कलियुगी अभिशाप व सतयुगी संभावनाएँ

July 1993

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पतन सरल और उत्थान कठिन हैं। छत पर चढ़ने में साधन ढूँढ़ना और परिश्रम करना पड़ता करना पड़ता है किन्तु ऊपर से नीचे गिरने के लिए एक हलका धक्का पर्याप्त है। इतने भर से किसी को लुढ़कते हुए गहरे गर्त में आ पड़ने की दुर्गति हाथ लगती है। साधन चिरकाल से कठिनाई से जुटाए जाते हैं, पर उन सबको भस्मसात् करने में एक चिनगारी का छप्पर छू जाना सर्वनाश का कारण बनता है। ऐसा समुद्र जिसका जल पशु-पक्षियों तक के काम नहीं आता, पतन का क्रम ही ऐसा है, स्वर्ग तक पहुँचना कठिन है, पर वहाँ पहुँचने वाला यदि कुकृत्य करने लगे तो नरक जैसी दुर्गति में जा गिरने का उसका पथ प्रशस्त हो जाता है।

हमारी संस्कृति में सतयुग का बुढ़ापा जब आया तो उसमें विषाणुओं को आक्रमण करने का अवसर मिला। दमा, खाँसी, अपच, अनिद्रा, बहुमूत्र, रक्तचाप, आदि अनेकों रोग अनायास ही आ धमकते हैं जिनका जवानी की अवधि में कहीं अता पता तक न था। प्रकृति का नियम ही कुछ ऐसा है कि प्रकाश के उपरान्त अंधकार का साम्राज्य छाए। प्रकाश में पुरुषार्थ सतेज होता है, पर अंधकार में काम चलाऊ स्थिति बनाए रहने के लिए दीपक जलाने से लेकर चौकीदारी का नियम नहीं है। ऋतुएँ बदलती रहती हैं। काया भी जन्मती, बढ़ती और मृत्यु के मुख में चली जाती है युगों का परिवर्तन भी ऐसा ही होता रहा है। जन्म के समय प्रसव काल में सिर पहले बाहर निकलता है, पैर वाला कम महत्वपूर्ण अंग बाद में दीख पड़ता है।

सतयुग सृष्टा का आरंभिक विकासक्रम रहा है। इसमें उत्कृष्टताएँ ऊर्ध्वगामी एवं समुन्नत रही हैं। मानवी गरिमा का वह स्वर्णिम प्रभात काल रहा है। उसमें मनुष्य उन सब विभूतियों में सत्प्रवृत्तियों में जुटा हुआ था जिसके कारण उसे सृष्टा का ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, वरिष्ठ युवराज कहलाने का अवसर मिला। प्रभात काल का उदीयमान सूर्य स्वर्णिम होता है एवं सविता कहलाता है और अर्घ्य के लिए, ध्यान धारण के लिए उसी का आश्रम लिया जाता है। सराहना सतयुग की होती है क्योंकि उसमें परिस्थितियां अनुकूल रहती हैं और अन्तः स्थिति उत्कृष्टता के अनुरूप सात्विकता सौम्यता, सज्जनता मनुष्य की विचारणा में क्रियाकलापों में भरी पूरी रहती है। इसीलिए उस काल को सराहा और देवयुग कहा जाता है।

प्रकृति चक्र गतिशील है। वह ऊपर से नीचे भी उभरता है। फव्वारे का पानी ऊपर उछलता है, किन्तु थोड़ा ऊँचा उठकर वह नीचे गिरने लगता है। यह गिरावट यदि चलती ही रहे तो उछलने वाला शीतल जल गन्दी नाली तक जा पहुँचता है और दुर्गन्धित, अस्पर्श्य बनता है। सत्संग जिस गति से उत्कर्ष का द्वार खोलता है, कुसंग उससे अधिक तेजी अपनाकर पतन के गर्त में गिरता है। सतयुग जिस क्रम से कभी फला-फूला उससे कहीं अधिक तेजी के साथ त्रेता और द्वापर की पतनोन्मुख प्रक्रिया तेज हुई। भगवान को जल्दी-जल्दी अवतार इन्हीं दिनों लेने पड़े हैं। अधर्म के उन्मूलन और धर्म के संस्थापन का कार्य जब मनुष्यों के लिए कठिन हो गया तो उसकी सहायता के लिए दिव्य अवतरण का सिलसिला चला। धर्म का साम्राज्य सतयुग में रहता है। इसलिए उन दिनों मनुष्य ही देवत्व की रक्षा कर लेता है। अवतारी दिव्य अवतरण तो असंतुलन को सन्तुलन में बदलने के

लिए ही होता है। जब सरकारें अपना काम ठीक तरह नहीं कर पातीं तो उन्हें भंग किया जाता है और राष्ट्रपति शासन या आपात स्थिति लागू की जाती है। अवतार यही है। हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यपु, वृत्रासुर रावण, कंस आदि का प्रादुर्भाव इस मध्यकालीन गए गुजरे समय में ही हुआ हैं। अवाँछनीयता विविध छिद्रों से इसी कारण फूटती रही है और उसका समय-समय पर दमन भी होता रहा है।

