शूद्र ऋषि बना

July 1993

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दिन ढला और उसके साथ कवष की संपूर्ण आशाएँ भी ढल गई। प्रातः काल जब वह द्यूत क्रीड़ा के लिए बैठा था तब उसकी उमंगों का काई ठिकाना न था। दिन भर जन्म ओर मृत्यु की तरह हार और जीत के ज्वार-भाटे आते रहे और कवष उनमें कागज की नाव की तरह तिरता-उतराता रहा। अन्ततः पासे ऐसे पलटे कि नाव झकझोरे पर झकझोरे खाती गई। सूर्यदेव के अस्त होने की तरह वह भी पराजय के अनन्त सागर में डूबे गई। कवष उस दिन अपना सर्वस्व जुए में हार गया।

हारे हुए जुआरी की दैन्य दशा की उपमा दी जाती है। फिर जो सचमुच अपना सब कुछ जुए में ही हार गया हो उसकी दीनता का तो कहना ही क्या? कवष के लिए आज का दिन और दिनों की तरह न था। पहले भी वह कई बार हारा भी पर तब तक उसके पास साधनों का अभाव नहीं हुआ था। आज तो उसने अपनी संपत्ति के नाम का एक तिनका तक न छोड़ा था। जुआरी की क्या दुर्दशा होती है, यह उस दिन कोई कवषे पूछता तो वह संभवतः इस विषय पर सबसे अच्छा और प्रीवोत्पादक व्याख्यान प्रस्तुत कर सकता था। पर उस घड़ी तो उसके लिए यह संसार उस श्मशान की तरह लग रहा था, जिसमें पच्चीसों शव एक साथ दाह किए गए हों और अब वहाँ शृंगाल-भेड़ियों के अतिरिक्त और कुछ शेष न रहा हो। ऐसी व्यथित मनः स्थिति में जब वह घर की ओर चला तो मार्ग में ही उसे अपना पुत्र पड़ा मिल गया। ज्वर से पीड़ित किशोर बालक को औषधि मिलना तो दूर आज लगाता पांचवें दिन उसे आध पाव दूध के भी दर्शन न हुए थे। इस आशा से वह वन की ओर चला था कि वहाँ आमला और गूलरें मिल जाएँगी, उनसे वह अपना पेट भर लेगा। साथ ही भूखी बहन और पीड़ित माँ के लिए भी कुछ फल लेता जाएगा। किन्तु टूटी, थकी जर्जर काया ने साथ ही नहीं दिया। गाँव से बाहर आते ही बालक मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा।

कवष को पुत्र की इस करुणा-जनित स्थिति का उतना दुःख नहीं हुआ जितना अपने अधःपतित जीवन पर पश्चाताप। संतप्त हृदय से बच्चे को गोद में उठाकर कवष घर पहुँचा तो वह घर जो आज से कुछ वर्ष पूर्व सावन के खेतों की तरह लहलहाता दृष्टिगोचर होता था, ज्येष्ठ की तपती दोपहर सा दिखाई दिया जिसमें हरियाली नाम मात्र को ही रह जाती। ज्वाला ही ज्वाला तपन। पत्नी और पुत्री के जीर्ण शरीर को देखकर कवष का हृदय हाहाकार से भर गया।

उसने एक मिट्टी के फूटे बर्तन से थोड़ा जल लिया। चुल्लू भरी आँख मूँदी ऐसा लगा उसने कुछ कहा और वह जल धरती पर छिड़क दिया। धरती माता के पाँव स्पर्श कर कवष ने अपनी भूखी पत्नी और पुत्री को जल पिलाया और उन्हें लिटाकर एक ओर चुपचाप निकल गया।

कवष बदल गया। दूसरे दिन सारे गाँव में चर्चा फैल गई- “कवष का हृदय परिवर्तन हो गया है।” इसके बाद उसे किसी ने जुआ खेलते, माँस खाते नहीं देखा।

ईलुष का पुत्र कवष शुद्र योनि में जन्मा था। उसमें वह सभी दुर्गुण थे जिनके कारण उस युग में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न व्यक्ति को भी शुद्र ठहरा कर उसे बहिष्कृत कर दिया जाता था। यह भी था कि जो इस प्रकार अन्त्यज श्रेणी से अपने आपको उठाकर श्रेष्ठ आचरण करने लगते थे, वे शूद्र भी उच्च वर्ण में ले लिए जाते थे।

कवष ने निश्चय कर लिया अब वह सारे बुरे कर्म धो डालेगा और अपनी अन्तरात्मा को निर्मल बनाकर एक सद्गृहस्थ का जीवन जियेगा। उसके इस संकल्प में इतनी शक्ति थी कि वेदव्यास को उसके इस निर्णय को ऋचा के रूप में स्थान देना पड़ा। अच्छाई का अनुकरण करने वाले हजारों लोगों के हृदय बदल डाले। उसके इस आदर्श का सर्वत्र सम्मान किया गया।

