परिष्कृत धर्मतंत्र ही अतीत का गौरव लौटाएगा

July 1993

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जन मानस का स्तर ऊँचा उठाना इतना बड़ा और इतना महत्वपूर्ण कार्य है कि उसका प्रगति क्रम चल पड़ने पर प्रस्तुत समस्याओं में से हर किसी का समाधान सरलतापूर्वक निकल सकता है। अभावों की पूर्ति के लिए उपार्जन के जितने भी स्रोत हैं उनमें सबसे बड़ा है व्यक्तित्व का प्रामाणिक और परिमार्जित होना। यदि इसे उपलब्ध किया जा सके तो समझना चाहिए अवरोधों के जाल-जंजाल से छुटकारा मिल गया। यदि मनुष्य सद्गुणी बन सका तो समझना चाहिए कि विभूतियों को कही से भी घसीट लाने वाले चुम्बकीय शक्ति वाला पारस पत्थर हाथ लग गया। दरिद्रता पैसे की उतनी नहीं सतातीं जितना कि व्यक्तित्व की क्षुद्रता पटक-पटक कर मारती है और साधन होते हुए भी आये दिन रुलाती है।

दरिद्रता और कुछ नहीं पिछड़ेपन का ही दूसरा नाम हैं संकट कहीं दूर देश से नहीं आता। ओछा और अनगढ़ व्यक्तित्व ही उन्हें जहाँ-तहाँ से बीन बटोर लाता है। इन दिनों पिछड़ेपन को दूर करने के लिए अनेक आजीविका-अभिवर्धन के प्रगति-प्रयास चल रहे है। कितना अच्छा होता यदि इसी के साथ-साथ नैतिकता, बौद्धिकता और सामाजिकता से जुड़ी हुई सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन पर भी उतना ही ध्यान दिया जा सकना बन पड़ा होता। संपदा में पदार्थों और साधनों की ही गणना होती है। अच्छा होता यदि शालीनता को भी इसी का एक पक्ष माना गया होता। उस अभिवर्धन के लिए भी समर्थ तंत्र खड़ा किया गया होता। वस्तुओं, पदार्थों, साधनों की आवश्यकता होती है, पर यह ध्यान देने योग्य है कि सूझबूझ और पुरुषार्थ परायणता ही अन्ततः समस्त अभावों को दूर कर सकने में समर्थ होती है। अव्यवस्थाओं, समस्याओं और संकटों से निपटने के लिए शक्ति भी चाहिए और अंकुश भी। कई बार इसके लिए दमन का आश्रय भी लेना पड़ता है और उद्दंडता पर अनुशासन थोपने वाले साधनों का भी प्रदर्शन करना पड़ता है। पर इस सबका सामयिक प्रतिफल ही हो सकता है। अनौचित्य की जड़ काटने लिए मनुष्य को विवेकवान, सद्गुणी और साहसी भी होना चाहिए। बाह्य उपचार दीखते भी है और जाने सराहे भी जाते हैं, किन्तु वास्तविकता यह है कि जो दीख नहीं पड़ता उसकी समर्थता कहीं अधिक है। शरीर कितना ही सुन्दर और बलिष्ठ क्यों न हो, अदृश्य प्राण के न रहने पर वह सारा सरंजाम कबाड़ बन कर रह जाता है।

भूलों में सबसे बड़ी भूल एक ही है कि दृश्य को सब कुछ माना गया और अदृश्य को उपेक्षा, अवमानना के गर्त में, गिरा न रहने देने के संदर्भ में, न उसे उखाड़ कर ऊँचा उठाने के संबंध में कुछ ऐसा किया जा सका जिसे कारगर कहा जा सके।

कठिनाई एक ही है कि अन्तः स्फुरणा उभारने वाले आन्तरिक अन्तः स्फुरणा उभारने वाले आन्तरिक पौरुष का स्तर दीन−दुर्बल जैसा हो गया और बाहर से सहारे दे सकने वाले अवलंबनों ने इस दिशा से मुँह मोड़ लिया शिक्षा का प्रबंध हुआ पर सचेतन को परिष्कृत कर सकने वाली “विद्या” का कहीं से कोई प्रबंध न बन पड़ा। न उसका तंत्र खड़ा किया गया और न उस प्रयोजन को पूरा कर सकने वाले उपाध्यायों का, पुरोहितों का वर्ग उभर कर आगे आया।

