विक्रमादित्य ने चौथेपन में संन्यास ले लिया और वे अवधूत जीवन व्यतीत करने लगे। उनके स्थान पर जो भी राजा बैठता, उसे भयंकर ब्रह्मराक्षस रात्रि के समय मार डालता। इस प्रकार कितने ही राजाओं की मृत्यु हो गयी। भेद कुछ खुलता न था। सो कहीं से विक्रमादित्य के खोज निकालने और उनसे मार्ग निकलवाने का निश्चय किया गया। खोजने पर वे एक स्थान पर मिल भी गये। सारी स्थिति समझाई गयी और उन्हें गुत्थी सुलझा देने के लिए सहमत कर लिया गया।
विक्रमादित्य ने अपनी दिव्यदृष्टि से ब्रह्मराक्षस की करतूत समझ ली। उनने शयनकक्ष से बाहर इतने पकवान-मिष्ठान्न रखवा दिये कि उन्हें खाकर उसका पेट भर गया। फिर भी राजा को मारने के लिए शयनकक्ष में आ पहुँचा।
विक्रमादित्य बड़े बुद्धिमान थे। उनने ब्रह्मराक्षस को सम्मानपूर्वक बिठाया और वार्त्तालाप में लगाया। उससे उसकी शक्तियाँ और सिद्धियाँ पूछी। राजा ने उसकी भूख बुझाने का अधिक उपयुक्त प्रबंध करा देने का भी आश्वासन दिया। साथ ही मित्रता की शर्त रूप में यह वर माँगा कि उनकी आयु बता दें। ब्रह्मराक्षस ने 100 वर्ष बतायी है। राजा ने कहा-इनमें से आप दस घटा या बढ़ा सकते हैं क्या? उसने मना कर दिया और कहा यह कार्य विधाता का है।
विक्रमादित्य तलवार निकालकर खड़े हो गये और कहा जब आयु निर्धारित है, तो तुम मुझे कैसे मार सकते हो? निर्भय राजा के सामने राक्षस सहम गया और यहाँ से उलटे पैरों भाग खड़ा हुआ। इसके बाद राजगृह में प्रवेश करने का साहस उसने कभी भी नहीं किया।