अप्रतिम सामाजिक सम्मान और ऋग्वेद के ऋषि मण्डल में अपना स्थान बनाकर कवष को वैसे ही अहंकार हो गया जिस प्रकार वर्षा ऋतु में छोटे-छोटे नाले-नदी का रूप धारण कर इतराते हुए बह निकलने हैं ऋषियों ने एक परम्परा बनाई थी कि जो अपनी निष्ठा को अधिकतम बलवान सिद्ध कर सकता है और अंतिम सिद्धि प्राप्ति तक साधना करने का साहस व्यक्त कर सकता है, सन्त और ऋषि बनने का अधिकारी भी वहीं बन सकता है। उत्तराधिकार में पाया हुआ धन और बिना परिश्रम हुआ सम्मान व्यक्ति के अहंकार को बढ़ाकर उसके पतन का ही कारण बनता है। इसलिए दूरदर्शी ऋषि भला ऐसी झूठी सिद्धि और सम्मान को क्यों महत्व देते? कवष ने नेकी का मार्ग अपनाया था। उसके लिए सराहा जाना अपनाया था। उसके लिए सराहा जाना उचित ही नहीं अनिवार्य भी था। सामाजिक जीवन में अच्छाइयों की बेल सम्मान और फलती-फूलती है। पर इतना नहीं कि वह आत्म कल्याण और लोकहित संपादन के लिए अपनी अब तक की योग्यता को पर्याप्त मानकर पाँडित्य का झूठा प्रदर्शन करने लगता।

कवष के साथ कुछ ऐसा ही हुआ उन दिनों कुरुक्षेत्र में भगवती सरस्वती के पावन तट पर विशाल यज्ञ सरस्वती के पावन तट पर विशाल यज्ञ का आयोजन हुआ। कवष बिना किसी प्रकार का निमंत्रण पाये उसमें सम्मिलित हुआ। बात इतने तक सीमित होती तो भी ठीक थी, उसने वहाँ जाकर अपने झूठे पाँडित्य का उद्धत प्रदर्शन कर डाला। ऋषिगण इस व्यवहार से बहुत क्षुब्ध हुए। उन्होंने कवष को बाहर निकलवा दिया और रेतीली मरु भूमि में छोड़ देने का दण्ड दिया।

इतना करने के बाद भी ऋषियों उसका संरक्षण नहीं छोड़ा। वे जानते थे कि उसमें साधना के बीज अंकुरित हो उठे हैं। यदि उसे तप करने का अवसर मिले तो वह बीज बढ़कर वृक्ष का रूप ले सकते हैं। यह दंड-जान-बूझकर इसी उद्देश्य आत्म प्रतिभा का विकास कराना ही होता था।

वह अन्त्यज जीवन के कष्ट पहले ही भुगत चुका था। उस पर उसे जुए ने और पीड़ित एवं प्रताड़ित किया था। किसी तरह साहस करके उससे मुक्ति ली और सभ्य एवं सुसंस्कृत जीवनयापन करना प्रारंभ किया। इस तरह उसने वर्षों से खोते हुए पारिवारिक सामाजिक एवं राष्ट्रीय सम्मान को अर्जित किया था। पर अब पुनः उसकी स्थिति राजगद्दी पर बैठा कर राज्य से निकाल दिए गए राजा की सी थी। जोन तो अपने आप पर गर्व कर सकता था न भविष्य के प्रति आशावान्। उसकी आँखों के आगे फिर, उस दिन वह अपना सर्वस्व जुए के दाँव पर हार कर एक-एक कौड़ी का भिखारी बन गया था।

अंतर्दाह से पीड़ित कवष के आगे अब इसके अतिरिक्त कोई चारा नहीं रह गया था कि वह अपनी व्यथा-परमपिता परमात्मा के समक्ष खोलकर रख दे। आज कई दिनों से उसे तृषा व्याकुल कर रही थी। पूर्ण निष्कलुष हृदय से कवष ने भगवान् वरुण देव से प्रार्थना की। इन्द्र और मरुद्गणों से सहायता की याचना की। भौतिक दृष्टि से न वहाँ कोई साधन था और न सहायक उपलब्ध थे। ऐसे समय ईश्वरीय शक्तियों के अतिरिक्त उसकी आवाज को सुनता भी कौन?

आज उसकी आत्मा पूर्ण निष्कलुष थी। मन का मैल धुल चुका था। अभिमान निकल कर जा चुका था। अपनी भावनाएँ और ईश्वरीय सत्ता के अतिरिक्त उस मरुस्थल में कवष को कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। भावनाएँ उमड़ती ही गई आत्म शक्ति का प्रकाश विस्तार लेता ही गया और वरुण देव, मरुद्गण, एवं भगवान इंद्र को अब आना ही पड़ा। वे अपने प्रिय उपासक की सहायतार्थ मेघ लेकर दौड़े। देखते ही देखते मरुस्थल में सघन बादल छा गये। वर्षा होने लगी। कवष की तृषा के साथ उसका ब्रह्म दर्शन का भाव भी तृप्त हो गया।

ऋषि जो अब तक यह दृश्य दूर से देख रहे थे पास आये। कवष अपने देह भाव को त्याग कर आत्म जगत में प्रवेश कर गया। वह अब तक भावावेश में ही था। ऋषियों ने उसे “उठो महर्षि कवष”कहकर हृदय से लगा लिया। और एक बार फिर एक शुद्र के ऋषि बन जाने की बात सारे देश में गूँज गई।


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