दृश्यमान संकट के मूल में सक्रिय परोक्ष हलचलें

July 1993

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सूर्य इस संसार को अपनी आभा और ऊर्जा से अनुप्राणित करता रहता है, यह उसकी उदारता है। जिस दिन वह अपनी रोशनी और ऊष्मा बिखेरना बन्द कर दे, उस दिन शायद यह सृष्टि भी बची न रहने पाए सूर्य का एक नाम ‘सविता’ भी है। सविता अर्थात् जीवनाधार। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सूर्य को बनाये रखने की शक्ति है। श्रुति का उद्घोष भी है “सूर्य आत्मा जगतस्थुषश्च” अर्थात् सूर्य जगत की आत्मा है। वराह मिहिर ने अपने ज्योतिषशास्त्र में दिनमान का एक नाम “कलात्मा” रखा है, अर्थात् “समय की आत्मा” क्योंकि उनके अनुसार समय का अस्तित्व भौतिक जगत में सूर्य के कारण ही है। यदि प्रभाकर न होता, तो दिन रात, सुबह शाम, पूर्वाह्न मध्याह्न, अपराह्न जैसी वेलाओं का ज्ञान भी मनुष्य को न होता। आप्त वचनों में दिवाकर को “त्रयी तनु” अर्थात् तीन शरीरों वाला-तीन गुणों वाला कहा गया है। इसमें सृष्टि, स्थिति और संहार की तीनों ही क्षमताएँ होती हैं। इसी बात का समर्थन करते हुए डॉ. गोपीनाथ कविराज अपने “सूर्य विज्ञान रहस्य” नामक निबन्ध में लिखते हैं कि सूर्य- रश्मियों से पदार्थों का सृजन, संहार और रक्षा तीनों संभव हैं। इसी के कारण सृष्टि-संरचना शक्य हो सकी है, वही इसे धारण किये हुए है और निरंतर उस ऊर्जा को प्रवाहित करने में निरत है, जिससे यहाँ के जीव-जंतु, वृक्ष-वनस्पति व पदार्थ अपनी सत्ता बनाये हुए हैं और चाहे तो वह अपनी प्रचण्ड ऊष्मा से संसार को-उसके पदार्थ एवं प्राणियों को क्षणमात्र में भस्मसात् कर सकता है।

वैज्ञानिक बताते हैं कि सूर्य वर्तमान में अपने अनुदान की तुलना में अभिशाप-वर्षा अधिक कर रहा है। उनके अनुसार सौर-कलंकों की संख्या और प्रचण्डता आजकल जितनी उग्र व अधिक हुई है, उतनी पहले कदाचित् ही कभी रही हो। विशेषज्ञों के अध्ययनों से पता चला है कि सूर्य-धब्बों का अपना एक ग्यारह वर्षीय चक्र है। इसमें वे नियमित रूप से उगते और डूबते रहते है। इन धब्बों का धरती के पदार्थ और प्राणियों पर सुनिश्चित प्रभाव पड़ता है-इस बात का उल्लेख वराहमिहिर ने अपनी पुस्तक “वृहत्संहिता” में विस्तारपूर्वक किया है। इसे आज के विज्ञान विशारद भी स्वीकार करते हैं। वे यह मानते हैं कि इन दिनों यहाँ के मौसम और पर्यावरण में जो आश्चर्यजनक परिवर्तन आया है, उसमें इन सौर-कलंकों का महत्वपूर्ण हाथ है। डॉ0ए0जी0 पीयर्स ने अपनी पुस्तक “ए टैक्स्ट बुक ऑफ एस्ट्रालॉजी” में लिखा है कि अनेक वर्षों के अध्ययन से यह ज्ञात हुआ है कि सौर-धब्बों की संख्या और गतिविधियाँ बढ़ने-घटने से वर्षा प्रभावित होती है। उनके अनुसार जब ये बढ़ते हैं, तो अनावृष्टि की स्थिति पैदा होते देखी गई है और घटने पर अतिवृष्टि। पीयर्स के तथ्यान्वेषण का समर्थन इन दिनों की परिस्थितियाँ भी कर रही है। आजकल सूखे के कारण भुखमरी की जो विकट स्थिति विश्व के कुछ हिस्सों में पैदा हुई है, वह सर्वविदित है। विशेषकर सूडान एवं अना अफ्रीकी देशों में दशा अत्यन्त दयनीय है। लोग भूख के कारण या तो दम तोड़ रहें हैं अथवा अस्थिपंजर बन कर जीवन की अंतिम सांसें गिनने पर विवश हैं एरिजोना यूनिवर्सिटी के डगलस राइस ने इसी बात को वृक्ष वलियों पर अध्ययन कर सिद्ध करने का प्रयास किया हैं वे कहते हैं कि जिस भाग में वृक्ष-वलियों के बीच की दूरी कम हो, वह यह दर्शाता है कि उन दिनों पेड़ को सूखे का सामना करना पड़ा, जबकि परस्पर की दूरी अधिक होने पर इस बात की सुनिश्चितता होती है कि उस दौरान वनस्पतियोँ को पर्याप्त वर्षा-जल प्राप्त हुआ। उनके अनुसार वनस्पति वाक्यों का सीधा संबंध अनावृष्टि और अतिवृष्टि से है और बरसात (सूर्य का वरुण से गहन संबंध होने के कारण) सौर-कलंकों से गहन तादात्म्य रखती है, अतएव रिंगों की पड़ताल के आधार पर सौर-गतिविधियों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है और लगभग विगत तीन हजार वर्षों का मौसम संबंधी अनुमान लगाया जा सकता है।