मुड़कर पीछे की ओर देखा जाय तो प्रतीत होगा कि अतीत में, आज की तुलना में साधनों का भारी अभाव था। पर जो कुछ हस्तगत था उसका सदुपयोग कर सकने में कौशल का समुचित प्रबंध बना रहने पर परिस्थिति इतनी उच्चस्तरीय रहती रही जिन्हें सतयुग का नाम दिया जाता रहा। तब मनुष्य में देवत्व की अभिव्यक्ति उजागर होती थी और धरती पर ऐसा वातावरण बना रहता था जिसे स्वर्गोपम कहा जा सके। हर किसी को सुख-शाँति उपलब्ध थी। हर किसी को हंसते-हँसते जीने, और मिल-बाँटकर खाने का अवसर उपलब्ध था।

आखिर यह सब बन कैसे पड़ा? जन्म से तो भी सभी प्रायः नर पशु की स्थिति में धरती पर आते हैं। उन्हें बनाने या उठाने में तो संबद्ध परिकर ही प्रधान भूमिका निभाते हैं। स्मरणीय अतीत में साधनों के उपार्जन का, उपयोग का सही तरीका तो अपनाया ही जाता रहा होगा। सबसे बड़ी बात यह बनी रही कि अन्तराल को परिष्कृत और व्यक्तित्व को समुन्नत बनाने के लिए कुशल कारीगर बड़ी संख्या में उपलब्ध रहे और कार्यक्षेत्र में तत्परतापूर्वक डटे रहे। इस पुण्य प्रताप का प्रतिफल था कि स्वल्प साधनों में असीम आनंद और सौजन्य ने समूचे वातावरण को कृत-कृत्य करके रख दिया।

लोक चेतना को समुन्नत स्तर का बनाये रहने का घोषित और निर्धारित उत्तरदायित्व पुरोहित का है। उसके लिए यही नियति थी जिसे श्रद्धापूर्वक सौंपा और शपथपूर्वक स्वीकारा गया था। राष्ट्र को जीवित और जाग्रत बनाये रखने का दायित्व यही पुरोहित वर्ग चिरकाल तक सँभाले-सँजोये रहा। फलतः जन-समुदाय के सभी घटक घड़ी के कल पुर्जे की तरह ठीक काम करते रहे। पेण्डुलम और मिनट यदि अपनी सही चाल पर चलते रहे तो घड़ी के बन्द होने का अवसर कदाचित ही आता है। लोक चेतना की सत्ता और महत्ता तो असीम है। पर उसमें कमी एक ही है- आत्म संकल्प को उभारने में स्वावलम्बी साहस कम ही जुट पाता है। उसे समर्थों का सहारा तलाशना पड़ता है। बच्चे भी तो अभिभावकों से प्रायः ऐसी ही आशा करते हैं।

प्राचीनकाल में एक विशेष वर्ग था जिसे “पुरोहित” कहते थे। उसकी कई श्रेणियाँ श्री ऋषि, तपस्वी, योगी, मनीषी स्तर की रीति-नीती अपना कर वे अपनी योग्यता और पात्रता संपादन करते थे ताकि उनके मार्ग दर्शन को जन समुदाय द्वारा स्वीकारा जा सके। इसके साथ ही वे उस सेवाधर्म को कार्यान्वित करना आरंभ कर देते थे जिसके आधार पर चिन्तन में उत्कृष्टता उभरती है और चरित्र एवं व्यवहार को ऐसा सुगढ़-समर्थ बना देती है कि उसके सहारे में न केवल निजी जीवन वरन् संपर्क में आने वाले परिकर को भी समुन्नत बनाने का अवसर मिलता है।

(खाली) क्षेत्र में जन संपर्क साधने और उन्हें भावनात्मक दृष्टि से परिष्कृत किये रहने का दायित्व निभाते थे। गुरुकुल संचालन के लिए उन्हें पत्नी की सहायता अनिवार्य रूप से अपेक्षित होती थी अपनी निजी जीवन का, पारिवारिक और वैयक्तिक स्वरूप आदर्शों से ओतप्रोत रखकर वे जनसाधारण के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत करते थे कि किस प्रकार सीधे सरल तरीके से सर्वोपयोगी उत्कृष्ट जीवन जिया जा सकना संभव हो सकता था। लोकशिक्षण के लिए वे अपने यजमानों में स्वाध्याय-सत्संग की व्यवस्था बनाये रखते थे इसके लिए पर्व-त्यौहारों पर व्रत संस्कारों के माध्यम से सामूहिक प्रशिक्षण अधिक उपयोगी और प्रभावी समझा जाता था। अस्तु वे ऐसे ही अवलंबनों के सहारे अपने परिकर के यजमानों को उच्चस्तरीय प्रेरणाओं से अनुप्राणित किया करते थे।

