ज्ञान और विज्ञान के शक्ति स्रोत गायत्री और यज्ञ

July 1993

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भारत भूमि की प्रसुप्त अंतरात्मा को जगाने के लिये ज्ञान और विज्ञान की प्रतिष्ठापना करना सर्वप्रथम कार्य है। ज्ञान और विज्ञान इन दोनों के बल पर ही कोई व्यक्ति या राष्ट्र उन्नति कर सकता है। जब इन दोनों में एक की भी कमी हो जाती है तो अधःपतन आरंभ हो जाता है। ज्ञान का अर्थ है-विद्या बुद्धिमत्ता,विवेक, दूरदर्शिता,सद्भावना, उदारता, न्याय प्रियता। विज्ञान का अर्थ है-बल, योग्यता, साधन शक्ति, संपन्नता शीघ्र सफलता प्राप्त करने की सामर्थ्य आत्मिक और भौतिक दोनों ही क्षेत्रों में जब संतुलित उन्नति होती है, तभी, उसे वास्तविक विकास माना जाता है। प्राचीन काल में भारत भूमि इन दोनोँ से ही परिपूर्ण थी। साधारण जनता से लेकर राजपरिवारों तथा .ऋषि आश्रमों में ज्ञान और विज्ञान की समुचित प्रतिष्ठा थी। राजकुमार भी ऋषियों के आश्रम में जाकर ज्ञान प्राप्त करते थे और विज्ञान की रहस्यमय नाना कलाओं से विज्ञ बनते थे। दिव्य शस्त्रास्त्रों, दिव्य वाहनों, दिव्य सामर्थ्यों के आश्चर्यजनक वर्णन प्राचीन इतिहास पुराणों में भरे पड़े हैं। ऋषि लोग आत्म चिन्तन में, परमार्थ साधनाओं में संलग्न रहते थे तो भी उनको अष्ट सिद्धि नवनिधि सरीखी लोकोत्तर शक्तियाँ उपलब्ध रहती थी। भारत प्राचीन काल में बुद्धिमान बनने के लिये ज्ञान की और बलवान बनने के लिये ज्ञान की और बलवान बनने के लिये विज्ञान की उपासना करने में सदैव संलग्न रहता था। योगी लोग जहाँ भक्ति भावना द्वारा भगवान में संलग्न होते थे वहाँ कष्ट साध्य साधनाओं तथा तपश्चर्याओं द्वारा अपने में अनेक प्रकार की सामर्थ्य भी उत्पन्न करते थे। भावना से भगवान और साधना से शक्ति प्राप्त होती है, यह निर्विवाद है।

आज का ज्ञान प्रत्यक्ष दृश्यों अनुभवों तथा विज्ञान मशीनों पर अवलंबित है। भौतिक जानकारी तथा शक्तियों प्राप्त करने के लिये भौतिक उपकरण ही आज के वैज्ञानिक प्रयोग कर रहे है। यह तरीका बहुत खर्चीली, श्रमसाध्य, स्वल्प-फलदायक एवं अचिर-अस्थायी है। जो ज्ञान बड़े-बड़े विद्वानों, प्रोफेसरों, रिसर्च स्कालरों द्वारा उत्पन्न किया जा रहा है, वह भौतिक जानकारी तो काफी बढ़ा देता है, पर उससे अंतःकरण में आत्मिक महानता, उदार दृष्टि तथा लोकसेवा के लिये आत्म त्याग करने की भावना पैदा नहीं होती है। आज का तथाकथित “ज्ञान” मनुष्य को अधिक स्वार्थी, धूर्त खर्चीला एवं बनावट पसंद बनाता जा रहा है। दूसरी ओर जो वैज्ञानिक उन्नति हो रही है उससे एक ओर उससे अधिक हानि हो जाती है। रासायनिक खाद देकर खेती की पैदावार बढ़ाई जा रही है, पर इस प्रकार के खाद से जो खाद्य पैदा होता है, उसमें अनेक हानिकारक तत्व रहते हैं, उसमें अनेक हानिकारक तत्व रहते हैं जो स्वास्थ्य को बिगाड़ते हैं। कल कारखानों में वस्तुयें बड़ी मात्रा में तैयार होती है, पर उनके धुएँ से, शोर से वहाँ काम करने वालो पर तथा निकटवर्ती लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है, उसकी हानि का अंदाजा लगाया जाय तो उसकी हानि का अंदाजा लगाया जाय तो उसकी हानि भी कम भयंकर नहीं है वैज्ञानिक चिंतित है कि एक शताब्दी के भीतर पत्थर का कोयला जलाऊ तेल, पेट्रोल आदि पृथ्वी में भरे हुए ईंधन समाप्त हो जायेंगे तब आप की मशीनें बिलकुल बेकार हो जायेगी। बिजली बनाने की मशीनें बिलकुल बेकार हो जायेगी। बिजली बनने के स्रोत भी दिन-दिन सूखते जावेंगे और अणु विस्फोट से यदि अधिक शक्ति पैदा की जाने लगी, तो उसका प्रभाव वायुमण्डल पर बुरा होगा।

