आत्मज्ञान की उपलब्धि ही सर्वश्रेष्ठ सिद्धि

July 1993

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अनेक योनियों में रहकर, करोड़ों वर्ष तक कष्ट भोगने के बाद भटकते हुए जीव को मनुष्य शरीर प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। प्रमादवश कोई इसे यों ही व्यर्थ गँवा दे, यह दूसरी बात है अन्यथा मनुष्य जीवन जैसी सुविधायें मिलना किसी भी योनि में संभव है, नहीं। मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जो विचार कर सकता है, योजनायें बना सकता है, धर्माचरण कर सकता है, साधना कर सकता है। यह विशेषतायें, यह श्रेष्ठ उपलब्धियाँ इस बात की ओर संकेत करती हैं कि मनुष्य-जीवन प्राप्त हो जाना कोई साधारण बात नहीं है।

अपनी योग्यताओं का उपयोग लोग साँसारिक सुखोपभोग के साधन प्राप्त करने में भी कर सकते हैं किन्तु धन, स्त्री, मिष्ठान्न, पद, राजनीतिक महत्व आदि भौतिक विभूतियाँ भी स्थाई कहाँ है? माना कि इनमें इन्द्रिय-तृप्ति-जन्य सुख और हर्ष की अनुभूति होती है पर क्या यह किसी से छुपा है कि भोग अंत में रोग और शोक के रूप में ही परिवर्तित होते हैं। इन्द्रियाँ कभी तृप्त नहीं होती भोग-भोग की इच्छा को और भी अतृप्त बनाता है। वासना, वासना को ही भड़काती है फलस्वरूप मनुष्य दिन-प्रति दिन वृद्धावस्था और मृत्यु की ओर ही अग्रसर होता रहता है। साँसारिक कामनाओं में प्रत्येक दृष्टि से संतुष्ट व्यक्ति भी भय से नहीं बच पाते। रोग और शोक तो उन्हें भी घेरे रहते हैं।

हमें सुख की अभिलाषा क्यों हैं? और दुःख से निवृत्ति क्यों नहीं होती? हय एक महत्वपूर्ण प्रश्न है और इस सुलझा लेना ही ज्ञान का अंतिम ध्येय है। पर मनुष्य अज्ञान के कारण अपने सही जीवन-पथ का निर्धारण नहीं कर पाता इससे यह भी कहा जा सकता है कि उसे जीवन के प्रति सच्चे दृष्टिकोण का ज्ञान नहीं मिल पाता। पक्षी जिस प्रकार अपने आप को पक्षी शक्तिवाला, शेर अपने को शेर की शक्ति वाला, बंदर-बंदर की शक्ति वाला मानता है, मनुष्य भी ठीक उसी प्रकार अपने को मनुष्य की शक्ति वाला मानता है। मानवीय दृष्टिकोण से यह बात सही भी हो सकती है। शारीरिक दृष्टि से विचार करने पर यह बात बुद्धिसंगत भी हो सकती है। किन्तु घटनायें, हमें उस विचारधारा से सहमत होने के लिये बार-बार विवश करती हैं। जन्म, मृत्यु, रोग, शोक, धरती आकाश के विराट स्वरूप हमें यह सोचने को विवश करते हैं कि मनुष्य केवल मनुष्य जंतु मात्र ही नहीं है वह कोई और भी इससे भिन्न, विलक्षण सूक्ष्म तत्व है।

अपने आपको जानना ही आत्मज्ञान प्राप्त करना है। अपने को शरीर मानना यह अविद्या है और आत्मज्ञान प्राप्त करना ही विद्या है। पहली मृत्यु है और दूसरी अमरता। एक अंधकार है दूसरा प्रकाश, एक जन्म-मृत्यु है दूसरा मोक्ष। एक बंधन है दूसरा मुक्ति। नरक और स्वर्ग भी इन्हें ही कह सकते हैं। ये दोनों एक दूसरे से अत्यन्त विपरीत परिस्थितियाँ हैं, दोनों भिन्न-भिन्न दिशाओं को ले जाती हैं, इसलिये एक को ग्रहण करने के लिये दूसरे को त्यागना अनिवार्य हो जाता है।

