जीवन यात्रा बने एक पर्वोत्सव

July 1993

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मनुष्य के हृदय भण्डार का द्वार खोलने वाली, निम्नता से उच्चता की ओर ले जाने वाले गुणों का विकास करने वाली यदि कोई वस्तु है तो प्रसन्नता ही है। यही वह साँचा है जिसमें ढलकर मनुष्य अपने जीवन का सर्वतोमुखी विकास कर सकता है। जीवन यापन के लिए जहाँ उसे धन, वस्त्र, भोजन एवं जल की आवश्यकता पड़ती है, वहाँ उसे हलका-फुलका एवं प्रगतिशील बनाने के लिए प्रसन्नता भी आवश्यक है। प्रसन्नता मरते हुए मनुष्य में प्राण फूँकने के समान है। प्रसन्न और संतुष्ट रहने वाले व्यक्तियों का ही जीवन ज्योति-पुँज बनकर दूसरों का मार्गदर्शन करने में सक्षम होता है।

प्रसिद्ध दार्शनिक इमर्सन ने कहा है “वस्तुतः हास्य एक चतुर किसान है जो मानव-जीवन पथ के काँटों, झाड़-झंखाड़ों को उखाड़ कर अलग करता है और सद्गुणों के सुरभित वृक्ष लगा देता है, जिसमें हमारी जीवन यात्रा एक पर्वोत्सव बन जाती है।”

जीवन यात्रा के समय में मनुष्य को अनेक कठिनाइयों एवं समस्याओं का सामना करना पड़ता है, किन्तु हँसी का अमृत पान कर मनुष्य जीवन संग्राम में हँसते-हँसते विजय प्राप्त कर सकता है। इतिहास के पृष्ठों पर निगाह डालें तो पता चलेगा कि महान व्यक्तियों के संघर्षपूर्ण जीवन की सफलता का रहस्य प्रसन्नता रूपी रसायन का अनवरत सेवन करते रहना ही है। रवीन्द्रनाथ टैगोर, तिलक, ईसा, विवेकानन्द, महात्मा गाँधी आदि इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं कि किस तरह प्रसन्नता के मूल मंत्र को अपना जीवन दर्शन बनाकर संघर्षमय एवं कर्तव्य प्रधान कठोर जीवन को सफल एवं दिव्य बनाया जा सकता है।

हँसना जीवन का सौरभ है। जो व्यक्ति आनन्द की खदान को जान लेता है, उसे श्रेष्ठ वातावरण की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। वर्तमान समय में जो परिस्थिति उसके सम्मुख होती है, उसी में वह सुख अनुभव कर लेता है। संतुलित मनुष्य यह नहीं सोचता कि जब वह धनी होगा, तभी उसे सुख मिल सकता है। धन मनुष्य को कभी सुखी बनाए नहीं रख सकता। प्रसन्नता तो मनुष्य की आन्तरिक स्थिति की साक्षी है। उसके फूटते ही व्यक्ति को सब जगह तथा हर परिस्थिति में खुशी ही खुशी परिलक्षित होती है। स्वर्ग की चाह है तो आनन्द के जल से आत्मा को स्नान कराना पड़ेगा। स्वर्ग कहीं और नहीं है। वह मनुष्य के अन्दर ही छुपा हुआ है। अन्दर के आनन्द से ही मनुष्य अनन्त आनन्द की प्राप्ति कर सकता है।

मधुमक्खी फूलों से थोड़ा-थोड़ा शहद लाकर इकट्ठा करती है। उसके पास मधु का भण्डार कहीं से आ नहीं जाता है, वरन् उसके ही सतत् परिश्रम का परिणाम होता है। इसी तरह मनुष्य भी अणु-अणु करके प्रसन्नता को संचित करता रहे, तो उसे आश्चर्य होगा कि उसके पास सुख एवं आनन्द का विशाल भण्डार है। धन संपत्ति, जमीन जायदाद के सुख से हम वंचित रह सकते हैं पर प्रसन्नता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार हैं वह हमारे कब्जे में है उसे हम जब चाहें प्राप्त कर सकते हैं।