प्राचीनकाल में ज्ञान और विज्ञान के आधार आज से भिन्न थे। आज जिस प्रकार हर वस्तु जड़ जगत् में से, भौतिक परमाणुओं में से खोजी जाती और उपलब्ध की जाती है, उसी प्रकार प्राचीन काल में प्रत्येक बात, प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक शक्ति आत्मिक जगत में से ढूंढ़ी जाती थी। आज का आधार भौतिकता है, प्राचीन काल का आधार आध्यात्मिक था। विज्ञान का यह सर्वविदित तथ्य है कि जितना कुछ पदार्थ प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर हो रहा है-स्थूल है। उसकी अपेक्षा असंख्यों गुना वही पदार्थ अदृश्य-सूक्ष्म रूप से इस अखिल आकाश में भ्रमण करता रहता है पृथ्वी पर यदि सौ टन पानी भरा माना जाय, तो आकाश में करोड़ों टन पानी हर समय अदृश्य रूप से घूमता हुआ माना जायगा। हमारा विचार और संकल्प भी एक पदार्थ है। इस पदार्थ में एक प्रकार की चुम्बक शक्ति उत्पन्न की जा सकती है और उसकी सहायता से अदृश्य जगत में भ्रमण करते रहने वाले किन्हीं विशेष पदार्थों के परमाणुओं को खींचकर अपनी ओर लाया जा सकता है। विज्ञान के इस आधार को पकड़कर ऋषियों ने यह देखा कि जब सृष्टि के सभी पदार्थ के अणु अपने शरीर क्षेत्र तथा मनः क्षेत्र में विद्यमान है तो उनमें से उपयोगी अणुओं को विकसित करके उसी जाति के असंख्य अणुओं का जगत में से खींचकर अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेने का प्रयोजन सिद्ध क्यों न किया जाय? उन्होंने इसी आधार पर विज्ञान की खोज की और अपने शरीर तथा मन में छिपी हुई नाना प्रकार की शक्तियों को विविध साधनाओं द्वारा जाग्रत किया। फलस्वरूप उनकी पकड़ने की शक्ति इतनी बलवान हो गई कि जिस प्रकार (खाली) अपनी लम्बी गर्दन पानी में डुबोकर चाहे जहाँ से मछली पकड़ लेती है, उसी प्रकार वे आकाश क्षेत्र में से नाना प्रकार की वस्तुएँ सामर्थ्य तथा शक्तियां पकड़ लेते थे।