ज्ञान और अज्ञान की समान परिस्थितियाँ इस विश्व में विद्यमान हैं। जिन्हें पदार्थों से प्रेम होता है वे प्रेयार्थी अज्ञानी कहे जाते हैं। भले ही उन्हें साँसारिक ज्ञान अधिक हो पर ब्रह्मवेत्ता पुरुष उन्हें कभी विद्वान नहीं मानते और नहीं उन्हें महत्व दिया जा सकता है क्योंकि भोग की इच्छा करने वाले व्यक्ति अँधेरे में चलते और अंधों की तरह ठोकरें खाते हैं।

आत्म-ज्ञान प्राप्त करना वस्तुतः ईश्वर की सबसे सुन्दर सेवा और उपासना है। हमारे पूर्वज कहते हैं परमात्मा बड़ा मंगल कारक है उसकी दृष्टि भी बड़ी मंगलमय है। यहाँ कष्ट और दुःख की कोई बात ही नहीं है, पर लोग अज्ञान-वश कष्ट भोगते और परमात्मा को दोषी ठहराते हैं। इसलिये इन मूढ़जनों से आत्मज्ञानी ही श्रेष्ठ है, जो परमात्मा की कलाकृति का अपने गुण कर्म और स्वभाव के द्वारा अनुमोदन करता है। आत्मज्ञानी ईश्वर के गुणानुवाद न गाये तो भी वह सच्चा ईश्वर भक्त ही माना जायेगा और परमात्मा भी उसे अपना प्यार दुलार अजस्र रूप में प्रदान करेगा। अपने आज्ञाकारी और कर्मनिष्ठ बेटे से प्यार कौन नहीं करता? भगवान निश्चित रूप से उन्हें अपना प्रिय मानता है।

आत्म-तत्व का ज्ञान मनुष्य के लिये सभी दृष्टियों से उपयुक्त है। शास्त्रकार का कथन है कि- “तेषाँ सुखं शाश्वतं नेतरेषम” अर्थात् आत्म-ज्ञान के सुख से बढ़कर और कोई सुख नहीं। कठोपनिषद् अध्याय दो की दूसरी बल्ली में आत्मा की विशदता और उससे प्राप्त होने वाले महान सुख का इस प्रकार वर्णन है-

“जो समस्त जीवों का मूल, चेतन और सब प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करता है उस शरीरस्थ आत्मा का जो प्राप्त कर लेते हैं उन्हें ही नित्य और शाश्वत शाँति उपलब्ध होती है।”

यद्यपि यह आत्मा जीव रूप से हृदय में ही अवस्थित है तो भी वह अति सूक्ष्म है और सहज ही ज्ञान में नहीं आता। किन्तु जब कोई साहसी पुरुष अध्यात्म योग के द्वारा उसे जानने का प्रयत्न करता है कठिनाइयों में प्रविष्ट होकर उसे ढूंढ़ने का प्रयत्न करता है तो वह आत्मा की विशेषताओं से प्रभावित भी होता है और अंत में उसे प्राप्त कर साँसारिक दुःख और कष्टों से छुटकारा पा जाता है। यह लाभ आज के लोगों की दृष्टि से संभव है कुछ छोटे लगें पर इनके आगे साँसारिक भोग बिलकुल फीके और नीरस लगते हैं। यद्यपि वह इनसे वंचित भी नहीं रहता है अर्थात् उसे साँसारिक सुख संपदाओं की भी किसी तरह की कमी नहीं होती। स्वर्ग और मुक्ति का लाभ प्राप्त कर लेने पर लौकिक सुख तो दास-दासियों की तरह मनुष्य को अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। यमाचार्य ने शिष्य नचिकेता को आत्मज्ञान के द्वारा ब्रह्मविद्या का अधिकारी बना दिया था, वह नचिकेता राज-सुखों से भी वंचित नहीं रहा।