जीवन में जिसने प्रसन्नता का महत्व न समझा उसके अभ्युदय के द्वार बन्द हो जाते हैं। वह दुःखी एवं निराश रहकर अपनी अमूल्य जिन्दगी को व्यर्थ गँवा देता है। तृष्णा उसकी सारी सुख सुविधाओं का हनन कर देती हैं। पास जो कुछ है उसमें उसे संतोष नहीं होता है। वह यह नहीं सोचता कि जितना मिला है उतना भी प्रसन्नता देने के लिए पर्याप्त है, तृष्णाएँ कभी भी तृप्त नहीं हो पाती है। इसके जाल में फंसकर वह प्रसन्नता को खो बैठता है और असन्तुष्ट बना रहता है। आत्मिक सुख उसे नहीं मिल पाता।

हम प्रसन्नता की खोज वाह्य पदार्थों में करते हैं। किन्तु हम यह भूल जाते हैं कि वह तो हमारे अन्तःकरण की स्थिति का नाम है। यदि हम स्वयं सन्तुष्ट एवं प्रसन्न हैं तो हमें सारी वस्तुएँ आनन्दमय प्रतीत होंगी। हम प्रसन्न नहीं होंगे तो हमें वस्तुएँ भी कुरूप एवं दुःखदायी लगने लगेंगी। हमारी मनोदशा के अनुरूप प्रकृति में भी परिवर्तन हो जाता है। संसार एक दर्पण है। उसमें हमारी ही प्रतिच्छाया हमें दिखलाई देती है।

एक विचारक का कथन है कि-“अगर तुम हँसोगे तो सारी दुनिया तुम्हारे साथ हँसेगी और अगर तुम रोओगे तो कोई तुम्हारा साथ न देगा”।

प्रसन्न व्यक्ति को देखकर दूसरे व्यक्ति के पास बैठकर दुखी व्यक्ति भी थोड़ी देर के लिए प्रसन्नता के प्रवाह में अपने दुःख को भूल जाता है। जो व्यक्ति हर समय मुँह फुलाए रहता है, वह जीवन के प्राण, उसके संजीवनी तत्व को नष्ट कर देता है। ऐसे व्यक्तियों के पास उठना-बैठना कोई पसन्द नहीं करता। खिन्नता नरक की भयानक ज्वाला की भाँति मनुष्य को दीन, हीन, दुखी एवं दरिद्र बना देती है।

अप्रसन्न प्रकृति का व्यक्ति दूसरों को भी हँसते हैं तो ऐसा लगता है कि ये सभी लोग हमारा मजाक बना रहे हैं। ऐसे लोग, प्रसन्नता की जीवन में क्या उपयोगिता है, इस तथ्य को भली-भाँति समझ नहीं पाते। उनका स्वभाव बन जाता है दूसरों को देखकर हँसना दूसरों का मजाक बनाना, दूसरों के नुकसान पर हंसना समय परिस्थिति एवं वातावरण का ध्यान किये बिना असभ्य ढंग से हँसने का हमें ध्यान रखना चाहिए कि यह हास्य, जीवन-विकास में सहायक नहीं होता उलटे मनुष्य के अन्दर आसुरी प्रवृत्तियों को जन्म देता है और जीवन को दुरूह बना देता है हमें ऐसी हँसी को अपने अन्दर स्थान देना चाहिए जो मनहूसों को भी हँसा दे, दुखी को खुश कर दे। दूसरों की पीड़ा हरण करने वाली सात्विक हँसी ही मनुष्य की जीवन यात्रा को मधुमय बना सकेगी।

मेसीलन का कहना है-“स्वस्थ एवं हँसमुख होना शरीर के लिए उसी प्रकार लाभप्रद है, जैसे सूर्य की धूप वनस्पतियों और शाक सब्जियों के लिए।

हँसो और मोटे हो जाओ”यह उक्ति अक्षरशः सत्य है। हँस वह व्यायाम है, जिसे करने से मनुष्य का शरीर पुष्ट होता है। हँसने से हमारी समस्त धमनियों में तेज रक्त का संचार होता है हम जब जी खोल कर हंसते हैं तो आमाशय, पाचन संस्थान, फेफड़ों आदि का अच्छा व्यायाम हो जाता है। छाती और पेट की नसों, पेशियों में दबाव पड़ता है वह पाचक रस पर्याप्त मात्रा में छोड़ने लगती है। फेफड़ों में रक्त की गति तीव्र हो जाती है। शरीर के जीवन तत्व सक्रिय हो जाते हैं। शिथिलता दूर हो जाती है। शरीर के जीवन तत्व सक्रिय हो जाते हैं। शिथिलता दूर हो जाती है। शरीर स्वस्थ बनता है। हँसने से वृद्ध व्यक्ति के मुख में भी रौनक झलकने लगती हैं। प्रसन्न एवं स्वस्थ रहकर मनुष्य लम्बी जिन्दगी जी सकता है।

