जल्दी आ धमकने वाला वार्द्धक्य

July 1993

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बुढ़ापा इन दिनों इतनी जल्दी क्यों आ धमकता है? आयु कम होते हुए भी शरीर अशक्त-असमर्थ जैसी स्थिति में किस कारण आ जाता है? यदि यह वार्धक्य है, तो इसे रोकने के उपाय-उपचार क्या हो सकते है? इस संदर्भ की शोध आज विश्व भर की अनेक अनुसंधानशालाओं में हो रही है। वैज्ञानिक इसके कारण और निवारण ढूँढ़ने के लिए प्रयासरत है।

आस्ट्रिया के जरा अनुसंधान अकादमी के शोधकर्मियों ने इस संबंध में सर्वथा नये तथ्यों का पता लगाया हैं उनका कहना है कि आज जिस गति से समस्त संसार में पर्यावरण-प्रदूषण फैल रहा है और संपूर्ण निसर्ग विषाक्त बन रहा है, उसी का दुष्परिणाम मनुष्य समुदाय को भी असामयिक बुढ़ापे के रूप में भुगतान पड़ रहा है। वे कहते हैं कि पिछले 50 वर्षों में विषैले पदार्थ वायु, मिट्टी, पानी में इस तेजी से बढ़े हैं कि उसी अनुपात में उसी रफ्तार से मानवी आयु में घटोत्तरी देखी गई हैं। उनके मानवी आयु में घटोत्तरी देखी गई है। उनके अनुसार आजकल मियादी आयु (क्रोनोलॉजिकल एज) के कम होते हुए भी कायिक आयु (बायोलॉजिकल एज) के बढ़े-चढ़े दिखाई पड़ने के पीछे यही प्रमुख कारण है। उनका कथन है कि बालों का झड़ना, सफेद होना झुर्रियां पड़ना रोगग्रस्त हो जाना इनका सबसे बड़ा और प्रमुख कारण वर्तमान का विषैला वातावरण है। इसी के फलस्वरूप जब कभी कोशिकाओं में म्यूटेशन की क्रिया किसी प्रकार आरंभ हो जाती है, तो ऐसी असमानताएं शरीर में उत्पन्न हो जाती हैं, जो काया को रुग्ण और व्यक्ति को अस्वस्थ बना देती हैं। इस प्रकार अल्प वय में ही व्यक्ति ऐसे रोगों के चंगुल में आ फँसता है, जिनसे मरने के उपरान्त ही वह मुक्त हो पाता है।

दूसरे वर्ग के अनुसंधान कर्ताओं के अनुसार ऐसा होता तो प्रदूषण के कारण ही है, पर वे इसका निमित्त महत्वपूर्ण अणुओं के बीच बन्ध (बौण्ड) निर्माण को मानते हैं। बड़े पैमाने पर जब ऐसे बन्धों की रचना होती है, तो फिर कोशिकाएँ आगे अपना स्वाभाविक क्रियाकलाप जारी नहीं रख पातीं, परिणामस्वरूप अनेक विसंगतियाँ उठ खड़ी होती है।

