समझदारी इसी में है कि मन संतुलित रहे

July 1993

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मानसिक स्वास्थ्य को सही रखने के लिए आवश्यक है कि जीवन को खिलाड़ी की तरह जिया जाय। उस भाग-दौड़ में लगने वाली छोटी-मोटी चोट-ठोकरों, हार-जीतों को महत्व न दिया जाय। इन्हें रात-दिन के, ज्वार-भाटों जैसा नियति का कौतुक-कौतूहल मात्र माना जाय। हर काम में चुस्ती और मुस्तैदी बरती जाय पर यह आशा न रखी जाय कि इच्छित कामना के अनुरूप ही परिस्थितियाँ बनती चली जायेंगी। प्रतिकूलताएँ भी आती रहती हैं। उनका खट्टा-मीठा स्वाद तो चखते रहा जाय पर अवसर ऐसा न आने दिया जाय कि हर्ष-शोक की इतनी असाधारण अनुभूति हो कि मानसिक संतुलन ही गड़बड़ा जाय। आवेश चढ़ दौड़े और उत्तेजना में ऐसा कुछ कर बैठे जो अस्वाभाविक एवं अनावश्यक हो। जिस के लिए पीछे पछताना और लोगों का उपहास तिरस्कार सहना पड़े।

हर काम को पूरी समझदारी, जिम्मेदारी, तत्परता और तन्मयता के साथ किया जाय। उसमें आलस्य-प्रमाद का प्रवेश न होने दिया जाय। उपेक्षा-शिथिलता का लाँछन न लगने दिया जाय। इतने पर भी यह निश्चित नहीं किया जा सकता कि जो चाहा है वही होकर रहेगा। तैयार इसके लिए भी रहा जाय कि आँशिक सफलता मिले अथवा सर्वथा असफल रहना पड़े तो विचलित होने की मनः स्थिति न बन पावे। सोचा जाना चाहिए कि संसार हमारे लिए ही नहीं बना है। इसमें असंख्यों की साझेदारी है। जो अपने लिए लाभदायक समझा जाता है वह दूसरों को हानिकारक भी हो सकता है। प्रकृति को संतुलन बनाये रहने के लिए सभी का ध्यान रखना पड़ता है। खेत में एक जोतता है तो दूसरा काटता है। यही बात घटनाक्रमों के संबंध में भी लागू होती है इच्छा पूर्ति की आतुरता को महत्वाकाँक्षा कहते हैं, आवश्यक नहीं कि वे हर किसी की पूरी ही होती रहें। अस्तु किसी भी विचारशील को हार−जीत के अनुकूलता-प्रतिकूलता में से कोई भी हाथ लगने की संभावना से पूर्व मानस बना लेना चाहिए। प्रतिक्रियाएँ ऐसी न हों जो आवेशग्रस्त मानस बना दें और अपनी वितर्क शक्ति का ही अपहरण कर लें। वहीं तो एक मात्र ऐसा माध्यम है जिसके सहारे कठिनाइयों से बचना-छूट सकना संभव होता है। अन्य मार्ग खोजने और नया उपाय सोचने के लिए चिन्तन चेतना काम करती रह सकती है। कि वर्तमान अवरोध से निपटा और नये सिरे से नया कदम उठा सकना संभव हो सके।

