सर्वोपरि आभूषण– संतोष

July 1993

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“मेरी महत्वाकाँक्षा के लिए क्षमा करें देव! मैं सुहागिन हूँ, किन्तु शरीर पर एक भी आभूषण न होने से भद्र महिलाएँ मुझे असम्मान की दृष्टि से देखती हैं। लोकसेवा आपके जीवन का लक्ष्य है स्वामी! आपकी सहधर्मिणी होने के फल स्वरूप मेरा भी कर्तव्य है कि मैं आपके आदर्शों का पालन करूं। किन्तु सामाजिकता को भी तो सर्वथा ठुकराया नहीं जा सकता। यही एक छोटी सी बात है। एक दो मंगल आभूषणों की व्यवस्था हो जाती तो इस असम्मान से बच जातीं। “लोपामुद्रा ने बड़े संयत एवं विनीत शब्दों में अपने मन की बात पति से कह दीं।

महर्षि अगस्त्य कुछ गंभीर होकर बोले-“ भद्रे! अपने मन की बात बड़ों से स्पष्ट कर देना उनका नैतिक अधिकार है। फिर पति-पत्नी तो एक दूसरे के अंतरंग सखा होते हैं। अपनी आकाँक्षाएँ एक दूसरे से व्यक्त न करे तो फिर गृहस्थी का आनन्द ही क्या रहे? इसमें भूल या क्षमा जैसी कोई बात नहीं है। गृहस्थ होने के साथ मुझे उन आवश्यकताओं का ध्यान रखना आवश्यक था, जिससे परिजनों को संतोष मिलता है। यह मेरी भूल है, जो आत्म-कल्याण के लोकोत्तर साधनों पर तो चर्चा करते रहे पर साँसारिक होकर भी साँसारिकता को सर्वथा त्याज्य समझते रहे। आगे कभी ऐसी भूल न होने देंगे।”

लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में अपनी धर्मपत्नी लोपामुद्रा के आभूषणों की व्यवस्था कैसे हो, इसकी उन्हें स्वाभाविक चिन्ता उठ खड़ी हुई। महर्षि ने जप-तप किया था, साधना-उपासना का अभ्यास किया था, अष्टाँग योग की गम्भीरताओं में निमग्न हुए थे। पर लोकोपकार और आत्मतत्व की शोध में निरंतर व्यस्त रहने के कारण लौकिक संपत्ति न जुटा पाए थे। इसी कारण लोपामुद्रा की आकाँक्षा को पूरा करना उनके लिए चिन्ता का ही विषय था।

महर्षि ने हजारों शिष्यों को पढ़ाया लिखाया और योगाभ्यास कराया था। नीति, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र तर्क मीमाँसा, तत्वदर्शन आदि अनेक विद्याओं से सैंकड़ों शिष्यों को दीक्षित प्रशिक्षित किया था पर अपरिग्रह की भावना से आज तक उन्होंने किसे भी कुछ स्वीकार नहीं किया था। यद्यपि पारिश्रमिक ले लेना उनका नैतिक अधिकार था, तथापि ब्राह्मणत्व के तेज और वर्चस्व को बनाये रखने के लिए उन्होंने धन को अपने से दूर ही रखा था। शिष्यगण जब कभी श्रद्धा-भाव से गुरुदक्षिणा के रूप में कुछ अर्पित करते तब वह उनकी श्रद्धा को सम्मानित करते हुए कहते”वत्स! तुम्हारी श्रद्धा का मेरे हृदय में परिपूर्ण सम्मान है रत्न-धन आदी तुम अपने जीवन में काम लाओ। मेरी सच्ची गुरु-दक्षिणा यही है-कि तुम मेरे भावों का विस्तार करो मैं जिन आदर्शों के लिए जीवन जी रहा हूँ तुम भी उनके निर्वाह के लिए प्रयत्नशील रहो।” महर्षि स्वयं अपना जीवन-निर्वाह भी अपने दो हाथों की कमाई से ही करते थे। ऐसा न करते तो ऋषि जीवन की शान कहाँ रहती?

