जो अभीष्ट है, उसे अंतरंग में खोजिए*******

July 1993

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सामान्यतया समाज में बहिर्मुखी अधिक दिखाई देते हैं। बहिर्मुखी दृष्टि बाहर का संसार देखती है। जो पसारा फैला पड़ा है, उसी का मूल्याँकन करती और उसी में रस खोजती है, जबकि अपने भीतर इससे भी अधिक बहुत मूल्यवान छिपा पड़ा है, जिस पर न कभी ध्यान जाता है, न कभी देखने की ललक ही उठती है। इसे विधि की विडम्बना ही कहना चाहिए कि पैरों के नीचे की जमीन में दबी हुई प्रचुर खनिज संपदा की ओर ध्यान ही नहीं जाता और आसमान के तारों से वैभव खोज लाने के लिए मन उड़ानें भरता रहता है।

वस्तुतः ब्रह्मांड की ही एक छोटी प्रतिकृति यह पिण्ड भी है। जो बाहर दीखता है, उसके बीज भीतर विद्यमान हैं। उन्हें उगाकर अभीष्ट आकाँक्षाएँ पूरा कर सकने वाले कल्पवृक्ष जैसे व्यक्तित्व की उपलब्धि प्राप्त कर सकना अपेक्षाकृत सरल है। बाहर का बिखराव व विस्तार बहुत व्यापक है। उसे ढूंढ़कर एकत्रित करने में इतना श्रम व समय लगता है जबकि घर का उत्पादन कहीं अधिक सस्ता पड़ता है।

मानवी अन्वेषण बुद्धि ने प्रकृति के विस्तार में से बहुत कुछ खोजा व पाया है। यह पुरुषार्थ और मनोयोग का ही प्रतिफल है। यही प्रयास यदि अंतरंग की खोज में नियोजित हो सके तो उससे भी कहीं अधिक मूल्यवान पाया जा सकता है, जितना कि जड़ जगत की बालू में से तेल निकालने के फलस्वरूप उपलब्ध होता है। मानवीसत्ता विलक्षण है-अद्भुत है। उसमें जड़ जगत की सभी विशेषताएँ निहित हैं। साथ ही वैभव चेतना की विभूतियों का सारतत्व संक्षिप्त किन्तु परिपूर्ण मात्रा में विद्यमान भी है। खोज का क्षेत्र बाहर भी बना रहे किन्तु अंतर्जगत की उपेक्षा की जाय, जहाँ आत्मसत्ता के कण-कण में सर्वाधिक आवश्यक व उपयोगी जीवन संपदा ओतप्रोत विराजमान है।

हम अपने को देखें, परखें, खोजें। अपना विश्लेषण करें व अंतर्निहित विभूतियों का साक्षात्कार करें तो प्रतीत होगा कि जो हमारे लिए नितान्त आवश्यक है, वह भीतर ही मौजूद है। यह वैभव इतना अधिक समर्थ व सशक्त है कि यदि उसे ठीक तरह नियोजित किया जा सके तो उसे खींच बुलाना-अनुदानों की अनुकम्पा अपने ऊपर बरसा पाता तनिक भी कठिन न रहेगा, जिसकी तलाश में हर प्राणी निरंतर मृगतृष्णा में खाली भटकता व कष्ट उठाता रहता है।


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