मन को हर स्थिति में हलका-फुलका रहने दिया जाय। संतोष और धैर्य को इतनी मजबूती से पकड़े रहा जाय कि वे किसी भी कारणवश छिनने न पायें। हर्ष-शोक को क्षणिक उभार समझा जाय और उन्हें जुगनू के चमक जैसा अस्थिर माना जाय। कल्पना की रंगीली उड़ानों में उड़ते हुए शेखचिल्ली का अनुकरण न किया जाय और न आशंकाओं से इतना भयभीत रहा जाय कि अगले दिनों कोई विपत्ति ही टूटने वाली है। नाविक रात को भी नाव चलाते हैं, पर ध्रुव तारे को देखकर दिशा ज्ञान पाते रहते हैं। उज्ज्वल भविष्य की संभावना पर विश्वास रखना, वह ध्रुव तारा है जिस पर विश्वास रखें रहने पर लक्ष्य तक जा पहुँचने की आशा-ज्योति प्रज्वलित रहती है। इसे स्वयं बुझा लेने पर तो इस तमिस्रा के माहौल में मात्र अंधकार ही हाथ रह जाता है। निराशा एक प्रकार की मानसिक अपंगता है, जिसकी पकड़ जाने पर कुछ करते धरते नहीं बन पड़ता। रुग्णता, दुर्बलता, जरा-जीर्णता जैसी परिस्थितियों में मनुष्य असहाय, असमर्थ बनकर रह जाता है। यही दशा उन लोगों की होती है जो किन्हीं छोटी-मोटी असफलताओं को तिल का ताड़ बनाते हैं। रस्सी का साँप बनना और झाड़ी में से भूत निकलता ऐसा ही मानसिक विभ्रम है जैसा कि निराश-ग्रस्त, खीचते, रोते-कलपते रहने वालों के सामने निरन्तर खड़ा रहता है। विपत्ति की इस मानसिक भँवर से बचे रहने में ही भलाई है। संतुलन शान्त, स्थिर और आशान्वित रहने का अभ्यास सतर्कतापूर्वक निरन्तर करना चाहिए।

शरीर की बलिष्ठता और सुन्दरता का महत्व सभी जानते हैं। उसके लिए इच्छा और चेष्टा भी करते हैं इससे अधिक महत्वपूर्ण मनोबल की प्रखरता और प्रसन्न मुद्रा को समझा जाना चाहिए। आत्म विश्वास के रहते कोई कार्य असंभव नहीं रह जाता। गई गुजरा परिस्थितियों में सर्वथा साधनहीन रहते हुए भी लोगों ने आत्मविश्वास के सहारे प्रगति का मार्ग स्वयं सोचा,खोजा, और उस पर स्वयं अपने पैरों चलते हुए उन्नति के चरम शिखर तक पहुँचे है। यह संभावना हर किसी के साथ जुड़ी रह सकती है, शर्त एक ही है कि किसी कठिनाई से निराश होकर हाथ पैर फुला कर न बैठा जाय।

मुसकान मनुष्य के पास एक प्रत्यक्ष दैवी वरदान हैं। जो हँसता-हँसाता रहता है वह चुम्बक की तरह आकर्षण शक्ति से भरा पूरा और कमल पुष्प जैसा सुन्दर सुगंधित बना रहता है।