मध्यकाल के सामन्ती अंधकार युग का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करना यहाँ अभीष्ट नहीं हैं। उस संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि उसमें विग्रह, विनाश, अनाचार, पतन, पीड़ा जैसी दुष्परिणतियों का ही दौर बहुलता के साथ रहा है। यों सत्व का सर्वनाश कभी भी नहीं होता। आदर्श विश्व अन्तरिक्ष में सितारों की तरह टिमटिमाते रहते हैं और अंधेरे की स्थिति भी ऐसी बनाए रहते हैं जिसमें सघन तमिस्रा का दौर रहते हुए भी काम चलाऊ प्रकाश बना रहे और यात्री को उस दुष्काल में भी रास्ता ढूँढ़ सकने का सुयोग बनता रहे। त्रेता और द्वापर की स्थिति ऐसी ही रही है। जिसमें निशा काल में भी चन्द्रमा की चाँदनी छिटकी रहे और सदाशयता का अस्तित्व जहाँ तहाँ दृष्टिगोचर होता रहे।

सघन तमिस्रा का घटाटोप तो इन दिनों कलिकाल में सघन छाया हुआ है, जिसमें संकीर्ण स्वार्थपरता का सर्वतोभावेन बोल-बाला हैं। अनास्था संकट ने हर दिशा में घेरा डाला है। जन साधारण में दुहरे व्यक्तित्व की उपज बढ़ चली है। बाहर से मनुष्य भलमनसाहत की वाणी बोलता है और विडम्बना रचता है, पर भीतर ही भीतर बहिरंग से सर्वथा प्रतिकूल अपना स्वरूप बनाता है। मन, कर्म, वचन, की एकरूपता नहीं रहती वरन् वे त्रिधाराएँ संगम नहीं बनाती, तीन दिशाओं में फूटती हैं। आदर्शों की व्यवस्था-विवेचना तो होती रहती है, पर उन्हें कार्य रूप में परिणत करने वाले बहुत खोजने पर कोई बिरले ही मिलते हैं। मर्यादाओं का पालन और वर्जनाओं का तिरस्कार कोई-कोई कभी-कभी ही करते हैं। चतुरता इसी सीमा तक बढ़ी है कि अनीति और अनाचार के पक्ष में भी तर्क, तथ्य कारण गढ़े और जोर-शोर से प्रतिपादित किए जाते हैं। सत्य को निरूपित करने वाली वाणी बहस में उलझती है और तब लगता है कि वाचालता जीतेगी और यथार्थता हारेगी वाद, पथ मत आदि इतने अधिक प्रकार के उभरे हैं कि उनके भूल भुलैयों से भरे मार्ग में भटकाव हाथ रह जाता है। सही मार्ग को खोजते नहीं बन पड़ता।

सताए या ठगे हुए व्यक्ति अनाचारों के लिए विपत्ति बनकर उभरते हैं। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। पापों का दुष्परिणाम उपस्थित होना निश्चित है। यह तत्काल लाभ कालान्तर में अनेक गुने संकट लेकर उभरता है और प्रकृति की क्रम व्यवस्था के अनुरूप सताने वाले को सताया जाता देखा जाता है। अनाचार से शारीरिक रोग, मानसिक प्रतिशोध और दैवी अभिशाप बनकर सामने आते हैं। तब प्रतीत होता है कि कर्मफल मिलने में देर भले ही लगे, पर सुनियोजित विश्व व्यवस्था में अंधेर नहीं है।

बढ़ते हुए अनाचार का नाम ही कलियुग का विस्तार है। इससे राजकीय, सामाजिक दण्ड तो मिलते ही हैं। शारीरिक, मानसिक, संताप भी कम त्रास नहीं देते। इसके अतिरिक्त कुपित प्रकृति विविध विधि अप्रत्याशित, अदृश्य संकटों की वर्षा करती है। भूकम्प, दुर्भिक्ष, बाढ़ दुर्घटना, महामारी, विग्रह, उपद्रव, युद्ध जैसे संकट इस प्रकार बढ़ते हैं कि अनाचारियों के अतिरिक्त वे लोग भी फँसते हैं जो दुष्टता की रोकथाम के लिए संघर्ष करने में डरते कतराते हैं। जिस प्रकार अनीति करना पाप है, उसी प्रकार उसका सहना भी अनर्थ है। दैवी विपत्तियाँ जन-जन को आगाह करती हैं कि समूची मानव जाति एक सूत्र में बँधी हैं। यदि एक जगह अनर्थ होता है तो यही सब इन दिनों हो भी रहा है एवं कलियुगी विनाश लीला को हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं।

इसके निवारण का एक ही उपाय है-सत्प्रवृत्तियाँ एक जुट होने लगें तो सतयुग स्वतः आ जाता है। हमें आशावादी बने रह उम्मीद करनी चाहिए कि अगले दिनों अंधकार भरी मिशा तिरोहित होगी व नवयुग का, सतयुग का स्वर्णिम सूर्योदय होगा। ऐसा ही कुछ संकेत अदृश्य जगत से इन दिनों मिल रहा है।


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