पर आज का प्रश्न उतनी ही उलझनों के साथ आ खड़ा हुआ, जितनी उलझने साँसारिकता से ग्रस्त मनुष्य अपनी भूलों के द्वारा पैदा कर लिया करता है। ऋषि ने आज तक पढ़ा था-“कामनाओं की बाढ़ से चिन्ताओं का बोझ बढ़ता है।”आज उसकी स्पष्ट अनुभूति हुई। अब वे इस बात का विचार करने लगे आभूषणों की व्यवस्था कैसे हो कि अपने आदर्शों का परित्याग भी न हो और लोपामुद्रा की भावना का अनादर भी न हो।

महर्षि अपने कुछ प्रमुख शिष्यों को लेकर राजा श्रुतर्वा के पास चल पड़े। श्रुतर्वा उनका शिष्य रह चुका था। गुरु के प्रति उसके हृदय में अपार आदर और निष्ठा थी। यह सोचकर ही महर्षि अगस्त्य उसके पास चले थे। तो भी उनका अंतिम निश्चय यही था कि वे आभूषण या आभूषणों के लिए वही धन स्वीकार करेंगे जो शिष्यों द्वारा न्यायपूर्वक अर्जित किया गया हो अनीति से उपार्जित धन ग्रहण करना ऋषि के लिए संभव न था।

गुरुदेव को अपने द्वार आया देखकर वीर्यवान श्रुतर्वा के हर्ष का पारावार न रहा। उसने उनकी सब प्रकार आवभगत की। वर्षों से बिछुड़े गुरु शिष्य, माँ-बेटे की तरह मिले। कई दिन स्वागत सत्कार में ही निकल गए। तब श्रुतर्वा को ध्यान आया कि गुरुदेव का आगमन किसी उद्देश्य के लिए तो नहीं हुआ। उसने शिष्यों से सब मंतव्य जाना। उसके लिए यह सौभाग्य की बात थी कि गुरूमाता की छोटी सी इच्छा उसके द्वारा पूरी होने जा रही थी।

प्रातःकाल उसने अनेक स्वर्ण मुद्राओं से भरी मंजूषा गुरु चरणों में समर्पित कर दी। उसे स्वीकार करने की प्रार्थना करते हुए श्रुतर्वा ने कहा- “ भगवन् आज्ञा दे तो श्रृंगार के लिए स्वयं साम्राज्ञी को आश्रम की गुरु भक्ति से महर्षि अगस्त्य का हृदय भर आया, किन्तु आभूषण स्वीकार करने के पूर्व उन्होंने प्रश्न किया-“वत्स! पहले ये बताओ इन आभूषणों में कहीं अधर्म और अन्याय की कमाई तो नहीं लगी।”

श्रुतर्वा ने किंचित चिंतित स्वर में बताया-“देव! यह आभूषण राजकोष से बने है। कोष के लिए धन प्रजा देती है कितने लोगों ने परिश्रम की कमाई दी है कितनों ने अधर्म की, यह तो मुझे भी अविज्ञात है। लगता है इसमें शोषण और उत्पीड़न से प्राप्त धन भी है। भगवान भूल हुई, जो आपका शिष्य होकर भी यह ध्यान न रख सका और परिग्रह में पड़ा रहा।’

निश्चय ही कर देने वालों में से कितनों ने ही बिना परिश्रम अनीतिपूर्वक धन कमाया होगा। इस आशंका के मन में आते ही महर्षि ने वह मंजूषा लौटा दी और उदास मन से वापस लौट पड़े।