यह अपना निजी उत्पादन है। यदि उसे स्वभाव का अंग बना लिया जाय और दृढ़तापूर्वक उसका अंग बना लिया जाय और दृढ़तापूर्वक उसका अभ्यास कर लिया जाय तो व्यक्तित्व असाधारण रूप से सुन्दर बन जाता है उसे न तो बुढ़ापा छीन सकता है और न कठिनाइयों के बीच रहते हुए भी उस पर कोई आँच आती है। शरीर मात्र यौवन के दिनों में ही बलिष्ठ रहता है। बचपन और बुढ़ापे में तो असमर्थता ही छाई रहती है। बीमारी और असंयम भी उसे लुँज-पुँज कर देते हैं पर आत्म विश्वास के आधार पर उपार्जित किया गया मनोबल ऐसा है जो सदा सर्वथा साथ देता है और प्रचण्ड जीवनी शक्ति की तरह हर कठिनाई से लड़ पड़ने के लिए समुद्यत रहता है। प्रसन्न रहना उच्चस्तरीय कला-कौशल है। जिसे मुसकाते रहने की आदत है वह संपर्क में आने वालों पर अपने को सफलता संपन्न होने की छाप छोड़ता है। उस सौंदर्य की अपनी अतिरिक्त गरिमा है। जिससे हर देखने वाला प्रसन्नता और उत्साह उपलब्ध कराता है। निकट आने वाले किसी फूले फले महकते वृक्ष की सघन छाया में बैठने जैसा आनन्द पाता है। प्रसन्न चेता के सान्निध्य में रह कर प्रसन्न रहने के कौशल में प्रवीण होने के लिए आरंभ में दर्पण में अपनी मुसकाती छवि का सौंदर्य अनुभव करते हुए स्वभाव का अंग बनाया जा सकता है फिर बाद में तो वह एक आदत ही बन जाती है जो व्यक्तित्व का अविच्छिन्न अंग बनी रहती है। बुरे दिनों में भी उसका साथ नहीं छूटता। प्रसन्न रहना प्रकारान्तर में सफल और सुखी जीवन को उपलब्ध कर लिये जाने की घोषणा करते रहना है। इस तथ्य पर विश्वास भी किया जाता है और संपर्क में आने वाले, उस स्तर को अपनाने वाले व्यक्ति से प्रभावित भी होते हैं। सम्मान करने और सहयोग भी देने के लिए स्वयं उत्सुक रहते हैं। इसके विपरीत संकोची स्वभाव के डरे सहमे उदास, एकाकी प्रकृति के लोग सदा उपहासास्पद बने रहते हैं। कोई उनकी कठिनाई पूछने और सहानुभूति दर्शाने नहीं आते जैसा कि इस प्रकार के लोग आमतौर से आशा किया करते हैं। जब हम हँसते हैं तो दूसरे लोग उस आनन्द में भागीदार बनने के लिए साथ लग लेते हैं, पर जब मुँह लटकाये रहने की स्थिति में होते तो पुराने साथियों में से भी अधिकाँश छिटकते और अलग हटते जाते हैं। दोनों परस्पर विरोधी परिस्थितियों में से किसी का वरण कर लेना सर्वथा अपने हाथ की बात है। परिस्थितियों की तुलना में मनःस्थिति का वर्चस्व कहीं अधिक बढ़ा चढ़ा है। इस प्रकार के रहस्य से हर किसी को अवगत होना चाहिए।

स्वभाव की कुटिलता एक ऐसी विपत्ति है जिसे दुर्दिनों का पूर्वाभास भी कहा जा सकता है। स्वार्थी, लालची, अहंकारी प्रकृति के व्यक्ति इच्छित बड़प्पन को सही रीति से पा सकने में सफल नहीं हो सकते, तब उन्हें कुटिलता ही सूझती है। आतंक और छद्म यह दो ही हथियार उनके पास बने रहते हैं जिनको वे उचित अनुचित का विचार किये बिना समय कुसमय इन हथियारों का प्रयोग करने लगते हैं साथ ही यह भूल जाते हैं कि क्रिया की प्रतिक्रिया भी होती है। तुर्की बेतुर्की जवाब भले ही न मिले पर ऐसों का सम्मान तो निश्चित रूप से चला जाता है। अवसर आने पर उस आक्रमण से प्रभावित लोग ही नहीं, सुनने, देखने वाले भी बागी हो जाते हैं और अवसर मिलते ही नीचा दिखाने में नहीं चूकते। यह स्पष्टतः पतन का मार्ग है। उच्छृंखलता, उद्दंडता अपनाने वालो में से सहयोग से, सम्मान से वंचित रहने के कारण प्रगति की दिशा में बढ़ा सकने वाली परिस्थितियाँ ही हाथ नहीं लगती। अनुशासनहीन, उद्दंडता, आक्रमण प्रकृति के व्यक्ति कभी कहीं तात्कालिक लाभ भले ही उठा लें पर वस्तुतः अपने व्यक्तित्व को इतना हेय बना लेते हैं कि किसी महत्वपूर्ण प्रगति के साथ जुड़ने की प्रायः समस्त संभावनाएँ ही समाप्त हो जाती है। ऐसे लोग खीजते, कुड़कुड़ाते, जिस-तिस पर दोषारोपण करते हुए ही जीवन यात्रा समाप्त करते हैं। ऐसा कुछ भी हस्तगत नहीं कर पाते जिसे अभिनंदनीय या अनुकरणीय कहा जा सके।

