“प्रिय” और “अप्रिय” का मनोविज्ञान

July 1993

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यह मानवी स्वभाव है कि जो वस्तुएँ उसके इर्द-गिर्द होतीं, उनमें से कुछ अच्छी लगती हैं कुछ बुरी प्रतीत होती हैं, जबकि कइयों को ओर ध्यान भी नहीं जाता। जो अच्छी लगती हैं, उनसे प्यार करते हैं, जो बुरी लगती है, उनसे घृणा करते हैं, जो उपेक्षित हैं, उनकी ओर आँख उठा कर भी नहीं देखते। हम चाहते हैं कि प्रिय वस्तुएं सदा अधिकाधिक परिमाण में पास रहें। उनकी समीपता सुखदायक होती है। सुखदायक वस्तुएँ सभी को सुहाती हैं।

यहाँ तनिक उस मनोविज्ञान की चर्चा कर लेना अनुचित न होगा, जिसके कारण वस्तुएँ प्रिय-अप्रिय लगती और प्रेम-घृणा की पात्र साबित होती है। कंगले को अपना कुरूप पुत्र भी राजकुमारों की भाँति प्रिय होता है, जबकि धनी पड़ोसी का रूपवान पुत्र सामान्य जैसा प्रतीत होता है। अपने लाड़ले को तनिक जुकाम हो जाय, तो ऐसी भागदौड़ मचने लगती है, जैसे कोई संघातिक छूत लग गई हो, पर पड़ोस का सुन्दर सलोना बच्चा बुखार में तप रहा हो, तो कोई चिन्ता नहीं क्लर्क अपनी टूटी साइकिल से संतुष्ट और प्रसन्न रहता है उसका कोई छोटा तार टूट जाय, तो चित्त भारी व उदास हो जाता है, जबकि अपने अधिकारी की महँगी रोयल्स रायस कार क्षतिग्रस्त हो जाय, तो कोई परवा नहीं। किसान को अपनी लहलहाती फसल देखकर जितना आनन्द होता है, शायद उतना हर्ष गाँव के जमींदार के अन्न से भरे कोठार देख कर नहीं होता। जमींदार के गोदाम को आग लग जाय, फिर भी वह चैन की नींद सोता रहता है, किन्तु उसके अन्न से भरे खेत को पशु चर जायँ, तो नींद गायब हो जाती है।

इससे ऐसा लगता है कि सदा गुणवान और रूपवान वस्तुएँ ही मन को भाती हैं-सो बात नहीं है। यदि बात ऐसी रही होती, तो कंगले, किसान व क्लर्क को भी दूसरों की हानि पर उतना ही दुःख होता जितना अपनी चीज के बिगड़ने या बरबाद होने पर, किन्तु व्यवहार में ऐसा होता कहाँ देखा जाता है? तो क्या यह मान लिया जाय कि सदा सुन्दर वस्तुओं से घोर वितृष्णा ही उपजती है? नहीं उक्त मान्यता भी ठीक नहीं। यह अधूरी व्याख्या है। सच तो यह है कि जिस चीज में जितनी मात्रा में अपनापन, आत्मभाव, स्वार्थभाव है, हव उसी परिमाण में प्रिय लगती है, गुण रहित हो, तो भी अच्छी लगती है, गुण रहित हो तो भी अच्छी लगती है। इसी मनोविज्ञान के कारण अपनी बुरी-से-बुरी वस्तु भी चित्ताकर्षक लगती है, जबकि दूसरों का अच्छा और आकर्षक सामान भी कोई विशेष आनन्द उत्पन्न नहीं कर पाता। अपनी बात में कोई दम न हो, तो भी कहने का अन्दाज ऐसा होता है, जैसे स्वयं अफलातून से कोई कम न हों, पर दूसरे की तर्क संगत सारगर्भित बात भी निस्सार और नीरस प्रतीत होती है। अपना व्यक्तित्व कौड़ी जितने मोल का न हो, फिर भी गर्व से सीना ऐसे फूला रहता है, मानों महामानवों-महापुरुषों की तो उनके सामने कोई औकात ही नहीं। वे बौने जैसे लगते हैं और खुद का बौनापन हिमालय जैसा विराट् और विस्तृत ऊँचाई वाला जान पड़ता है। यह सब आत्मसत्ता की प्रमुखता के कारण है।