ज्ञान और विज्ञान की हमारी प्राचीन शोध गायत्री और यज्ञ के आधार पर होती थी, क्योंकि यही दोनों आध्यात्म विद्या के माता-पिता है। गायत्री ज्ञान रूपिणी है, यज्ञ विज्ञान प्रतीक है। गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों में मनुष्य जाति का ठीक प्रकार प्रदर्शन करने वाली शिक्षायें भरी हुई है। इसके अतिरिक्त उन अक्षरों का गुँथन रहस्यमयी विद्या के रहस्यमय आधार पर भी है। इन 24 अक्षरों को यदि शास्त्रोक्त उपासना विधान के अनुसार की उपयोग किया जाय, तो शरीर और मन में भरी हुई अलौकिक शक्तियाँ अपने-अपने ढंग से अपने-अपने समय पर स्वयमेव उद्भूत होती जाती है। आध्यात्मिक गुणों की तेजी से अभिवृद्धि होती है, बुद्धि तीव्र होती है तथा ऐसी दूरदर्शिता का विकास होता है, जिसके आधार पर जीवन की समस्या की अनेक गुत्थियों को सरल किया जा सके।

यज्ञ का विज्ञान अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। वेदमंत्रों की शब्द शक्ति को विशिष्ट कुण्डों,समिधाओं, हवियों चरुओ के साथ उत्पन्न की हुई विशेष सामर्थ्यवान अग्नि में सम्मिश्रित कर देने पर रेडियो सक्रिय शक्ति तरंगें रेडार यंत्र की तरह संसार के किसी भी भाग में भेजी जा सकती हैं, किसी व्यक्ति विशेष प्रयोजन के शरीर में भरी जा सकती है प्रकृति के गुह्य गह्वर में किसी विशेष प्रयोजन के लिये प्रविष्ट कराई जा सकती है। वर्षा, धान्य, दध, आरोग्य, प्राण जीवन आदि की पृथ्वी पर अभिवृद्धि कराने के लिये उनका उपयोग किया जा सकता है। भावनाओं विचारधाराओं तथा परिस्थितियों के परिवर्तन के लिये यज्ञ से उत्पन्न शक्तियों का उपयोग हो सकता है इस प्रकार के अगणित कारण और लाभ है जिनके कारण और लाभ है जिनके कारण यज्ञ को एक अत्यन्त आवश्यक प्रक्रिया माना गया है। हिन्दू धर्म में प्रत्येक पर्व, उत्सव, पूजन, कर्मकाण्ड व्रत, संस्कार, त्यौहार, उपासना, साधन यज्ञ के साथ ही होता है। प्रसूति गृह में अखंड अग्नि की स्थापना के साथ हिन्दू बालक का जन्म होता है और जीवन लीला समाप्त होने पर यज्ञ भगवान को अन्त्येष्टि के साथ शरीर सौंप दिया जाता है। यज्ञ को इतना महत्व ऋषियों ने इसलिये दिया था कि वह न केवल अनेकों भौतिक शक्तियों को देने वाला है, वरन् आत्मा का कल्याण करने वाला शरीर और मन को निर्मल, निर्विकार बनाकर शान्तिदायक परिस्थितियाँ उत्पन्न करने वाला भी है।

साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिये हमें ज्ञान और विज्ञान की आवश्यकता होगी। इसके बिना वह महान कार्य संपन्न न हो सकेगा। भारतीय संस्कृति का बीज मंत्र गायत्री है। उसी की शिक्षाओं तथा शक्तियों के आधार पर हमारा सारा ढाँचा खड़ा हुआ है। अग्नि के समान तेजस्वी रहना यही तो हिन्दू जीवन का आदर्श है। भौतिक माता-पिता हमें शरीर संपत्ति, शिक्षा सुविधा आश्रय, सहयोग, स्नेह आदि बहुत कुछ देते हैं। गायत्री माता और यज्ञ पिता की यदि हम प्रतिष्ठा और उपासना करें तो इसके द्वारा हम और भी उत्तम एवं महत्वपूर्ण वस्तुयें प्राप्त कर सकते है।


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