निषेधात्मक दृष्टिकोण अपना लेने पर हर किसी के दोष दुर्गुण खोजते रहने की आदत पड़ जाती है। सदा शिकायतें ही शिकायतें बनी रहती हैं, फलतः द्वेष की मनोभूमि बनती रहती है। द्वेष की प्रतिक्रिया प्रत्याक्रमण में भी हो सकती है। वैसा न हो तो विद्वेषी के प्रति किसी के मन में सहानुभूति उत्पन्न नहीं होती भले ही वह अपने को अनीति के विरुद्ध संघर्ष करने वाला शूरवीर घोषित करते रहें। सिद्धांतों का आवरण ओढ़कर भी संचित निकृष्टता को छिपाया नहीं जा सकता। वह पोटली में बँधी होने पर भी हींग की बदबू की तरह अपनी उपस्थिति की अप्रत्यक्ष घोषणा करती रहती है। किसी को सुधारने-बदलने का एक मात्र सही तरीका है अपने सद्भाव को बनाये रहकर प्रतिकूल समझे जाने वाले को सुधारने का अवसर देना। बुद्ध, गाँधी, ईसा, आदि ने यही नीति अपनाई और वे अपने अनोखे आदर्शों को सदा सर्वथा जीवित रहने के लिए छोड़ गये। युद्ध तो अब तक असंख्यों हुए है। उनसे मात्र विनाश ही हुआ है। किसी प्रकार की कहीं कोई समस्या नहीं सुलझी। इसी शताब्दी के दो विश्व युद्ध इस बात के साक्षी हैं कि संघर्ष की प्रक्रिया से जूझने हेतु पारस्परिक सहयोग की नीति अपनाने से हर दृष्टि से लाभ है। व्यक्तिगत विद्वेषों को भी पंचायत जैसे माध्यमों से बहुत हद तक हल किया जा सकता है। कानून भी किसी हद तक ऐसे प्रसंगों में सहायता कर सकता है। डाक्टरों द्वारा अपनायी जाने वाली वह नीति ही सही है जिसमें रोग को तो मारा जाता है पर रोगी के प्रति समुचित सद्भावना रखकर उसे बचाया जा सकती है। इन दिनों ऐसे मनोरोगों की ही अधिकता है जो अहंकारी, आक्रामक, उद्दंडता अपनाते और बदले में पग-पग पर ठोकरें खाते हैं। उन्हें सुधारना कठिन भले ही लगता है पर वह असंभव नहीं है।

लालच भी बुरी बात है। औसत नागरिक स्तर का निर्वाह अपर्याप्त मानकर जो धन में कुबेर और अधिकार में इन्द्र बनने की आकुलता सँजोये रहते हैं। उन्हें अनर्थ करने के अतिरिक्त और कुछ उपाय ही नहीं सूझता। विलासिता और अहमन्यता मिलकर आत्म प्रदर्शन की प्रवृत्ति भड़काती है। जिन्हें औरों से बड़ा बनाने भर की “ऊत” सूझती रहती है वे अपने ऊपर चित्र-विचित्र विडम्बनाएँ लादते और राम लीलाओं में लगायें जाने वाले कागज के पुतले रावणों जैसा दीखने के लिए कुछ ऐसे ही स्वाँग रचते हैं। ठाट-बाट, बचकाने श्रृंगार, महंगी फैशन, शेखी-खोरी, सस्ती वाहवाही लूटने के लिए कराई गई चमचागिरी, चारणबाजी, विज्ञापनबाजी, धूमधाम में समय और पैसा तो खर्च होता ही है साथ ही जिन्हें इस काम को करने के लिए सहयोगी बनाया जाता है उनका भी उसे दर गुजर किया जा सकता था। सस्ती वाहवाही लूटने की प्रवृत्ति चरितार्थ होते देखकर अन्य अनेकों के मन में वैसी ही नई विडम्बना रचने की ललक उभरती है और वे भी वैसा ही करने के लिए अपने ढंग से कुछ न कुछ कर गुजरने के लिए आतुर होते हैं। मृतक भोज, धूमधाम वाली शादियाँ, तीर्थयात्राओं के पीछे यह सस्ती वाहवाही लूटने की आशंका ही प्रधान रूप से काम करती है।

