समय माँगता समर साथियों! आमंत्रण स्वीकार करो। जीवन-गति का नाम बाँकुरो, मरण न अंगीकार करो॥
अनचाहे जाने कितने ही, पाप-ताप तुम झेल चुके। इन्द्रिय रथ पर चढ़कर जग के खेल बहुत से खेल चुके॥
अब उन सब कर्मों का तुमको, प्रायश्चित करना होगा। बूँद-बूँद कनकर स्नेह की, धरती पर झरना होगा॥
राणा बनकर अशन और आसन में तृण स्वीकार करो, सीमा होती नहीं नींद की, आलस और प्रमादों की।
जागो तुम टेर रही, उज्ज्वल भविष्य की लाली है। तुम पर न्यौछावर होने को, प्रकृति हुई मतवाली है॥
अनुदानों की वर्षा के ये, मंगल क्षण स्वीकार करो,
छाँट-छाँट कर अपने मन का, सभी मैल धो डालो तुम। डरो नहीं कष्टों से उनको, अपना मीत बना लो तुम॥
जब संयम को साध हृदय से, त्याग-भाव अपनालोगे। सभी सफलताओं को अपने, मन का दास बना लोगे॥
अनुशीलन के लिये स्वयं, मन का दर्पण स्वीकार करो। प्राण फूँक दो हर सोये जीवन में, क्रिया-कलापों से। मुक्त करो बोझिल समाज को, कुँठा के अभिशापों से ॥
वहीं अर्चना-पूजा होगी, जहाँ तुम्हारा पथ होगा। ऐश्वर्यों की अगवानी में, कर्तव्यों का रथ होगा॥
आराधन करने को माटी का हर कण स्वीकार करो। जीवन गति का नाम बाँकुरो, मरण न अंगीकार करो॥
देवेन्द्र कुमार “देव”