पिछले दिनों तक सूर्य एवं दूसरे खगोलीय पिण्डों का प्राणी एवं वनस्पतियों पर प्रभाव ज्योतिषशास्त्र तक सीमित था तथा उसी का विषय माना जाता था, पर अब उस पर वान ने भी अपनी मुहर लगा दी है और यह स्वीकार कर लिया है कि उनका सुनिश्चित असर पदार्थ और प्राणियों पर पड़ता है। इसी आशय का मंतव्य प्रकट करते हुए मूर्धन्य वैज्ञानिक एवं “ब्रिटिश एसोसिएशन फॉर दि एडवांसमेंट ऑफ साइन्स” में लिखते हैं कि हमारे शरीर में जो अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ हैं वह पर्यावरण में होने वाले रासायनिक परिवर्तनों के आधार पर स्वयं को समायोजित करती रहती है और छोटे-मोटे बदलावों से प्रायः अप्रभावित बनी रहती है, किन्तु जब कोई बड़ा परिवर्तन पर्यावरण में घटित होता है, तो वे प्रभावित हुए बिना नहीं रहती हैं। इनके प्रभावित होते ही व्यक्ति की इच्छा, आकाँक्षा, भावना, संवेदना में भारी हेर-फेर दिखाई पड़ने लगता है। सौर-सक्रियता के दौरान चूँकि शरीर-विद्युत और पृथ्वी की चुम्बकीयता में बड़ी उथल-पुथल होने लगती है, अतः शरीर-ग्रंथियों पर उसका निश्चित असर पड़ता है और व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है। विश्व के प्रख्यात भूगोलवेत्ता एवं येल यूनिवर्सिटी के प्रो0 हर्ण्टिगटन भी दीर्घकाल के अपने अध्ययन के उपरांत इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि सौर धब्बों की अवधि में मानवी व्यवहार असामान्य हो जाता है।

प्रख्यात भारतीय ज्योतिर्विद् बी0 वी0 रमण ने अपने ग्रन्थ “प्लैनेटरी इन्फ्लुएनसेज आन ह्ममन अफेयर्स” में कुछ इसी प्रकार के विचार प्रकट किये हैं। वे उक्त पुस्तक के “प्लैनेट्स एण्ड मैन” नामक अध्याय में लिखते हैं कि सन् 1781,1830,1848,1870 की फ्राँसीसी क्राँति तथा 1956 में हंगरह की देशव्यापी उथल-पुथल को सौर-सक्रियता से जाड़ कर आधुनिक वैज्ञानिकों ने वस्तुतः कोई नया अन्वेषण नहीं किया, वरन् वर्षों पूर्व वाराहमिहिर द्वारा स्थापित तथ्य की ही पुनरुक्ति की है। आज की परिस्थितियाँ भी वराहमिहिर के अनुसंधान की पुष्टि करती हैं वर्तमान में विश्वभर में जो भीषण मार-काट, उथल-पुथल और अराजकता मची है उसे असाधारण और अभूतपूर्व ही कहा जा सकता है। ऐसी भयंकर स्थिति संपूर्ण धरा में पहले कभी रही हो, इसका कोई उदाहरण और प्रमाण इतिहास में नहीं मिलता। विज्ञानवेत्ताओं का यह भी कथन है कि इन दिनों सौर धब्बों की जो प्रचण्डता है, वैसी उग्रता पिछले समय में कभी रही हो, इसके भी साक्ष्य उपलब्ध रिकार्डों से प्राप्त नहीं होते। ऐसी स्थिति में यह सुनिश्चित जान पड़ता है कि बढ़ी-चढ़ी सौर लपटों का पृथ्वी के जन-जीवन को अस्त−व्यस्त और क्षतिग्रस्त करने में सीधा हाथ है।

