमिश्रण हो। इसके बिना वह सारी क्रियाकलाप एक विडम्बना मात्र बनकर रह जाता है।

गुरुजनों के श्रद्धापूर्वक चरण स्पर्श और लकीर पीटने की तरह पैर छू देने की क्रिया समान होते हुए भी उसका प्रतिफल आकाश पाताल जैसा भिन्न होता है। गंगा स्नान, देव पूजन, श्रद्धा, दान पुण्य, व्रत उपवास, जप, तप, हवन, तर्पण, त्यौहार, संस्कार आदि धर्म कृत्यों के साथ जितनी उच्चस्तरीय भावना जुड़ी होगी उसी अनुपात से उनका शुभ संस्कार अन्तःकरण पर जमेगा और आत्मिक विकास से वह क्रियाएं उतनी ही सहायक होंगी। यदि बेगार भुगतने की तरह एवं क्रीडा कौतुक या चिन्ह पूजा की भाँति इन्हें निपटाया जाय तो दूसरों की दृष्टि में धर्मात्मा समझे जाने के मिथ्या तोष का लाभ भले ही मिल जाय वस्तुतः इनसे कोई आध्यात्मिक प्रयोजन सिद्ध न होगा।

‘अध्यात्म’ की एक शब्द में यदि व्याख्या की जाय तो उसे ‘उत्कृष्ट भावना’ कहा जा सकता है। जिसके मस्तिष्क, मन, अन्तःकरण में उच्च आदर्शवादी भावनाएं उठती रहती हैं, जो अपना जीवन आदर्श की दिशा में मोड़ रहा है उसे अध्यात्मवादी कहा जा सकता है। शुभ कर्म इसके लिए एक श्रेष्ठ साधन है। उनके माध्यम से वे भावनाएं कार्यान्वित होने पर संस्कार का रूप धारण करती हैं और स्वभाव से सम्मिलित होकर मनोभूमि में परिपक्वता एवं स्थिरता का रूप ग्रहण करती हैं। इसलिए शुभ कर्म अध्यात्म की प्राप्ति के लिए एक आवश्यक अंग माने गये हैं। धर्म कृत्यों की प्रशंसा एवं उपयोगिता इसी दृष्टि से है। पर यदि कोई शुभ कर्म परम्परा की पूर्ति या भौतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाय तो वह आध्यात्मिक प्रगति में विशेष सहायक न हो सकेगा। यों शुभ कर्मों के सहारे ही आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग खुलता है पर यह स्मरणीय है कि भावनाओं के जागरण की उपेक्षा की गई, उनका अभाव बना रहा तो फिर बड़े-से-बड़े कर्मकाण्ड भी जीवन लक्ष की पूर्ति के लिए कुछ विशेष सहायक न हो सकेंगे।

भक्ति का तात्पर्य कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति ही है। यों आज ईश्वर की पूजा, अर्चना, ध्यान, कीर्तन को ही भक्ति कहा जाता है पर हमें जानना चाहिए कि वह तो विशाल भक्ति भावना का एक कण मात्र है। समग्र भक्ति वह है जो मानव मात्र में, प्राणि मात्र में, जड़ चेतन में, सर्वत्र महान एवं उत्कृष्ट ही देखती है और अपनी कोमल भावनाओं से इस जगत में कण-कण को आच्छादित करके उसे प्रेम के अमृत में सराबोर कर देती है। उसी अनुभूति से मनुष्य का अनुभव करता है और साथ ही उसको सार्थक हुआ भी अनुभव करता है। उपासनात्मक कर्मकाण्ड में भक्ति भावना का समन्वय होना आरंभिक आवश्यकता की दृष्टि से उपयोगी है पर उसे ही ‘पूर्णता’ मान लेना भारी भूल कही जायगी। जो लोग ईश्वर पूजा में ‘भक्त’ दिखाई पड़ते हैं पर व्यावहारिक जीवन में संकीर्णता, स्वार्थपरता, निष्ठुरता धारण किये रहते हैं उनको भक्त किसी भी प्रकार नहीं कहा जा सकता। संकीर्ण दायरे तक में ही सीमित-पूजा वन्दना के छोटे दायरे में बँधी भक्ति आरंभिक अभ्यास का एक अकिंचन साधन भले ही हो उससे वास्तविक प्रयोजन किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं हो सकता।


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