निराशा एक भ्राँति, जीवन उल्लास है।

July 1993

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जीवन का अर्थ है- सक्रियता, उल्लास, प्रफुल्लता। निराशा का परिणाम होता है-निष्क्रियता, हताशा, भय उद्विग्नता और अशान्ति। जीवन है प्रवाह जबकि निराशा है सड़न। जीवन पुष्प आशा की उष्ण किरणों के स्पर्श से खिलता है, निराशा का तुषार उसे कुम्हलाने को बाध्य करता है। निराशा एक भ्राँति के अतिरिक्त और कुछ नहीं।

आज तक ऐसा कोई व्यक्ति पैदा नहीं हुआ, जिसके जीवन में विपत्तियाँ और विफलतायें न आयी हों। संसार चक्र किसी एक व्यक्ति की इच्छा के संकेतों पर गतिशील नहीं है। वह अपनी चाल चलता है। इसके अलग-अलग धागों के बीच व्यक्तियों का अपना एक निजी संसार होता है। चक्र की गति के साथ आरोह-अवरोह अनिवार्य है, अवश्यंभावी है। उस समय सम्मुख उपस्थित परिस्थितियों का निदान-उपचार भी आवश्यक है पर उसके कारण कुँठित हो जाना व्यक्ति के जीवन की एक हास्यास्पद प्रवृत्ति मात्र है। उसका विश्व गति से कोई भी तालमेल नहीं। निराशा व्यक्ति का अपना ही एक मनमाना और आत्मघाती उत्पादन हैं। ईश्वर की सृष्टि में वह एक विजातीय तत्व है। इसीलिए निराशा का कोई भी स्वागत करने वाला नहीं।

निराशा, सोचने की त्रुटिपूर्ण पद्धति हैं। निषेधात्मक चिन्तन और दृष्टिकोण की निष्पत्ति है। गिलास आधा भरा है, आधा खाली है- इस पर दोनों तरह से सोचा जा सकता है। एक तरीका यह है कि हाय, हमारा गिलास आधा खाली है। इसमें अब रस कहाँ, स्वाद कहाँ। दूसरा तरीका यह है कि हमारा गिलास तो आधा भरा है, लाखों ऐसे हैं जिनके गिलास में एक बूँद भी जल नहीं हैं। वे प्रयास कर रहे हैं-पूरा गिलास भरने का। तब हमारे गिलास के भरने में क्या कठिनाई है?

मात्र कठिनाइयों, अभावों, पर विचार करते रहना मानसिक रुग्णता और विकृति है। वह आन्तरिक दरिद्रता के चश्मे से देखा गया वस्तु-जगत है। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में कहें-“तो वह नास्तिक है। क्योंकि उसे स्वयं पर भी विश्वास नहीं है। सृष्टि की व्यवस्था पर तो नहीं ही है।

सामान्य जीवन क्रम के उतार-चढ़ावों से ही जो उद्विग्न, अशान्त हो जाते हैं, वे जीवन में किसी बड़े काम को करने की कल्पना भी नहीं कर सकते। बड़े काम तो धैर्य,, अध्यवसाय तथा कठोर श्रम की अपेक्षा रखते हैं। मानसिक सन्तुलन वहाँ पहली शर्त है। तरह-तरह की जटिल, पेचीदी परिस्थितियाँ, बड़े कामों में पैदा होती रहती हैं। अशान्त, व्यग्र मनः स्थिति में डरते बीच कोई रास्ता नहीं ढूँढ़ा जा सकता असफलता और हताशा ही ऐसे व्यक्तियों की ललाट रेखा है।

इसका यह अर्थ नहीं कि बचकानी कामनाओं को लेकर सपने देखते रहा जायं उनकी परिणति तो भ्रम-भंग में ही होने वाली है। यथार्थ पर आधारित आशावादी सपने भी कई बार सच नहीं हो पाते फिर बाल कल्पनाओं की तो बात ही क्या? यथार्थपरक आशावादी सपने टूटने पर भी हताशा को नहीं, नवीन प्रेरणा को ही जन्म देते हैं क्योंकि परिस्थितियों की जटिलता से उपस्थित हो सकने वाली बाधाओं का अनुमान तो उनके साथ रहता ही है, अप्रत्याशित आघातों को झेल सकने की तत्परता भी विद्यमान रहती है। ऊँचे उज्ज्वल और यथार्थपरक आदर्शवादी प्रदान करते हैं तथा पुरुषार्थ की प्रेरणा देते हैं।

संसार बना ही सफलता-असफलता दोनों के ताने-बाने से है। सभी व्यक्ति असफलताओं, अवरोधों से हताश होकर, हिम्मत हारकर बैठ जायँ तब तो संसार की सारी सक्रियता ही नष्ट हो जाए। पतझड़ के बाद वसंत- रात्रि के बाद दिन- दुख के बाद सुख तो सृष्टि-चक्र की सुनिश्चित गति-व्यवस्था है। इसमें निराश होने जैसी कोई बात है नहीं।

इससे भी उच्च मनः स्थिति उन महापुरुषों की होती है, जो अपने समय की पतनोन्मुख प्रवृत्तियों से जूझने का संकल्प लेकर आजीवन चलते रहते हैं, यह जानते हुए भी कि पीड़ा का विस्तार अति व्यापक है और पतन की शक्तियाँ अति प्रबल हैं। अपने प्रयास का प्रत्यक्ष परिणाम संभवतः सामान्य लोगों को नहीं ही दीखे तो भी वे लक्ष्य-पथ पर धीर गंभीर भाव से बढ़ते ही जाते हैं। वे उत्कृष्टतम मनःस्थिति में जीते हैं।

ऐसे ही व्यक्ति देश समाज और युग के पतनोन्मुख प्रवाह का विपरीत दिशा में भी उस हेतु उत्साह जगा देते हैं। अपनी गतिविधियों से आये परिवर्तनों को नवीन दिशाधारा को वे स्वयं तो स्पष्ट देख पाते हैं, पर सामान्य व्यक्ति अपने परिवेश में कोई अधिक स्थूल परिवर्तन उस समय तक उत्पन्न नहीं देख पाने के कारण उन परिवर्तनों और सफलताओं को देख समझ नहीं पाते।

विशाल वटवृक्ष के पत्तों में वायु की प्रत्येक पुलक से स्पन्दन होता है, पीपल या बरगद के आधार में रंचमात्र हलचल नहीं होती। जबकि छोटे कमजोर पौधे झंझा के एक ही थपेड़े में लोटपोट हो जाते हैं। अवरोधों की राई को पहाड़ मान बैठने और निराशा के नैश अन्धकार में ऊषा की स्वर्णिम आभा का अस्तित्व ही भुला बैठने की गलती तो नहीं ही करनी चाहिए निराशा एक भ्राँति है यथार्थ जीवन में उसका कोई स्थान नहीं है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118