यह सूर्य का एक पहलू हुआ। इसके इस विनाशकारी पक्ष के कारण ही इसका नाम “मार्तण्ड” पड़ा महर्षि गोबिल ने इसका अर्थ करते हुए कहा है कि मार्तण्ड वह है, जो ध्वंस में संलग्न हो। इस दृष्टि से सूर्य का उक्त नाम सार्थक है, किन्तु जो जबत की आत्मा हो, वह ऐसी विनाशलीलाएँ करे, यह बात गले नहीं उतरती और यदि यह सत्य है, तो इसके पीछे का तथ्य क्या हो सकता है? उत्तर विज्ञान का क्रिया-प्रतिक्रिया वाला सिद्धान्त देता है। उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों तक और कुछ हद तक आज भी विज्ञान का बुद्धिवाद समस्त संसार को जड़ मानता रहा और किसी नियामक सत्ता एवं उसकी प्रतिक्रिया अथवा व्यवस्था से सर्वथा इनकार करता रहा हैं एकेश्वरवादियों की तो यह दृढ़ मान्यता है कि इस प्रकृति को मनुष्यों के भोग-विलास के लिए ही भगवान ने विनिर्मित किया है बस फिर क्या था, “ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत्” का लोकायत दर्शन चल पड़ा और जनमानस पर वह इस कदर छाया कि प्रकृति और संसाधनों का बेतरह दोहन आरंभ हो गया। क्रिया जब एक सीमा को पार कर गई, तो निस्र्र ने प्रतिक्रिया दिखानी आरंभ की। सूर्य समेत सभी ग्रह नक्षत्र छेड़े गये भुज्रग की तरह हुँकरने और फुसकारने लगे। दिमान चूँकि सौरमंडल का सबसे समर्थ और धरती से समीप का तारा है, अतः अन्यों की तुलना में उसकी प्रतिक्रिया भी अधिक दुर्द्धर्ष दिखाई पड़ी। प्रसिद्ध खगोलशास्त्री स्टीटसन के अनुसार आजकल सूर्य से पराबैगनी किरणें पहले की तुलना में 30 प्रतिशत अधिक निःसृत हो रही हैं। वे कहते हैं कि इसका यह असाधारण परिमाण ही प्रस्तुत समय और समाज में व्यतिक्रम के लिए जिम्मेदार है। उनका कथन है की यदि उक्त मात्रा में 5 प्रतिशत की भी कमी हो जाय, तो मनुष्य मौसम के व्यवहार में सुधार की काफी संभावना हो सकती है।

यह तो वैज्ञानिकों का अनुमान है। अध्यात्मवादियों की दृष्टि में यह अनुमान मूर्तिमान तब तक नहीं हो सकता, जब तक चिंतन और कर्तृत्व में बदलाव नहीं आ जाय। उनके अनुसार मनुष्य जब तक बुद्धिवाद और जड़वाद का पल्ला पकड़े रहेगा, तब तक उसे ऐसी ही विसंगतियों व विपदाओं का सामना करना पड़ेगा। उबार तो इनसे अध्यात्मवादी दृष्टिकोण ही सकता है। ज्ञातव्य है कि भारतीय संस्कृति में जड़ में भी चेतन की उपस्थिति की अवधारणा है। इस आधार पर प्राचीन समय में समस्त ग्रह-पिण्डों को देवता माना और पूजा जाता था। कालक्रम में विज्ञान का जैसे-जैसे विकास हुआ, उसने जनमानस की इस श्रद्धा को अंधभक्ति कहकर तोड़ दिया। चन्द्रमा, मंगल, बुध व बृहस्पति पर उसने अपने यान एवं उपग्रह भेजे और प्रकारान्तर से यही सिद्ध किया कि वे कोई देवता नहीं वरन् वीरान और बंजर भूखण्ड मात्र हैं आस्था टूटी, तो उन्हें उपसाय मानने की परंपरा भी धीरे-धीरे समाप्त होती हुई लुप्त हो गई। फलतः प्रतिदिन जो अर्घ्य ओर यजन की आहुतियाँ श्रद्धासिक्त हृदय से वे पाते थे, वह मिलने बंद हो गये। परिणाम हमारे सामने हैं जिन उपक्रमों से वातावरण पुष्ट और देवता तुष्ट होते थे, जब वे ही विहित माने जाने लगे,देवों से अनुदान की आशा कैसे की जाय? स्थिति यहीं तक सीमित होती, तो किसी कद संतोष किया जा सकता था, किन्तु जड़वाद ने जनमानस की निष्ठा को इस हद तक नष्ट-भ्रष्ट किया कि प्रणेताओं और अनुयायियों की स्वयं की बुद्धि भी जड़ हो गई। वे यह भूल गये कि तथाकथित जड़ भी एक सीमा तक ही छेड़छाड़ बरदाश्त करते हैं। इसके उपरांत अपनी प्रतिक्रिया दिखाना प्रारंभ कर देते हैं। बस, इसी त्रुटि ने उन्हें प्रकृति से छेड़खानी के लिए प्रोत्साहित किया और आज वह चरमोत्कर्ष पर है। इसकी दुःखद परिणति भी निसर्ग के-खगोलीय पिण्डों के कोण के रूप में हमारे सम्मुख है। व अब अनुदान की जगह अभिशाप बरसाते अधिक देखे जा रहें है। विशेषकर सूर्य के संबंध में विशेषज्ञों की यह मान्यता दृढ़ हुई है कि इन दिनों वह ज्यादा कुपित हो गया है। क्रोध का शमन प्रसन्नता से ही हो सकता है। समस्त धरित्री का हित इसी में है कि हम सूर्य के साथ समस्त प्रकृति के साथ छेड़छाड़ बन्द करें, श्रद्धाभाव रखें-नियमित अर्घ्य व आहुति दें। सही अर्थों में तभी हमारी मानी जायेगी। अनुदान प्राप्ति का यही एकमात्र साधन है इसकी आवश्यकता और महत्ता समझी जानी चाहिए।


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