व्यभिचारियों के लिए भौंड़ी नयन-नक्श वाली वेश्या ही रूप की रानी होती है। उसके सम्मुख विश्व-सुन्दरी का रूप-लावण्य भी फीका होता है। आये दिन समाचार पत्रों में यह खबरें छपती ही रहती हैं कि अमुक प्रेमी अथवा प्रेमिका ने प्रेम-विवाह न हो पाने के कारण आत्महत्या कर ली। यहाँ आत्मघात का कारण यह नहीं कि एक से विवाह न हो पाया, तो शादी की संभावना सदा-सदा के लिए सर्वथा समाप्त हो गई हो, अथवा संसार में लड़के-लड़कियों का अभाव पड़ गया हो। सच्चाई तो यह है कि प्रेमी-प्रेमिका का एक-दूसरे के प्रति अपनापन इतना घनीभूत हो जात है कि सारी दुनिया उस घनिष्ठ संबंध के आगे उबाऊ जान पड़ती है, सरस और सुन्दर समाप्य तो मात्र परस्पर का ही लगता है।

मकान और दुकान अच्छे अपने ही लगते हैं। उनकी साज-सज्जा और बनावट की प्रशंसा करते नहीं थकते। टूट-फूट, मरम्मत का खूब ध्यान रखते हैं। संयोगवश वह बिक कर दूसरों के हाथ में चले जायँ, तो एक प्रकार से निश्चिंतता आ जाती है। फिर वह हजारों वर्ष खड़े रहें या कल ही गिर पड़ें, इससे कोई मतलब नहीं। कल तक जो इतने प्रिय थे, जिनके टूटने-लुटने से दारुण दुःख पहुँचता था, वह एक झटके में ही समाप्त हो गया। इसका कारण क्या है? विरक्ति इतनी जल्दी इतनी अधिक कैसे पैदा हो गई? उत्तर होगा हस्तान्तरण से उत्पन्न हुई अनासक्ति के कारण। कल तक जो उसकी संपदा थी, जिनके साथ उसका आत्मभाव चिपका था, वह आज नहीं रहा। कल जिस रुपयों से भरी थैली को अत्यन्त उत्साह से छाती से चिपटाये फिरते थे, वह आज दूसरे व्यापारी के पास चली गई। यदि वे रुपये अब चोरी चले जायँ, तो उसके पहले के मालिक को कोई कष्ट नहीं होगा। उन रुपयों के बदले जा माल खरीदा है, अब वह प्यारा लगने लगा है। कल वह माल भी पड़ोस में पड़ा था, पर तब उसकी ओर आँख उठा कर भी न देखते थे, आज उसकी सुरक्षा के लिए चोटी का पसीना एड़ी तक बहा रहे हैं। माल वही कल था, वही आज है। अंतर केवल इतना हुआ कि कल वह पराया था, आज अपना हो गया। अपनापन ही तो अच्छा लगने का कारण है।

आये दिन मौतें होती व चिताएं जलती रहती हैं। उनके अग्नि संस्कार में भी हिस्सा कहाँ ले पाते हैं? मरघट के बगल से निकलते हुए उन शव संस्कारों पर एक उपेक्षापूर्ण दृष्टि डाल कर पुनः अपने में खो जाते हैं। न उनके पता पूछने की फुर्सत! न संवेदना जताने की औपचारिकता! सब कुछ सामान्य-सा प्रतीत होता है, पर जब अपना कोई प्रियजन मरता है, तब फूट-फूट कर रोते हैं, आंसुओं की झड़ी लगा देते हैं, दुनिया सूनी दीखती है, भूख-प्यास उड़ जाती है, दुःख-शोक की व्याकुलता में चारों ओर अँधेरा छा जाता है। पड़ोसी का भाई न रहा, तब चेहरे पर जरा-सी शिकन भी न आयी थी, पर आज इतनी व्याकुलता क्यों? मरते तो सभी एक समान हैं, किन्तु एक की मृत्यु का जरा भी शोक नहीं, दूसरे के लिए इतनी वेदना क्यों? इतनी व्यथा क्योंकि सब कुछ लुटा दीखने लगे? निमित्त यह है कि जिस व्यक्ति में आत्मभाव सम्मिलित कर रखा था, वह प्रिय था, प्रिय के विछोह में ही तो दुःख होता है। अपने घर पुत्र पैदा हुआ तो खुशी से पाँव धरती पर नहीं पड़ते, पड़ोसी के यहाँ बच्चा जन्मे, तो कुछ प्रयोजन नहीं। यह स्वाभाविक है।

