सूर्य चिकित्सा ही अब एक मात्र विकल्प

July 1993

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सूर्य स्वस्थता एवं जीवनी शक्ति का भण्डार है। उसकी किरणों द्वारा पृथ्वी पर अमृत बरसता है। सृष्टि में जो स्फूर्ति, हलचल, विकास वृद्धि एवं तेजस्विता दिखाई पड़ती है, उसका स्रोत सूर्य को यदि पृथ्वी से हटा दिया जाय, तो इस भूतल पर एक भी जीव का अस्तित्व नहीं रह सकता। तब अस्तित्व नहीं रह सकता। तब अतिशीत के कारण बर्फ का यह अंधकार पूर्ण गोला एक निकम्मी स्थिति में पहुँच कर अपने अस्तित्व को भी खो बैठने के लिए बाध्य होगा वैदिक साहित्य में पृथ्वी को रज और सूर्य को रेतस की उपमा दी गई है। पृथ्वी की उत्पादक शक्ति में प्राण डालने वाला यह सविता सूर्य ही है। वह रोग निवारक और स्वास्थ्य-संवर्द्धक भी है। जिस व्यक्ति में सूर्य शक्ति की जितनी मात्रा होती है, वह उसी अनुपात में स्वस्थ और सबल होता है।

इसकी परीक्षा उन वनस्पतियों और प्राणियों को देखकर सहज ही की जा सकती है, जो सूर्य के संपर्क में रहते हैं। दूर रहने वालो में न तो वह आरोग्यता दिखाई पड़ती है, न सजीवता। जिन पेड़-पौधों, लतागुल्मों को सूर्य का प्रकाश नहीं मिलता, वे या तो बढ़ते- पनपते ही नहीं अथवा यदि बढ़े-पनपे भी तो उनमें चैतन्यता, ताजगी एवं जीवनी शक्ति नहीं रहती। सूर्य के प्रकाश से वंचित रहने वाले प्राणी प्रायः पीले, निस्तेज, मुरझाये हुए, बीमार और अविकसित देखे जाते हैं।

सूर्य की इस विशिष्टता को ध्यान में रखते हुए आरोग्यशास्त्र के आदि आचार्यों ने इसका फायदा उठाने को सोचा और ऐसा नियम बनाया, जिससे अनायास उसका लाभ मिलता रह सके। यही कारण है कि प्राचीन भारतीय सभ्यता में शरीर को खुला रखने की प्रथा थी। तब परिधान उतने ही पहने जाते थे, जितने से लज्जा-निवारण का प्रयोजन पूरा हो सके। अनावश्यक परिणाम में वस्त्र ओढ़ कर उसका भार ढोने और दिनमान के अनुदान से वंचित रहने को अविवेकयुक्त माना जाता था। यही निमित्त है कि देवताओं और आदि पुरुषों के शरीरों को सीमित वस्त्रों में चित्रित दिखाया जाता है। तब अधोभाग को छोड़ कर शेष शरीर को प्रायः निर्वासन ही रखा जाता था, ताकि वह हिस्सा अंशुमाली के संपर्क में रहकर ऊर्जा और ऊष्मा का वह अंश ग्रहण कर सके, जो संपूर्ण शरीर के लिए आवश्यक और अभीष्ट है, एवं रोगनिवारक भी। आज इसे विज्ञान भी स्वीकारता है कि सूर्य-किरणों में विटामिन-डी जिस मात्रा में पाया जाता है, उस परिमाण में शायद ही किसी वनस्पति में उपलब्ध हो। इसके अतिरिक्त उसकी पराबैगनी किरणों में रोगनिवारण की कितनी सामर्थ्य है, यह भी कोई छुपा तथ्य नहीं।

