“यत्र नार्यस्तु पूजन्ते”

July 1993

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शेरशाह सूरी के दरबार में आज विशेष चहल-पहल थी। दरबार ए आम में हर व्यक्ति शंकित, चकित सा अपने-अपने स्थान पर स्तब्ध मूर्तिवत् था। कभी-कभी एक दूसरे की ओर लोग प्रश्नवाचक दृष्टि से देख भर लेते थे। बात भी कुछ ऐसी ही थी।एक सामान्य दुकानदार की शिकायत पर बादशाह ने अपने युवराज को अपराधी की भाँति दरबार में लाने की आज्ञा दी थी। जन साधारण से लेकर उच्च-अधिकारियों के मन में कौतूहल, भय एवं उत्सुकता की सम्मिलित प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उनके चेहरों पर विचित्र भाव झलक रहे थे।

घटना एक दिन पहले की ही थी। अपने शौर्य, साहस तथा सूझ-बूझ के आधार पर भारत का शासक बनने वाले शेरशाह का उत्तराधिकारी, हाथी पर बैठकर शहर घूमने निकला जिन्हें वैभव सहज ही प्राप्त हो जाता है वह बहुधा अपनी वृत्तियों का नियंत्रण खो बैठते हैं। किस तपस्या एवं विशिष्ट सद्गुणों के कारण वैभव मिला, यह जानकारी न होने से अहंकार प्रायः विपरीत दिशा में काम करने लगता है। युवराज की भी स्थिति कुछ ऐसी ही हो गई थी। शासक बनने के लिए क्या-क्या मूल्य चुकाने होते हैं यह शेरशाह को तो ज्ञात था, किन्तु उत्तराधिकारी कहा जाने वाला नवयुवक उससे अनभिज्ञ था। वह तो राज्य को अपना खेल एवं प्रजा को अपने लिए किसी भी प्रकार प्रयुक्त करने का अपना अधिकार समझता था।

गलत मान्यता गलत कार्य कराती हैं युवराज से भी वैसी ही भूल हो गयी। रास्ते में एक मोदी की दुकान पर उसकी नजर पड़ी। मोदी की पत्री दुकान पर बैठी थी। सुन्दर स्त्री को देखकर उसके कुरूप मन के कुसंस्कार जाग्रत हो उठे। स्वयं की विकृति का परिचय देते हुए उसने अपने पानदान में से दो पान के बीड़े उठाकर उस नवयुवती पर फेंक दिये।

बेचारी साध्वी सहम कर रह गई। गरीब घर की महिला-पति के सहयोग के लिए-बच्चों के पालन-पोषण के लिए दुकान पर बैठती थी। पुरुष द्वारा अपने सतीत्व के अपमान से उसके हृदय पर भारी आघात लगा। उसके पति ने भी वह सब देखा। किन्तु राजतंत्र में जनतंत्र जैसी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता जन साधारण को कहाँ थी? बेचारा प्रतिकूल परिस्थिति समझकर खून का घूँट पीकर रह गया।

व्यक्तिगत रूप से कुछ कर सकने का अधिकार भले ही नहीं हो, किन्तु राज्य से न्याय की माँग का अधिकार तो सबका सदैव रहा है। परन्तु यहाँ सवाल था कि राजा से न्याय माँगा जाय, तथा उसका लक्ष्य उसी का लाड़ला हो तो क्या वह मिलेगा? कहीं उलटे अपने ऊपर ही तो चोट न पड़ेगी? उसके अन्तःकरण ने कहा उचित ढंग से प्रतिकार का प्रयास तो करना ही चाहिए। कल्पना में ही उलझकर सही दिशा में प्रयास रोकना उचित नहीं। उसने अपने पड़ोसियों से परामर्श किया। उन्हें भी घटना को देखकर क्षोभ था। बादशाह की न्यायप्रियता के प्रति जो भाव उनके थे, उसके आधार पर उन्हें आशा भी थी। जो भी हो सत्य का सहयोग करने का संकल्प पड़ोसियों ने भी किया और उस मोदी ने शेरशाह के पास जाकर अपनी फरियाद सुना दी। उसी की सुनवायी के लिए यह दरबार ए आम भरा था।

बादशाह अभी दरबार में नहीं पहुँचे थे। वे अपने निजी कक्ष में टहल रहे थे। किसी को भो आने की मनाही थी। उक्त घटना की सूचना मिलने के समय से ही वह काफी गंभीर हो गए थे। उन्हें सारी रात्रि नींद न आ सकी थी। उनके सामने रह-रह कर अपनी प्रगति का इतिहास तथा युवराज की करतूत घूम रही थी। उन्होंने अपने सद्गुण संपन्न व्यक्तित्व के बल पर ही साधारण जागीरदार से प्रगति यात्रा पूरी कर भारत का सिंहासन पाया था। उनके लिए सेना से लेकर सामान्य व्यक्तियों तक के विश्वास तथा सद्भावना का भी महत्व कम न था। गुणों की कीमत पर जीवन की उपलब्धियाँ प्राप्त करने वाला गुणों का महत्व भली-भाँति जानता है। उन्हें लग रहा था कि यदि प्रजा की मर्यादा से खिलवाड़ प्रारंभ हो गया, उनकी भावनाओं की कीमत न की गई तो अनर्थ निश्चित है। शासक और जनता में परस्पर सौहार्द-स्नेह व विश्वास समाप्त हो गया तो फिर राज्य नहीं चल सकता। युवराज को अपनी भूल का अनुभव एवं उसकी गम्भीरता समझाना बहुत आवश्यक है। तभी प्रधान सेवक ने दरबार भर जाने की सूचना दी। और शेरशाह उस ओर चल पड़े।

