वैयक्तिक शक्ति से परे, सनातन सत्ता को यदि स्वीकार न करें तो इसे हमारा अहंकार न करें तो इसे हमारा अहंकार ही माना जायगा। यह भूल मनुष्य को करनी भी नहीं चाहिए।इस सृष्टि के कण-कण का विधान परमात्मा के हाथ में हैं। उसे चाहे अटल नियम कहें बात एक ही है। उसे मानना अवश्य पड़ता है, उसे माने बिना मनुष्य को न तो विश्राम मिलता है, न अहंकार ही छूट जाता है। बुद्धि भी भ्रमित रहती है।
किन्तु मनुष्य का निज का भी अपने भाग्य विधान से कुछ संबंध अवश्य है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मनुष्य स्वाधीन नहीं है, उसका जीवन परमात्मा के विधान के अनुसार ही चलता है। न्याय की दृष्टि से उसका विधान भी है। ईश्वर ने कर्म-फल का एक सुदृढ़ नियम बना दिया है इसी के अनुसार मनुष्य का भाग्य बनता बिगड़ता है।
भ्रम इस बात से पैदा हो जाता है कि कई बार प्रत्यक्ष रूप से कर्म करने पर भी विपरीत परिणाम प्राप्त हो जाते हैं, तो लोग उसे भाग्य-चक्र मानकर परमात्मा को दोष देने लगते हैं। किन्तु यह भाग्य तो अपने पूर्व संचित कर्मों का ही परिणाम है। मनुष्य जीवन के विराट् रूप की कल्पना की गई है और एक जीवन का दूसरे जीवन से संस्कार-जन्य संबंध माना गया है। इस दृष्टि से भी जिसे आज भाग्य कहकर पुकारते हैं वह भी कल के अपने ही कर्म का परिणाम है। सृष्टि के प्राणियों में चेष्टा न हो तो अब तक जो ऐतिहासिक विकास हुआ है उसकी कल्पना न की जा सकती थी।
भाग्य का रोना-रोने का अर्थ तो इतना ही समझ में आता है कि हम अपने कर्म के लिये सचेत नहीं हो पाये हैं। अपनी शक्तियों का दुरुपयोग “अब नहीं” तब” किया था, जिसका कटु आघात भोगना पड़ रहा है। पर प्राकृतिक विधान के अनुसार तो यह भाग्य अपनी ही रचना है। अपनी ही किए हुए का प्रतिफल है। मनुष्य भाग्य के वश में नहीं है, उसका निर्माता मनुष्य स्वयं है। परमात्मा के न्याय में अभेद देखें तो यही बात पुष्ट होती है कि भाग्य स्वयं हमारे द्वारा अपने को संपन्न करता है उसका स्वतंत्र अस्तित्व कुछ भी नहीं है।
वास्तव में हमें शिक्षा लेनी चाहिए कि कर्म-फल ऊर्जा की तरह किसी भी दशा में नष्ट नहीं होता। किसी न किसी समय वह अवश्य सामने आता है। विवशतावश उस समय उसे भले ही भाग्य कहकर टाल दिया जाय पर इससे कर्म-फल का सिद्धान्त तो नहीं मिट सकता। हम जैसा करेंगे वैसा ही तो भरेंगे। यदि स्वेच्छापूर्वक परमात्मा ही जिसे जो जी चाहे देने लगे तो इस सृष्टि की सारी न्याय-व्यवस्था बिगड़ जायेगी। हम उस स्वतंत्रता को किस तरह काम में लावें यह एक अलग बात है किन्तु अपना कल्याण करने का अधिकार हमें ही है। न इसके लिये किसी को दोषी ठहराया जा सकता है और न किसी के भरोसे ही बैठा जा सकता है।
अपने सुख-दुख, उन्नति-अवनति, कल्याण- अकल्याण, स्वर्ग और नर्क का कारण मनुष्य स्वयं है फिर दुःख या आपत्ति के समय भाग्य के नाम पर संतोष कर लेना और भावी सुधार के प्रति अकर्मण्य बन जाना ठीक नहीं है।
ऐसी स्थिति आने पर तो हमें यह अनुभव करना चाहिए कि हम से जरूर कोई भूल हुई है और उस पर पश्चाताप करना चाहिए।