“दि यूनीवर्स इन दि लाइट ऑफ माडर्न फिजिक्स” पुस्तक में मूर्धन्य विज्ञानवेत्ता प्लाक लिखते हैं कि वस्तुतः विज्ञान ने सूर्य के बारे में जितना कुछ अब तक जाना-समझा है, वह उसकी तुलना में नगण्य जितना ही है, जो अभी अविज्ञात है। प्राचीन ऋषियों ने पराविद्या द्वारा उसके सूक्ष्म रहस्यों को उद्घाटित किया था और उनसे लाभान्वित होने के लिए ऐसी रीति-नीति अपनायी थी, जो आज अवैज्ञानिक परम्परा जैसी जान पड़ती है, पर जैसे-जैसे विज्ञान स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ रहा है, उनकी वैज्ञानिकता स्थापित होती जा रहा है और यह भी साबित होता जा रहा है कि भारतीय ऋषियों के प्रतिपादन सूक्ष्म विज्ञान पर आधारित हैं सूर्य की आरोग्यवर्धक क्षमता उसी विज्ञान की एक कड़ी है, जिसके स्थल पक्ष को एक सीमा तक विज्ञान ने पुष्ट और प्रमाणित कर लिया है।

लगभग ऐसा ही मुतव्य प्रकट करते हुए प्रख्यात रूसी शरीर शास्त्री एवं भौतिक विज्ञानी प्रो0 जार्ज्स लाखोवस्की अपनी रचना “ली ग्राण्ड प्राबलम” में कहते हैं कि सूर्य समेत समस्त ग्रह-उपग्रहों से आने वाली किरणों का हम पर सुनिश्चित प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव कई बार इतने सूक्ष्म होते हैं कि स्थूल यंत्र-उपकरणों की पकड़ में नहीं आते। ऐसे में इनकी सूक्ष्म अनुभूति ही की जा सकती है। यही कारण है कि भारतीय तत्वज्ञों एवं ज्योतिषियों ने जन्म के समय इनकी विशिष्ट स्थिति को काफी महत्वपूर्ण माना है। उनके अनुसार सूर्य के स्थूल-सूक्ष्म दोनों प्रभावों है जिन्हें विज्ञान अब धीरे-धीरे अनावृत करता जा रहा है। अगले दिनों यदि उसके स्वास्थ्यवर्धक गुणों को और अधिक परिमाण में समझा और उपयोग में लाया जा सकें, तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए।

“रीहैविलिटेशन एण्ड दि पावर ऑफ सन” ग्रन्थ में खगोलशास्त्री रपट ग्लीडों लिखते हैं कि यह विज्ञान का दुर्भाग्य है कि उसने अब तक सूर्य के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन विश्लेषण किया, किंतु रोग निवारण के उसके सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष पर विशेष ध्यान नहीं दिया जा सका, अन्यथा आरोग्य संवर्धन की उसमें इतनी अद्भुत सामर्थ्य है कि यदि उस विधा को सर्वसुलभ बनाया जा सके, तो बड़े पैमाने पर गरीबों और दरिद्रों का उपचार उससे निःशुल्क संभव हो सकता है।

लंबे समय तक सूर्य की स्वास्थ्य-संवर्धक शक्ति का अध्ययन करने वाले चिकित्साशास्त्री अलक्जेण्डर कैनन अपनी कृति “दि इनविजिबल इन्फ्लुएन्स” में कहते हैं कि सूर्य में अदृश्य स्तर की कुछ ऐसी किरणें हैं जिनके गुण, धर्म ओर उपयोग को समझा जा सके, तो बीमारों के लिए वे वरदान सिद्ध हो सकती है।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि विज्ञान अब शनैःशनैः सूर्य के उस पक्ष को अनावृत्त करने की दिशा में अग्रसर हो रहा है, जो इससे पूर्व तक करीब उपेक्षित स्थिति में पड़ा हुआ था, किन्तु रोग-शमन और स्वास्थ्य संवर्धन के क्षेत्र में जब उसे कुछ ठोस सबूत मिले तो वह इस दिशा में तत्परतापूर्वक शोध-अनुसंधान में संलग्न होता दिखाई पड़ रहा है।