यह दुष्प्रवृत्ति भी कामुकता तरह ही आकर्षक,उत्तेजक और मस्तिष्क में खलबली मचाकर उसे सत्प्रयोजनों से विलग करती है। मानसिक क्षेत्र में वह गुंजाइश नहीं रहती जिससे प्रगति में दूरगामी योजनाएँ शांतचित्त से बन सकें और कोई ठोस उपलब्धियाँ हस्तगत कर सकें। यही कारण है कि लोकेषणा, कामेषणा, और वित्तेषणा को गर्हित स्तर का ठहराया गया है और इन विकृत महत्वाकांक्षाओं से बचे रहने के लिए कहा गया है। मनोविकारों से ग्रस्त न होने के लिए इन तीनों अनावश्यक उत्तेजनाओं से अपने आप को भड़काने-जलाने से बचकर ही रहना चाहिएं।

चिन्ता, भय , क्रोध, आवेश, आशंका कुकल्पना जैसी सनकों में अधिकाँश कुकल्पनाएँ ही काम करती रहती है। निराशा, हीनता दीनता जैसी प्रवृत्तियाँ भी मनुष्य को अपंग बनाती है इनसे बचना आत्म शिक्षण पर अवलंबित है। जिस पर दूसरों को कुमार्ग गमन से रोक जाता है उसी प्रकार अपने संबंध में अधिक सतर्कता और जागरुकता बरतने की आवश्यकता है।

मस्तिष्क को सदा रचनात्मक कामों में लगाये रहा जाय। इसी आधार पर प्रस्तुत विपत्तियाँ भी टलती हैं और प्रगति के लिए उपयुक्त राह भी मिलती है। अवाँछनीयताओं को निरस्त करने के लिए रचनात्मक दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने वाले उपाय ही अपनाने चाहिए। मात्र कमर कसकर लड़ने पर उतारू हो जाना ही परास्त करने का उपाय नहीं है। इससे तो आक्रमण-प्रत्याक्रमण का ऐसा कुचक्र भी चल सकता है जिसका कभी कहीं अन्त ही न हो। कीचड़ को कीचड़ से नहीं धोया जा सकता। अनाचार के प्रति उसी अस्त्र का उपयोग करना, आवेश की स्थिति में लगता तो अच्छा भी है और आवश्यक भी पर उसकी परिस्थितियों पर ध्यान देने से निष्कर्ष निकलता है सर्वसाधारण को तालमेल की नीति ही अपनानी चाहिएं। प्रताड़ना देने का कार्य शासन के हाथ ही छोड़ देना चाहिए निजी क्षेत्र में तो असहयोग, विरोध और बहिष्कार जैसे आधार ही समस्याओं का ऐसा हल निकाल देते हैं जिनमें कुछ समय भले ही लगे पर और भी अधिक दूरगामी प्रतिक्रिया उत्पन्न करने से बचा लेते हैं।

मानसिक आवेशों से बचे रहने की गीताकार ने असाधारण उपयोगिता बताई है। शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा को ध्यान में रखते हुए भी उस नीति को अपनाया जाना चाहिए।


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