बुढ़ापे के कारणों पर विस्तृत अध्ययन अल्बर्ट आइंस्टीन आयुर्विज्ञान महाविद्यालय, अमेरिका मेंटल हेल्थ फाउण्डेशन, लंदन-एवं यूरोपीय अनुसंधान विश्वविद्यालय, स्विट्जरलैंड की अन्वेषणशालाओं में भी पिछले दिनों बड़े पैमाने पर हुए है। उन्होंने इस अध्ययन में “पोजिट्रान एमीशन टोमोग्राफी” नामक विशिष्ट तकनीक का प्रयोग किया है। उनका कहना है कि शरीर कोशाओं की संख्या में ह्रास और उनकी जीवन-अवधि में कमी आना ही शायद बुढ़ापे का मुख्य कारण हो। उनका यह भी कथन है कि उम्र के साथ-साथ शरीर की ताप नियंत्रक क्षमता में कमी आने लगती है, जिससे बूढ़ों में सर्दी अथवा गर्मी सहने की सामर्थ्य घट जाती हैं। इस स्थिति में विटामिन “डी” की कमी के कारण हड्डियाँ भी कमजोर पड़ने लगती है। वृद्धावस्था में शरीर प्रतिरोधी क्षमता में ह्रास को शरीर विज्ञानी अस्थायी बताते हैं और कहते हैं कि एण्टीआक्सीडैण्ट के प्रयोग से इन्हें दूर किया जा सकता है। वार्धक्यावस्था में हृदय रोग और पक्षाघात की रोकथाम के लिए वैज्ञानिक रक्तचाप के नियंत्रण पर जोर देते एवं पेशियों को सक्रिय व सुगठित बनाये रखने के लिए हलके व्यायाम को लाभप्रद बताते हैं। प्राणायाम को एण्टी ऑक्सीडेण्ट माना जाता है।

अन्य समुदाय के वैज्ञानिकों का विश्वास है कि वार्धक्य की असामयिक उपस्थिति शरीर-रसायनों की सक्रियता में आने वाली कमी के कारण होती है। उल्लेखनीय है कि हमारे शरीर में मस्तिष्क एवं दूसरे अवयवों की कोशाओं में काफी भिन्नता होती है। विशेषज्ञों के अनुसार रासायनिक सक्रियता में आयी कमी का प्रथम प्रभाव अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील दिमागी कोशाओं में उत्पन्न होता है। बाद में यह असर शरीर के दूसरे भागों में संचारित होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार मस्तिष्कीय सेलों में परस्पर संदेश-विनिमय का एक प्रमुख आधार एसीटाइलकोलीन नामक एक रासायनिक यौगिक है। एण्टीबॉडी निर्माण के कारण जब इसकी सक्रियता समाप्त हो जाती है, तो शरीरशास्त्रियों के अनुसार हाथ-पैरों की माँसपेशियाँ ढीली पड़ जाती है। उनका खिंचवा खत्म हो जाने के कारण वह शरीर में लटकने लगती हैं। पेशियाँ शिथिल पड़ जाने के कारण हाथ-पैर काँपने लग जाते हैं। जब ऐसी स्थिति पैदा होने लगती है, तो शरीर विज्ञान में उसे बुढ़ापा मान लिया जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि रचना-विज्ञान में उसे बुढ़ापा मान लिया जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि रचना-विज्ञान के हिसाब से यह अवस्था आयु के उत्तरार्ध में आनी चाहिए। जबकि शरीर रसायनों का उत्पादन कम और निष्क्रियता अधिक बढ़ने लगती है, अतएव उसे वार्धक्य स्वीकार लिया जाता है। किन्हीं कारणों से यह स्थिति समय से पहले पैदा हो जाय, तो वह भी बुढ़ापा ही कहलायेगा। इसलिए इन दिनों अकाल पैदा होने वाले इन लक्षणों को लोक प्रचलन में वृद्धावस्था मान लिया गया है।

यों स्मरण-शक्ति की न्यूनता भी इसका एक प्रधान लक्षण माना जाता है। यह लक्षण क्यों प्रकट होता है? इसके जवाब में शोधकर्मी बताते हैं कि वैसे तो इसका जवाब में शोधकर्मी बताते हैं कि वैसे तो इसका प्रकट कारण कार्टेक्स वाले हिस्से में तंत्रिका सेलों एवं हर एक सेल के चारों ओर पायी जाने वाली अनेक सहायक कोशिकाओं की संख्या में दृष्टिगोचर होने वाली कमी है, पर विशेषज्ञ तंत्रिका-तंतुओं में पड़ जाने वाले फंदों को भी इसका एक मुख्य कारण मानते हैं। वे बताते हैं कि प्रदूषित वातावरण के कारण जब शरीर में एल्युमिनियम का जमाव एक सीमा से अधिक बढ़ जाता है, तो तंत्रिका-फंदों की रचना के साथ-साथ स्मृति में लोप दिखाई पड़ने लगता है।