एक उदाहरण लें। संयम न रखने के कारण आपका स्वास्थ्य गिर गया है। शरीर में ऋतु-परिवर्तन को भी बरदाश्त करने की शक्ति नहीं रही, थोड़ी सी असावधानी से कभी पेट में गड़बड़ी पैदा हो जाती है, कभी सर दर्द करता है, जुकाम हो जाता है, सर्दी लग जाती है। आप कहेंगे क्या करें हमारा भाग्य ही खराब है वस्तुतः यह भाग्य का खेल नहीं है। आप थोड़ा सा भी निष्पक्षता और कठोर सत्य की साक्षी में विचार करें तो आप यह मानने के लिये विवश होंगे कि आपने असंयम के कारण ही वह स्थिति बना ली है जिसके कारण आपको इन कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। यदि आप संकल्प से काम लें, जिह्वा तथा कामेंद्रिय पर कसकर अंकुश लगाकर रखें तो आपका खोया हुआ स्वास्थ्य फिर से वापस आ सकता है। पाना या खोना भाग्य के हाथ की बात नहीं है। वह तो मनुष्य के पौरुष-अपौरुष का फल है। इसे ही बाद में चाहें तो भाग्य कह सकते हैं।
दूसरे व्यक्ति अपने पास के साधन को देखकर ईर्ष्या से जलता रहते हैं। सोचते हैं, यह व्यक्ति कितना भाग्यशाली है। भगवान ने उसे मोटर दी है, रहने के लिये सुसज्जित सभी कुछ है। धन से तिजोरियाँ भरी पड़ी हैं, किन्तु अपना तो जीवन ही कठिनाई से बीतता है। बड़ा कष्ट है। एक-एक पैसे के लिए दूसरों का मुँह ताकना पड़ता है। सच है, आप बड़ी मुसीबत में है, किन्तु दरअसल क्या आप उन गहराइयों में गए है, जिसके कारण आप निर्धन है। संसार के 60 प्रतिशत से भी अधिक व्यक्ति विधिवत् खाते-कमाते हैं। आप ही क्यों परेशान है? आप देखिए आपके जीवन में जरूर कहीं आलस्य, अकर्मण्यता, निरुद्योगता का चोर छुपा हुआ है। इसे भगाइये इस दुष्ट ने ही आपको निर्धन बनाया है। भगवान को तो आप नाहक कोसते हैं। महान विचारक बायरन ने कहा है-भाग्य साहसी और कर्मठ व्यक्ति की सहायता करता है। डिजरायली का भी ऐसा ही मत है- हम अपना ऐश्वर्य स्वयं बनाते हैं और उसी को अपना भाग्य कहते हैं।
भाग्यवाद का नाम लेकर अपने जीवन में निराशा निरुत्साह के लिये स्थान मत दीजिये। आपका गौरव निरंतर आगे बढ़ते रहने में है। भगवान् का वरद-हस्त सदैव आपके मस्तक पर है। वह तो आपका पिता, अभिभावक, संरक्षक, पालक सभी कुछ है। उसकी अकृपा आप पर भला क्यों होगी? क्या यह सच नहीं है कि उसने आपको यह अमूल्य मनुष्य शरीर दिया है। बुद्धि दी है, विवेक दिया है। कुछ अपनी इन शक्तियों से भी काम लीजिये, देखिए आपका भाग्य सदैव पुरुषार्थी का ही साथ देता है।
परिस्थितिवश यदि प्रयत्न के करने पर भी आपको उचित सफलता नहीं मिली तो आप इसे अपने पूर्वकृत कर्मों का फल मानकर तात्कालिक संतोष प्राप्त कर सकते हैं किन्तु अपने प्रयत्नों को यों ही ढीला मत छोड़िए। आज जो कर लेंगे, वही तो कल भाग्य बनेगा। कल आप अधिक सुख प्राप्त करें, इसकी तैयारी आज नहीं करेंगे, कब करेंगे? प्राणी की प्रकृति ही उसके कर्मों का कारण कही जाती है, इसलिये आज अपनी विश्वास शक्ति को जगाकर अपने जीवन के सद्गुणों को बढ़ाने का प्रयत्न कीजिये। इससे आपका भावी जीवन निश्चय ही सुखी तथा समुन्नत हो सकेगा।
कर्म चाहे वह आज के हों अथवा पूर्व जीवन के उनका फल असंदिग्ध है। परिणाम से मनुष्य बच नहीं सकता। दुष्कर्मों का भोग जिस तरह हो भोगना ही पड़ता है, शुभ कर्मों से उसी तरह श्री-सौभाग्य और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। यह सुअवसर जिसे उपलब्ध हो वही सच्चा भाग्यशाली है और इसके लिये