युवराज को दरबार में लाया गया। बादशाह ने दुकानदार की शिकायत सुनी और युवराज से सवाल पूछे। गवाहों से उसकी पुष्टि कराई। युवराज नतमस्तक थे उन्होंने दुकानदार की पत्नी पर पान के बीड़े फेंके। किन्तु अपने बचाव के लिए वह उसे सामान्य घटना सिद्ध करना चाहते थे। बोले-“जहाँपनाह! मैंने तो यूँ ही उस पर पान फेंक दिए थे। दुकानदार बेकार का तूल दे रहा है।

“यूँ ही। “शेरशाह शेर की तरह गरज पड़े। सारा दरबार अपने में सिमट कर रह गया। “किसी की आबरू से खेल जाना ‘यूँ ही’ हुआ? तुम किस गुमान में भूले हो वली अहद्? किसी की बीबी की इज्जत क्या होती है इसका तुम्हें अहसास नहीं। मैं अभी तुम्हें समझाए देता हूँ”और युवराज की पत्नी को दरबार में तलब किया गया।

युवराज को अपना बचाव महंगा पड़ गया था। लोग भौंचक्के रह गए। सभी धड़कते दिल से कार्यवाही देख रहे थे। बुरका ओढ़े धीमी चाल से चलने वाली अहद की बेगम दरबार में हाजिर हुई। इसका मुँह खोल दो पुनः सिंह गर्जना हुई। युवराज ने आँखें बन्द कर लीं, बेगम, जैसे जमीन पर गड़कर रह गयी, किन्तु आज्ञा की अवहेलना संभव नहीं थी। शेरशाह ने उस दुकानदार को अपने पास बुलाया-उसके हाथ में दो पान दिये और कहा-ये पान गुनहगार की बीबी पर फेंक दो।

‘इतनी कठोर प्रक्रिया की किसी को आशा नहीं थी। स्वयं बादशाह का हृदय धड़क रहा था। इसकी बहू लाचार सबके सामने मुँह खोले बेकसूर आँखों में आँसू भरे डरी सहमी खड़ी थी। किन्तु बड़ी हानि के सामने छोटी हानि नहीं देखी जाती। युवराज के जीवन की सही-गलत दिशा का प्रश्न था। उसे सुमार्ग पर न लाया जा सकता तो और भी भयंकर होता। अतः धड़कते हृदय से सब करते हुए भी वह ऊपर से शान्त गम्भीर बने बैठे थे।

पान हाथ में लिए फरियादी शान्त खड़ा था उसके मन में भी हलचल मच रही थी। उसके मन में भी हलचल मच रही थी। अचानक उसने हाथ जोड़े और कहने लगा-“शहंशाह! मैं हिंदू हूँ, हमारी देव संस्कृति की पुण्य शपथ है नारी माँ है उसके अक्षुण्ण सम्मान को भुला देना इस महान संस्कृति की संतति के लिए आत्मघात है।” कुछ क्षण रुककर वह फिर कहने लगा” मैं यहाँ अपराध रोके जाने की अर्जी लेकर आया था अपराध करने नहीं। इस बेचारी का तो कोई अपराध भी नहीं। फिर हमारे यहाँ तो स्त्री रमणी न होकर वंदनीय जननी है। युवराज ने अनजान में अपराध किया। अनजाने में अपराध करके युवराज यदि मैं जानबूझ कर के वही अपराध दोहराऊँगा तो परमात्मा क्या कहेगा? (खाली) “युवराज को सीख मिल चुकी जहांपनाह दुनिया ने देख लिया कि आपकी निगाह में प्रजा की हर बहू बेटी की इज्जत अपनी बहू-बेटी के समान ही है। अवज्ञा का यदि कोई दण्ड मेरे लिए हो तो वह मुझे दिया जाय, किन्तु मेरी संस्कृति की शपथ के विरुद्ध इस देवी के प्रति मुझे अपराधी न बनाया जावे-यह मेरी दूसरी फरियाद है।

“युवराज-बेगम अधिकाँश भावुक जनता के आँसू आ गए। फौलाद हृदय शेरशाह की आँखें भी गीली हो गई। वह अपने स्थान से उठा तथा दुकानदार की पीठ ठोकते हुए बोला- “निश्चित ही हिन्दू संस्कृति है, और तुम देवता हो-फरिश्ते हो, जन्नत का नूर तुम्हारे दिलो दिमाग में चमक रहा है। तुम्हारी फरियाद टालने की ताकत मुझमें नहीं है। यह फरियाद ही नहीं हुक्म भी है। तुमने मेरे काम को आसान बनाकर मेरा साथ दिया है। इसलिए बराबर के हक से कुछ कहने का तुम्हें भी अधिकार है। तुमने देव संस्कृति की शपथ के रूप में जो बात दरबार में कहीं-मैं चाहूँगा उसे हुक्म की तरह सारी जनता माने और उसकी पहल मैं खुद करता हूँ। तुम्हारी बात मंजूर है। यह कहते हुए शेरशाह ने स्वयं आगे बढ़कर अपनी बहू का मुँह ढक दिया। युवराज आगे बढ़कर दुकानदार से गले मिला। सभी भावविह्वल हो उठे।


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