कीव इन्स्टीट्यूट ऑफ जेरेंटोलॉजी के वैज्ञानिकों ने भी इस दिशा में सराहनीय कार्य किये हैं। शोधदल के अध्यक्ष व्लादिमिर फ्रोलकिस का मानना है कि हमारे अंगों में उपस्थित होने वाले वार्धक्य संबंधी लक्षणों का एक महत्वपूर्ण कारण तत्संबंधी प्रणालियों के नियंत्रक जीन में आने वाली असमर्थता है। इसी जीन के कारण कार्यक्षमता घटने लगती है और कम वय में अधिक उम्र का भ्रम पैदा होता है।

बुढ़ापे के यह पदार्थ विज्ञान संबंधी शोध-अनुसंधान हुए। यों इनकी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। अपने स्थान पर ये भी महत्वपूर्ण हैं, पर अध्यात्म विज्ञान की इस संदर्भ में सर्वथा विपरीत मान्यता है। उसके अनुसार वातावरण भी उन्हीं शरीरों को प्रभावित करता है, जो कमजोर होते हैं। वीर्यवान-प्राणवान काया के आगे उनकी भी नहीं चलती दुनिया उन्हीं को सताती है, जो सीधे-सादे अथवा असमर्थ होते हैं। सामर्थ्यवान दस्युओं के गिरोह के सम्मुख तो शरीरवान पहलवानों का झुण्ड भी सहम जाता है। उनका सामना तो तद्नुरूप साहस और साधन जुटा कर ही किया जा सकता है। इन दिनों जनसामान्य का कायकलेवर बढ़ते असंयम के कारण भीतर से इतना खोखला हो गया है, कि बाहर से स्वस्थ-सुन्दर दीखते हुए भी प्रतिकूलता का एक सामान्य झोंका भी बर्दाश्त नहीं कर पाता व बीमार हो जाता है। इसके विपरीत जीवनी-शक्ति संपन्न लोग पर्यावरण के दुष्प्रभाव को सहजतापूर्वक झेल जाते हैं। यदि विचार-संयम, आहार-संयम एवं इन्द्रिय-संयम, का कठोरतापूर्वक निर्वाह किया जाय, तो कोई कारण नहीं कि काया को समर्थता और सशक्तता ही प्रदान करने वाली प्राण-ऊर्जा को अक्षुण्ण न रखा जा सके और उन विसंगतियों का सामना न किया जा सके, जो इन दिनों पर्यावरण प्रदूषण के रूप में विश्वव्यापी बनी हुई है। ध्यान-धारणा, उपासना एवं प्राणायाम द्वारा भी उक्त उद्देश्य की पूर्ति काफी अंशों में की जा सकती है, पर संयम के अभाव और प्रमाद के प्रभाव में ये उपचार भी निराशाजनक ही सिद्ध होंगे और लकीर पीटने की परम्परा बन कर रद्द जायेंगे। रासायनिक प्रतिक्रियाओं में उत्प्रेरकों के प्रयोजन इसी स्तर के होते हैं। आयुर्वेद में यदि पथ्य-कुपथ्य का ध्यान न रक्षा गया, तो उपयुक्त औषधि भी कुछ करने में असमर्थ ही साबित होती है। अतः ध्यान-धारणा, उपासना जैसी आध्यात्मिक क्रियाओं की समग्रता तब बन पड़ती है, जब उनके साथ संयम का अनुपान भी संयुक्त हो। यदि उक्त प्रक्रिया का निष्ठापूर्वक परिपालन किया जाय, तो न हम सिर्फ स्वस्थ, सबल रह सकेंगे, वरन् उन लक्षणों के लिए भी प्रबल प्रतिरोध प्रमाणित होंगे, जिन्हें इन दिनों बुढ़ापा अथवा वार्धक्य के रूप में देखा-समझा जाता है।


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