साधु वर्ग का कार्यक्रम प्रव्रज्या पर अवलंबित रहता था। इसलिए उन्हें परिव्राजक भी कहा जाता था। परिव्राजक अर्थात् परिभ्रमण कर्ता इस आधार पर उन्हें व्यापक क्षेत्र के बहुसंख्यक निवासियों के साथ संपर्क साधने में सरलता होती थीं विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों की स्थानीय समस्याओं और आवश्यकताओं को इस आधार पर समझ सकना उनके लिए सरल पड़ता था। साथ ही जहाँ जैसा समाधान संभव था वहाँ उसका कार्यक्रम बनाने, सरंजाम जुटाने एवं ढाँचा खड़ा करने का प्रयास करते भी बन पड़ता था। इस क्रिया-प्रक्रिया का महत्व इसलिए भी अधिक था कि ज्ञान पिपासा बुझाने के लिए जिन्हें मनीषियों से संपर्क साधने पहुँचना कठिन पड़ता था उन्हें वह लाभ घर बैठे भी मिल जाता था। बहुत लोग एक समय एकत्रित होकर एक मार्गदर्शक से उद्बोधन प्राप्त करें यह (खाली) तरह स्वयं ही परिभ्रमण पर निकला जाय और जन-जन को अपनी ऊर्जा से प्रतिभासित किया जाय। जिन्हें यह कार्यपद्धति पसन्द आती थी। वे अविवाहित रहते थे और तीर्थ यात्रा के नाम से जन-जागरण की पदयात्रा में निरन्तर निरत रहते थे।

साधु और ब्राह्मण वर्गों के समन्वय से उस लोक शिक्षण की आवश्यकताएँ भली प्रकार पूरी हो जाती थीं जिससे व्यक्तित्व निखरता है और उस प्रामाणिकता एवं प्रतिभा का अर्जन होता है जो भौतिक और आत्मिक सफलताओं का पथ प्रशस्त कर सके।

साधु और ब्राह्मण वर्ग के लोकनायकों का एक मिश्रित रूप भी था-वानप्रस्थ। इस वर्ग के लोग आधी आयुष्य तक पहुँचते-पहुँचते अपने सामान्य गृहस्थ जीवन के दायित्व पूरे कर लेते थे और फिर आत्मनिर्माण और लोक मंगल की समन्वित साधना में निरत होते थे। जो पत्रियाँ साथ रहना चाहतीं थी वे पति के साथ उसी प्रयोजन में निरत होती थी। जो अपने को असमर्थ पाती थीं वे परिवार को सँभालने और पड़ोस को यथा संभव अपनी उपस्थिति का लाभ देती थी।

तीर्थ स्थानों के सुव्यवस्थित आश्रम इसीलिए बने थे कि वहाँ वानप्रस्थ वर्ग के लोग आरण्यक व्यवस्था के अनुरूप अपनी वरिष्ठता का अभिवर्धन करें और समयानुरूप सेवा क्षेत्र के साथ भी संपर्क साधें गृहस्थ जन भी तीर्थों के प्रेरक वातावरण में कुछ समय निवास करके अपनी विशिष्टताओं में अभिवर्धन में अभिवर्धन करने वाली साधनाएँ संपन्न करते थे।

इसे समूचे धर्मतंत्र की मिली जुली सामर्थ्य ऐसी हो जाती थी कि उसका प्रभाव समूचे जन समुदाय पर पड़े बिना नहीं रहता था। दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में सहायता मिले। इस आधार पर धर्मतंत्र इतनी कम सेवा साधना कर पाता था जितनी कि शासन तंत्र से भी नहीं बन पड़ती। शासन प्रायः अवाँछनीयताओं से निपटता रहता था, प्रगति के लिए आवश्यक साधन-सुविधाएँ भी जुटाता है किन्तु उस सब से भी अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है व्यक्ति की शालीनता और दक्षता का। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में सुसंस्कारिता के समावेश का। इसके बिना समुचित साधन उपलब्ध कर लेने पर भी सार्वजनिक शान्ति और प्रगति का सुयोग बन नहीं पड़ता। धर्मतंत्र इसी महती आवश्यकताओं की पूर्ति करता था। इसी को परिष्कृत रूप में प्रस्तुत करने की आज आवश्यकता है।


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