यहाँ तनिक उस सिद्धान्त की चर्चा कर लेना अप्रासंगिक न होगा, जो इस सूर्य-चिकित्सा प्रणाली के मूल में कार्य करता है। उल्लेखनीय है कि इस संसार के सभी प्राण-पदार्थ सूर्य की सविता-चेतना की स्थूल अभिव्यंजना हैं। इस बात को कुछ हद तक विज्ञान ने भी सिद्ध किया है। रूस के विख्यात विज्ञानवेत्ता किर्लिपन ने जब पदार्थों एवं जीवधारियों के चित्र लिए, तो उनके चारों ओर एक विशेष आभा दिखाई पड़ी, जिसका नाम प्रभामंडल रखा गया। आत्मवेत्ताओं के अनुसार यह वही सविता चेतना है, जिसके कारण प्रत्येक जड़ और जीव का अपना स्थूल अस्तित्व होता है। फोटोग्राफी से यह भी ज्ञात हुआ कि मानवी शरीर में प्रत्येक अंग का अपना पृथक् रंग है। बाद के अध्ययनों से यह भी विदित हुआ कि जब शरीर का कोई अवयव रुग्ण होता है, तो वह अपना स्वाभाविक वर्ण त्याग देता है। इससे यह निष्कर्ष निकल कर सामने आया कि स्वस्थता का रहस्य इन रंगों के पारस्परिक संतुलन में निहित है।

इस जगत में प्रकाश का स्रोत सूर्य है। सूर्य और मानवी शरीर में कितनी समानता है, इसका उल्लेख करते हुए बी0वी0 रमण अपने ग्रंथ “प्लेनेटरी इनफ्लुएन्सेज आन ह्ममन अफेयर्स” (पु.65) में लिखते हैं कि सूर्य की संरचना जिन रासायनिक तत्वों व वर्णों से हुई है, वही मानवी शरीर के भी मूल घटक हैं- इस तथ्य का रहस्योद्घाटन स्पेक्ट्रोस्काप करता है। कहना न होगा कि जब इस जलते गोले के सप्त वर्णों का समीकरण बिगड़ता है, तो वहाँ भी भारी उपद्रव उठ खड़ा होता है। सौर-विस्फोट इसी असंतुलन का परिणाम हैं। पहले ही कहा जा चुका है कि सूर्य और पृथ्वी के जीवधारियों में गहन तादात्म्य है। अतः जब भी वहाँ असंतुलन उत्पन्न होता है, पृथ्वी के पदार्थ और प्राणियों में उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। उस सौर-असंतुलन के कारण पृथ्वी पर प्राकृतिक आपदाओं से लेकर शारीरिक-मानसिक विपदाओं विपन्नताओं का आविर्भाव होता है। चूँकि इन दिनों सूर्य के सतरंगी किरणों का व्यतिक्रम हो गया है, अतः धरती पर जहाँ एक ओर बाढ़, भूकंप दुर्भिक्ष जैसे प्रकृति-प्रकोप बढ़े-चढ़े परिमाण में दृष्टिगोचर हो रहे हैं, रोगों, सनक व उन्मादों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है।

यह सब पदार्थ और मनुष्य के स्वाभाविक सूक्ष्म वर्णों में व्यतिरेक का परिणाम है। सूर्य-चिकित्सा-विज्ञान द्वारा मानवी शरीर में आये रंग संबंधी इन्हीं बदलावों को सुधार कर व्यक्ति को स्वस्थ बनाया जाता है इसके लिए सूर्य चिकित्सक रंगीन काँचों का इस्तेमाल करते हैं और बीमार अवयव में उनके माध्यम से अंगों के प्राकृतिक रंगों की बौछार तब तक करते रहते हैं जब तक वह अपना नैसर्गिक वर्ण प्राप्त न कर ले। मूल वर्ण प्राप्त करते ही अंग स्वस्थ और व्यक्ति नीरोग हो जाता है। कई बार चिकित्सक प्रकाश की जगह जल का उपयोग करते हैं। उसमें अभीष्ट रंग के सूर्य प्रकाश को कुछ घंटे तक संचारित करने के उपरान्त पानी उस वर्ण के गुणधर्म को अपने में ग्रहण-धारण कर लेता है। कुछ दिनों तक इस जल के प्रयोग से वैसा ही प्रतिफल सामने आता दिखाई पड़ता है, जैसा प्रत्यक्ष रंगीन प्रकाश के सेवन से।

आयुर्वेद में वात, पित्त, कफ का सिद्धान्त है। वह भी इन रंगों से मिलता-जुलता है। पीला रंग वात, लाल पित्त और नीला कफ से बहुत कुछ समानता रखता है। आयुर्वेद के निष्णात् जिस व्याधि को पित्त से उत्पन्न मानते हैं, उसे सूर्य चिकित्सक प्रायः लाल रंग से पैदा हुआ निर्णय करेगा। वैद्य जैसे दो या तीनों दोषों के मिलने से कई-कई मर्जों की उत्पत्ति बताते हैं, वैसे ही दो-दो या तीन-तीन वर्णों की

