संत इब्राहिम बिन अदम एक बार कहीं जा रहे थे। उन्होंने देखा कि रास्ते में एक शराबी पड़ा हुआ है, उसके कपड़े मिट्टी से लथपथ हैं और मुँह कीचड़ से सना है। यह देखकर संत बोले जिस मुँह से ‘खुदा का नाम लिया जाता है उसे इस हालत में नहीं रहना चाहिएं और उन्होंने पास ही कहीं से पानी लाकर शराबी का मुँह धो दिया जब शराबी को इस बात का पता चला, तो उस पर बड़ा असर पड़ा। उसने शराब न पीने की प्रतिज्ञा की और सुधर गया।
एक बार अत्रि अपने आश्रम से चलकर एक गाँव में पहुँचे। आगे का मार्ग बहुत बीहड़ और हिंसक जीव-जन्तुओं से भरा हुआ था, सो अत्रि रात को इसी गाँव में एक सद्गृहस्थ के घर टिक गये। गृहस्थ ने उन्हें ब्रह्मचारी वेष में देखकर उनकी आव-भगत की और भोजन के लिये आमंत्रित किया। अत्रि ने जब समझ लिया कि इस परिवार के सभी सदस्य ब्रह्मार्सध्या का पालन करते हैं, किसी में कोई दोष-दुर्गुण नहीं है, तो उन्होंने आमंत्रण स्वीकार कर लिया।
भोजनोपराँत अवि ने गृहस्थ को प्रणाम कर प्रार्थना की “देहि में सुखदाँ कन्याम्” अपनी सुखद कन्या मुझे दीजिये, जिससे मैं अपना घर बसा सकूँ। उन दिनों वर ही कन्या ढूँढ़ने जाते थे। कन्याओं को वर तलाश नहीं करने पड़ते थे। उन दिनों नर से नारी की गरिमा अधिक थी। गृहस्थ ने अपनी पत्नी से परामर्श किया। अत्रि के प्रमाण पत्र देखे, और वंश की श्रेष्ठता पूछी और वे जब इस पर संतुष्ट हो गये कि वर सब प्रकार से योग्य है, तो उन्होंने पवित्र अग्नि की साक्षी में अपनी कन्या का संबंध अत्रि के साथ कर दिया। अत्रि के पास तो कुछ था नहीं, इसलिये गृहस्थ संचालन के लिये आरंभिक सहयोग के रूप में अन्न, वस्त्र, बिस्तर , थोड़ा धन और गाय भी दीं छोटी-सी किन्तु सब आवश्यक वस्तुओं से पूर्ण गृहस्थी लेकर अत्रि अपने घर पधारे और सुखपूर्वक रहने लगे।
इन्हीं अत्रि और अनुसुइया के द्वारा दत्तात्रेय जैसी संतान को जन्म मिला। भगवान को भी एक दिन इनके सामने झुकना पड़ा था।