प्रसन्नता ऐसा टॉनिक है जिसका नित्य पान करके व्यक्ति तन्दुरुस्त हो जाता है। खुशी ऐसी औषधि है, जिसका सेवन करने से मनुष्य के अन्दर के घाव ठीक हो जाते हैं। इससे व्यक्ति के मन पर जीम विषाद की धूल झड़ जाती हैं। इससे आरोग्य लाभ होता है।

मनुष्य का जीवन रोते बिलखते हुए जीने के लिए नहीं है। बल्कि गाते, मुसकराते, हंसते, खेलते बिताने के लिए है। मान लीजिये हमारे ऊपर गंभीर उत्तरदायित्व है तो इसका मतलब यह तो नहीं है कि हम रोनी सी सूरत बनाये घूमें। इससे तो दुख और दुगुना हो जाता है। मुसकान सुख की खान है। प्रसन्नता की वृत्ति हमारे नैतिक आचरण के लिए भी लाभकारी होती है। कड़ी से कड़ी बात को हँसकर टाल देने से अनर्थों से बचाव हो जाता है। कडुआ पन मिठास में बदल जाता है।

बहुत से माता-पिता अपने बच्चों को जोर से हँसने से मना करते हैं। इससे उनके शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक विकास में बाधा पड़ती है। इससे उनके जीवन का आनन्द रस सूख जाता है और वह स्वाभाविक विकास से वंचित रह जाते हैं। घर में आनन्द एवं प्रसन्नता का वातावरण बनाना चाहिए व इस संबंध में बच्चों का विशेष ध्यान रखना चाहिएं। यही वह समय हैं जब उनमें प्रसन्न रहने की आदत डाली जा सकती है।

नये पौधे में जिस प्रकार खाद एवं पानी की आवश्यकता होती उसी तरह बच्चे के लिए पौष्टिक आहार के साथ प्रसन्नता भी आवश्यक होती है अगर नींव ही त्रुटिपूर्ण रह जायेगी, तो जीवन उन्नतिशील कैसे बन सकता है? प्रसन्नता जीवन वृक्ष की जड़ों को खाद-पानी देती है तथा व्यक्तित्व का सर्वांगपूर्ण निर्माण करती है। हमें उल्लास विस्तार की प्रक्रिया को अधिकाधिक बलवती बनाना चाहिए। यही व्यक्ति निर्माण प्रक्रिया है।

गुरु नानक ने कहा-“मेरा मत है सत्य-मार्ग, मेरी जाति वही है, जो अग्नि और वायु की है-जो शत्रु मित्र को एक समान समझते हैं। मुझे वृक्ष और धरती की तरह रहना है। नदी की तरह मुझे इस बात की चिन्ता नहीं कि मुझ पर कोई पवित्र फूल फेंकता है, या कूड़ा-कर्कट और मैं जीवित उसी को समझता हूँ, जो चन्दन की तरह हर समय जनता की सेवा में हिस्सा लेता हुआ अपनी सुगन्ध फैलाता रहे।” यह सुनकर शाह शरफ ने कहा-’दरवेश या फकीर कौन है?” मानक ने कहा-जो जिन्दा ही मरे की तरह रहे, जागते हुए सोता रहे जानबूझकर अपने आपको लोक-मंगल में लुटाता रहे।जो कभी क्रोध में न आवे, अभिमान न करे, न स्वयं दुखी हो, न किसी दूसरे को दुःख दें। जो ईश्वर में हमेशा निमग्न रहे और वही सुने, जो उसके अन्दर से ईश्वर बोलता है और उसी को हर स्थान पर देखे।” नानक के वचन सुनकर शाह शरफ को सन्तोष हुआ।


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