कमी से कई-कई रोग आविर्भूत हो सकते हैं, ऐसी सूर्य चिकित्सकों की मान्यता है। रोग-निवारण के लिए तद्नुरूप वे अनेक रंगों के साथ-साथ उपचार करते हैं शरीर में जब इस अभाव की पूर्ति हो जाती है, तो मरीज स्वस्थ हो जाता है।

सूर्य को धरती का प्राण अकारण ही नहीं कहा गया है। साधक को नीरोग, सबल, तेजस्वी जीवनी शक्ति संपन्न बनाने की प्रक्रिया सविता देवता संपन्न करते हैं। यदि सूर्यदेव की इस सामर्थ्य का सही मूल्याँकन कर उनके आरोग्य-वर्धक रूप से लाभ उठा लिया जाय तो अशक्त समुदाय की एक बड़ी सेवा की जा सकती है। आने वाले दिनों में मानवी स्वास्थ्य के शारीरिक मानसिक विवा पक्षों में भगवान भुवन भास्कर की निश्चित ही अति महत्वपूर्ण भूमिका होगी, इसमें कोई संदेह नहीं। अनेक साधन बन सकते हैं और छोटे-छोटे विभाजनों का एक बड़ा स्वरूप बन सकता है। समस्याएँ भी बड़े पैमाने पर हल हो सकती है।

इसी स्तर का दूसरा सरकारी प्रयास है ग्राम पंचायतों का-मंडल पंचायतों का संस्थापन। उनके माध्यम से अनेकों स्थानीय झगड़े-झंझट सुलझ सकते है। निर्माण के कतिपय प्रयोजन पूरे हो सकते हैं।

यही सभी उपयोगी संस्थाएँ है, पर उनमें लोगों की व्यक्तिगत प्रतिभा, प्रामाणिकता, आदर्शवादिता कर्तव्य-परायणता विकसित करने जैसे दार्शनिक प्रयास का एक अतिमहत्वपूर्ण पक्ष बच जाता है। इसे भी हाथ में लिया जाना चाहिए, अन्यथा अध्यात्मिकता का पुट लगाए बिना मात्र भौतिक प्रयत्नों की दौड़ अपने उद्देश्य पूरा न कर सकेगी। इसके लिए धर्मतंत्र के माध्यम से लोक शिक्षण ही सबसे सरल और प्रभावी तरीका है। जन्म दिवसोत्सवों और तरीका है। जन्म दिवसोत्सवों और संस्कार आयोजनों के लिए हर घर में ऐसी विचार गोष्ठी भी हो सकती है, जिनमें पड़ौसी, संबंधी, इष्ट, मित्र शामिल होते रहें, और नव सृजन की प्रेरणा पाते रहें। पर्व-त्यौहारों पर महामानवों की जयन्तियों पर गायत्री यज्ञ और प्रज्ञा आयोजनों के रूप में ऐसे समारोह होते रह सकते हैं, जिनमें बड़े क्षेत्र की अधिकाधिक जनता को आमंत्रित किया जाय और आने का आग्रह किया जाय और आने का आग्रह किया जाय। इन छोटे-बड़े समारोहों का उद्देश्य व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण से संबंधित सभी समस्याओं का स्वरूप एवं समाधान बताने का प्रयत्न किया जाय संगठित होने, परस्पर संपर्क साधने और मिलजुल कर किसी योजना को कार्यान्वित करने के लिए प्रथम चरण के रूप में यह सरल एवं कारगर चरण है। सरकारी पंचायतों और सहकारी समितियों को भी योगदान देना चाहिए ताकि वे अधिक फूले और सुदृढ़ हों स्मरण रखने योग्य बात यह है कि विकृतियों का अधिक विस्तार चिन्तन दृष्टिकोण, व्यक्तित्व का स्तर गिर जाने से हुआ है। इस क्षेत्र की सफाई और रंगाई करने के लिए लोक मानस का परिष्कार निताँत आवश्यक है। जन मानस में घुसी हुई अवाँछनीयताओं का उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन आवश्यक है। इसके लिए जितने भी उपाय-उपचार हो सकते हैं, उन्हें संगठित रूप में करने का प्रयत्न होना चाहिए।