मूल प्रश्न श्रद्धा और विश्वास का है। मनुष्य के अंतःकरण में जिज्ञासा पैदा होनी चाहिए। ज्ञान की, आत्मा के रहस्य जानने की तीव्र आकाँक्षा ही इसका मूल आधार है। भगवान बुद्ध के अंतःकरण में यह जिज्ञासा इतने प्रबल रूप में प्रकट हुई कि हर दृश्य, पर हर समस्या उनके लिये और अधिक चिन्तन का आधार होती थी। हर बात के साथ “ऐसा क्यों हुआ” का प्रश्न जुड़ा रहता था। अपने आपके संबंध में, जीवन, मृत्यु ईश्वर और इस विराट जगत के रहस्य जानने के लिये उनके हृदय में तीव्र अकुलाहट रहती थी।

यद्यपि उन्हें वैभव-विलास की कुछ भी कमी न थी, तो भी वे इस प्रश्न का औचित्य सब के लिये एक समान देखते थे। अपने लिये भी उन्होंने यही देखा कि वैभव विलास में बड़ा होने पर भी मूलभूत समस्यायें मेरे साथ भी वैसी ही हैं। यह धन, यह राजसिंहासन न तो मेरे शारीरिक सौंदर्य की रक्षा कर सकता है और न जरा-मृत्यु से बचा सकता है और न जरा-मृत्यु से बचा सकता है तो उसका महत्व ही क्या रहा? मैं अपने आप की रक्षा नहीं कर सकता, तो फिर अपना शारीरिक महत्व ही क्या रहा? बस इसी उधेड़-बुन, आत्मज्ञान की तीव्र आकाँक्षा ने उन्हें तप के लिये आकर्षित किया। बुद्ध इस महान आध्यात्मिक आवश्यकता की सर्वोपरिता को न अनुभव करते तो उन्हें वे विभूतियाँ प्राप्त न होतीं जिनके आधार पर वे सामान्य श्रेणी के व्यक्तियों से ऊँचे उठकर भगवान बन गये। इसी जिज्ञासा का याज्ञवल्क्य से सही समाधान पाकर मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी बन गयी।

आत्म तत्व निश्चय ही बहुत विशद है। बुद्धिमान व्यक्ति इस परम गोपनीय तत्व को प्राप्त कर अपनी मुक्ति के भागी तो बनते ही हैं साथ ही वे हजारों औरों को आत्मकल्याण के मार्ग में अग्रसर करने में भी समर्थ होते हैं किन्तु यह तत्व गोपनीय ही नहीं दुःसाध्य भी है। मनुष्य की जिज्ञासा ही उसे अधिकारी नहीं बना देती वरन् उस तत्व के अवगाहन की पात्रता भी होना आवश्यक है। अधिकारी व्यक्ति ही उसे प्राप्त कर सकते हैं जो भय और मोह की स्थिति में डगमगा न सकें और जिनमें इतनी दृढ़ता, गंभीरता और कठिनाइयों के सहन करने की क्षमता हो कि वे साधना काल की ऊँची-नीची, टेड़ी-तिरछी परिस्थितियों में भी बढ़ते रह सकें, वस्तुतः वही उसके पात्र होते हैं। ऐसे आत्मबल संपन्न व्यक्तियों पर ही समाज का भविष्य निर्भर है आत्मतत्व के खोजी वर्चस् संपन्न व्यक्तियों पर ही समाज का भविष्य निर्भर है आत्मतत्व के खोजी वर्चस् संपन्न व्यक्ति अगले दिनों और अधिक संख्या में पैदा हों, ऐसी नियति की इच्छा है कोई कारण नहीं कि महाकाल की यह इच्छा पूरी न हो।


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