यहाँ उद्देश्य मात्र यह बताने का है कि गुण-अवगुण के कारण ही हम वस्तुओं को प्यार नहीं करते, वरन् प्रमुख कारण उसमें आत्मभाव का, अपने स्वार्थ का समन्वित होना है। जिससे जितना स्वार्थ-संबंध है, वह उतना ही प्रसन्नता मिलती है। शोक-जन्य अप्रियता तो तब पैदा होती है, जब उनके लुटने, मिटने, बिगड़ने, घटने जैसी स्थितियाँ प्रस्तुत हों। यथार्थता तो यह है कि विश्व की एक भी वस्तु न तो प्रिय है, न अप्रिय। किसी कारणवश आकर्षित होकर जब अपना आत्मभाव उसमें सम्मिलित हो जाता है, तो वह मनभावन लगने लगती है। जिससे स्वार्थ का विरोध पड़ता है, वह बुरी लगती है और जिससे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कोई संबंध नहीं, उसके प्रति उपेक्षा रहती है। भले-बुरे के पीछे का यही मनोविज्ञान है। जो जितने अंशों में, जिस भाव में इस विज्ञान को धारण किये होता है, उतने ही अनुपात में सुख-दुःख अनुभव करता है।

दुःख निवारण और सुखोपार्जन के यहाँ दो ही उपाय हैं। एक तो स्वयं को निरपेक्ष और निस्पृह स्तर का बना लिया जाय कि आसक्ति के कारण उत्पन्न दुःख का अन्त हो जाय। दूसरा, अपने “स्व” को इतना विस्तृत और व्यापक बना लिया जाय, कि सब कुछ अपना प्रतीत होने लगे। प्रथम स्थिति को प्राप्त करना तो परमहंस स्तर के योगी-यतियों द्वारा ही संभव है, पर दूसरी स्थिति ऐसी नहीं, जिसे सर्वसाधारण प्राप्त नहीं कर सकें। वस्तुतः यह दोनों ही जीवन की दो चरमावस्थाएँ हैं। एक व्यक्ति को विरक्ति की ओर ले जाती है, तो दूसरी आसक्ति को ओर, पर यह आसक्ति व्यामोह से आविर्भूत साँसारिक लगाव जैसी नहीं होती। यह विशुद्ध आध्यात्मिक स्थिति है, जिसमें अपनेपन का भाव तो होता है, पर वह लगाव नहीं, जो कष्टकारक हो। आँसू जब बहुत अधिक दुःख हो, तब भी निकलते हैं और आनन्दातिरेक में भी। वैसे ही शोक मुक्त हो पाना इन दोनों अतियों द्वारा भी संभव है, पर सर्वसामान्य के लिए अपने आपे को विस्तृत कर आनन्द की स्थिति प्राप्त कर पाना ज्यादा सरल और सहज है। ऋषियों ने इसी अवस्था को उपलब्ध करने के लिए ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ और “वसुधैव कुटुँबकम्” के सूत्र दिये हैं। जो जिस अनुपात में यह भाव-विकसित कर लेता है, उसके लिए वह संसार उतने ही अंशों में प्रिय लगने लगता है।

स्वर्ग की बड़ी महिमा गाई है। कथा पुराणों में उसका विस्तृत वर्णन मिलता है, उस सब का सार यह है कि वहाँ सब प्रिय ही वस्तुएँ हैं। जैसे स्थानों में रहना चाहते हैं, वह सब वहाँ मौजूद हैं। ऐसा स्वर्ग धरती पर स्वयं भी उतारा और बसाया जा सकता है, इसी जीवन में इन्हीं आँखों से उसे देखा एवं अनुभव किया जा सकता है। इसके लिए अभीष्ट आवश्यकता एक ही है-अपना आत्म विस्तार। आत्मभाव के विकास विस्तार के साथ ही पराये अपने लगने लगेंगे, दूसरे की खराब वस्तुएँ भी अच्छी लगने लगेंगी। प्रेम का अजस्र उत्साह फूट पड़ेगा, जिसमें बिराना कोई न होगा। जो होंगे, सब अपने प्रिय और प्रेमपात्र होंगे। प्रेमास्पदों का समुच्चय ही तो स्वर्ग है।


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