संगठन का आरंभ करने के लिए आरंभ से ही बड़ी संख्या में लोग जमा करने की आवश्यकता नहीं है। यह कार्य कम से कम तीन से आरंभ किया जा सकता है। तीन व्यक्ति प्रयत्नशील रहें, अपना संपर्क क्षेत्र बढ़ाएँ तो उस संगठन की छत्र छाया में क्रमशः अनेकानेक लोग सम्मिलित होते चल सकते हैं। संख्या तीन से बढ़कर तीन सौ या तीन हजार भी हो सकती है। गायत्री परिवार के विराट परिकर का विस्तार इसी प्रकार हुआ है। एकाकी सूत्र संचालक का संकल्प मत्स्यावतार की तरह बढ़ता चला गया उसने सारा देश ही नहीं विश्व का एक बड़ा भाग भी अपने दायरे में समेट लिया। सदुद्देश्यों में क्षेत्र विस्तार की ऐसी ही अद्भुत शक्ति है। यदि उसके कार्य संचालक प्रामाणिक और लगनशील हो तो उसका आलोक व्यापक क्षेत्र में विकसित हुए बिना न रहेगा।

इस संदर्भ में एक ठोस कार्य यह होना चाहिए कि विज्ञजन नियमित रूप से चलती-चलनी चाहिए। भले ही वह न्यूनतम एक घंटा या दस पैसा नित्य जमा करने जितना स्वल्प क्यों न हो। यह समय और साधन की, अनुदान की सम्मिलित शक्ति संपदा इतना अधिक हो जाती है कि उसके एकत्रित होने पर अनेकों सत्प्रवृत्तियों का संचालन भली प्रकार हो सकता है।

समाज के नव निर्माण का न्यूनतम आधार समर्थ गुरु रामदास ने एक चार सूत्री कार्यक्रम बनाया था। (1) महावीर मंदिरों की स्थापना जहाँ से गतिविधियों का सूत्र संचालन होता रहे। (2) निकट ही व्यायामशाला की स्थापना जिसमें हर आयु और हर वर्ग के लोग स्वस्थता अर्जित करने का लाभ सोचकर परस्पर घुलते-मिलते रहें।(3) शिक्षा संवर्धन प्रौढ़ पाठशाला का-महिलाओं का बालकों का आदर्शवादी प्रशिक्षण। (4) नियमित कथाओं में यदि महापुरुषों की आदर्शवादी जीवन गाथाएँ किसी रूप में स्मरण कराई जाती रहें, तो उससे उससे उस अभाव की पूर्ति होती है कि आज सामने उच्चस्तरीय जीवन जीने वालों के घटनाक्रम देखने को नहीं मिलते। फलतः उनका अनुकरण भी नहीं बन पड़ता। कथाओं में दिवंगत लोग जीवित की तरह अपनी गरिमा का प्रदर्शन करते हुए भाव नेत्रों के सामने आ खड़े होते हैं। गाँधी जी, राजा हरिश्चन्द्र का नाटक देख कर ही सत्यनिष्ठा के लिए व्रतशील हुए थे। उपरोक्त चारों कार्यक्रम जिस क्षेत्र में आरंभ हुए उसमें से अनेकों स्वतंत्रता संग्राम में विविध विधि सहायता करने वाले भावनाशील उभरे।

इन दिनों भी उपरोक्त योजना का एक बड़ा अंश समाज सेवी योजना की दृष्टि से कार्यान्वित हो सकता है। जहाँ अनुरूप रचनात्मक कार्यों का शुभारंभ करना चाहिए।

दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन एक कार्य है उसमें विष-वृक्ष की जड़े उखाड़ना प्रमुख है। किन्तु इतने से ही काम नहीं चलता। होना यह भी चाहिए कि झाड़-झंखाड़ उखाड़ने, रोड़े कंकड़ बीनने के उपरान्त जमीन जोता बोया जाय। उसमें फसल या उद्यान लगाने का कार्य आरंभ किया जाय। मात्र रोग, कीटाणु मारने से ही स्वास्थ्य संवर्धन की पूरी।


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