अब वे राजा धनस्व राज्य के पास पहुँचे। धनस्व प्रजापालक और धर्मज्ञ राजा के साथ ही बड़ा निष्ठावान शिष्य था। किन्तु गुरु का सत्कार उसने बड़ी सादगी से किया। उसका निवास भी श्रुतर्वा जैसा नहीं था। पूछने पर ज्ञात हुआ कि धनस्व राज्य संचालन और अपने निर्वाह के लिए इतना कर लेता है जिससे राज्य की आवश्यकताएँ तो पूरी हो जाती है,पर बनता कुछ नहीं। महर्षि अगस्त्य ने शिष्य धनस्व की पीठ थपथपा कर आशीर्वाद दिया-“वत्स! जिस देश में तुम्हारे जैसे निजी निपुण और त्याग वृत्ति वाले शासक होंगे, वहाँ प्रजा कभी दुःखी न रहेगी।”धनस्व को अपने गुरु की आवश्यकता पुरी न कर सकने का दुःख अवश्य था, पर उसे अपना कर्तव्य परायणता के लिए संतोष भी था। उसी संतोष के साथ उसने गुरुदेव को सादर विदा दी।

इसके बाद महर्षि अपने कई शिष्यों के पास गए पर निराशा ही हाथ लगी। जहाँ शिष्य कर्तव्य परायण और परिश्रमी मिले वहाँ उपयोग से अधिक धन नहीं मिला। जहाँ धन मिला वहाँ साधन दूषित थे अतएव उनकी आशा सब जगह अधूरी ही रहीं।

अतंतः वे अपने दैत्य शिष्य इल्वण के पास गए। गुरु को पाकर शिष्य की वर्षों सोई श्रद्धा उमड़-पड़ी। महर्षि अगस्त्य का उसने भारी स्वागत किया। उसके पास धन संपत्ति और स्वर्ण आभूषणों का किंचित मात्र भी अभाव नहीं था। शिष्यों से उसने चुपचाप गुरु का आशय भी जान लिया। और इसके पूर्व कि वे कुछ कहें उसने अपने प्रमुख सेवकों के साथ प्रचुर आभूषण भरकर आश्रम भिजवा दिए। महर्षि को जब तक यह बात मालूम पड़े तब आश्रम में लोपामुद्रा के पास पहुँच गए।

आभूषण एक ओर रखवाकर विदुषी लोपामुद्रा ने सेवकों को जल पिलाया और उसने महर्षि की कुशल-मंगल पूछी। नौकरों ने वह सब समाचार सुनाए जिस तरह अगस्त्य श्रुतर्वा से लेकर इल्वण के दरबार तक दौड़े थे। लोपामुद्रा पति की इस अकारण भाग दौड़ के लिए बहुत दुःखी हुई। उन्हें अपनी महत्वाकाँक्षा रोक न सकने का बड़ा दुःख हुआ।

उन्होंने पूछा-इल्वण के पास इतना धन कहीं से आता है, जो उसने ढेर सारे आभूषण यहाँ पर भेजे दिए। सेवक हँस पड़े, कुछ पल बाद अपनी हँसी रोकते हुए बोले रोकते हुए बोले-भगवती वह शासक हैं, उनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं। इतना धन तो एक क्षण में किसी से भी अधिकार पूर्वक ले सकते हैं।

लोपामुद्रा की आंखें खुल गईं। उनके लिए अनीति की कमाई स्वीकार करना असंभव हो गया। उन्होंने जल्दी ही वे सारे आभूषण वापस कर दिए। इतने में महर्षि स्वयं भी आ पहुँचे। उन्हें अपनी असमर्थता प्रकट नहीं करनी पड़ी। लोपामुद्रा ने भरे हृदय से उनका स्वागत करते हुए क्षमा माँगी। महर्षि ने प्रेम पूर्ण स्वरों में उनसे कहा-देवी! आज तुमने सच्चा आभूषण पा लिया। संतो ही वह आभूषण है, जिससे बढ़कर दूसरा आभूषण धरती पर नहीं है।


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