एक प्रेमी की व्यथा

July 1993

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“गुरुदेव! मुझे पता नहीं तुम कहाँ आए? क्या करते हो? मेरे मन में तो आज विरह-व्यथा के बादल घुमड़ रहे हैं। प्रेमी होंगे हो तुम्हें पता होगा, विरह की वेदना में कितनी छटपटाहट है। प्राणाधार! तुम कहाँ हो तुम्हें पुकार कर मेरा मन अधीर हो चला। संसार से विरक्ति कर ली, अब मेरा कौन रहा? तुम भी छोड़ दोगे? तुम्हारे भक्त की, तुम्हारे प्रेमी की कैसी दशा है? क्या तुम भी उसे देखने नहीं आयेंगे? क्या यों ही मन भटकता रहेगा और तुम दर्शन नहीं दोगे?”

“विरह की पीड़ा घनी-घनी और घनी होती जा रही है। मुझे अपनी परम ज्योति का साक्षात्कार करा कर संतोष दो गुरुवर! कब से आंखें तुम्हारी ओर निर्निमेष देख रही हैं। तुम कहोगे मैं पागल हो गया हूँ। देवेश! कैसे बताऊँ मेरी मनोदशा तुम्हें न पाकर कैसी हो गई है।”

“धैर्य टूट रहा है, इधर उधर दौड़ रहा हूँ, व्याकुल होकर भुजा पसारे तुम्हें पा जाने के लिए बेचैन भटक रहा हूँ। हृदय रोने लगता है। विरह अग्नि से सारा शरीर झुलसा जा रहा है। कैसे निष्ठुर हो तुम। अपने समीप नहीं रखना था तो जीवन क्यों दिया था? जीवन दिया तो भक्ति क्यों दी? भक्ति दे दी तो प्रेम विहीन ही रखते। पर अब जब यह कसक जाग गई है तो तुम्हें पाये बिना जीवित कहाँ रह सकता हूँ? तुम कहो तुम कहाँ हो? आते क्यों नहीं? दिखाई क्यों नहीं देते? जीवन की नाव में विरह का जल भर चुका है। नाव तली में बैठने को है, लगता है अब भी बचाने नहीं आओगे, तो संसार मेरे विश्वास को झूठा नहीं कहेगा? मेरी तपश्चर्या को विक्षिप्त का प्रलाप नहीं कहेगा क्या? क्या तुम यह सब सुनकर भी नहीं आओगे?”

“साँसें गहरी हो गई हैं, गर्म हो गई हैं। शरीर मूर्छित पड़ा है। रात में नींद नहीं आई। मन तुम्हारे लिए दौड़ता रहा। नक्षत्रों के बीच एक क्षण टिक कर तुम्हारे सौंदर्य का रसपान करने के लिए बिलखता रहा। तुम्हारी ज्योति कभी पूर्व में दिखाई दी, कभी पश्चिम में। इतना भटकाते हो, कभी दक्षिण में होते हो और जब तक आत्मा वहाँ पहुँचे तुम उत्तर की ओर क्यों चले जाते हो। क्या यह छलना ही तुम्हारी नीति है? क्या विरहाग्नि में मुझे जलाकर ही तुम्हें सुख मिलेगा?”

“तुम्हें तो करुणा-सागर कहते हैं, पर तुम बड़े निष्ठुर हो। तुम दीन-बन्धु हो पर तुम्हें मेरी दीनता पर दया कहाँ आई? कहते हैं तुम इतने स्नेह कातर हो कि प्रेम से भरी एक ही आवाज पर दौड़े चले आते ही पर अपना मन सारे ब्रह्मांड में भटक गया पर तुम कहीं भी तो नहीं दिखाई दिए। दयानिधि! तुम्हें मेरी पीड़ा का पता होता तो यों ही प्रकृति की ओट में न छुपे रहते। तुम ऐश्वर्यवान हो, प्रभुता संपन्न हो, सारे संसार में तुम्हारा ही वैभव है, तुम भला क्यों मेरे पास आने लगे? यों ही भटकाना था तो प्रेम का प्रकाश अन्तःकरण में जगाया ही क्यों?”

थके-थके शरीर में भी आत्मा को चैन नहीं मिलता। फिर एक प्रकाश आता है बुद्धि में ओतप्रोत हो जाता है। मस्तिष्क में फिर कोई कहने लगता है “आराध्य! मुझसे दूर नहीं हो। मन में तुम्हीं तो बसे हो, आंखों में तुम्हारी ही तो छवि विद्यमान है। मेरी पहुँच के बाहर थोड़े ही हो। अभी हाथ बढ़ा दूँ तो तुम्हें पकड़ लूँ। बहुत समीप हो तुम। कहीं ऐसा तो नहीं, फिर छल करने आये हो। अब पूरी तरह विश्वास कर लूँगा कि अब नहीं जाओगे, तभी हाथ बढ़ाऊंगा। तुम्हें मरे प्रेम की प्यास है तो फिर तुम मुझसे दूर क्यों हो जाते हो? अच्छा अब मैं हाथ बढ़ता हूँ तुम ओझल नहीं हो रहे हो पर पास भी तो नहीं आते। चमक उठते हो तुम जब मैं तुम्हें ढूंढ़ता हूँ, पर जब तुम्हीं में आत्म सात हो जाने के लिए दो पग आगे बढ़ता हूँ तो मैं ही मैं अकेला रह जाता हूँ तुम कहाँ चले जाते हो? कैसी विलक्षण कहानी है, कुछ कहते नहीं बनता गूँगे के गुड़ की सी मधुरिमा मेरे अंग प्रत्यंग में भर देते हो। इतना विश्वास दिलाते हो जितना संसार के करोड़ों जन मिलकर भी नहीं दिला सकते, पर इतने अविश्वासी हो कि एक ही क्षण में दूर भाग जाते हो। प्रभु! प्रेम की पीड़ा इतनी न बढ़े कि आग बन जाए और उसमें तुम्हारे भक्त का अस्तित्व ही समाप्त हो जाए।”

“समाप्त होना ही है तो हो जाए। कब तक यह दर्द सहूँ? तुम्हारे सान्निध्य की ललक है। चाह से मन भर गया है। तुम्हें पाने के लिए जो कुछ था सब छोड़ दिया, अब जो है वह तुम्हारा ही तो है। तुम्हारा तुममें ही समाप्त होता है तो हो जाने दूँगा। अब यह नहीं भूलूँगा कि मुझे अपना अहंभाव भी तुम्हीं में समर्पित कर देना है। अपने अस्तित्व को अब मिलन के रास्ते में बाधा न बनने दूँगा। पैरों में चाहे कितने काँटे और कंकड़ चुभें पर मुसकराता हुआ चलूँगा, जब तक तुम्हें स्वयं समा न जाऊँ, कितनी ही पीड़ा हो, कितनी ही छटपटाहट हो, हूक और ललक उठे मेरे पाँव रुकेंगें नहीं। दीवानगी का अंत तो अब तुममें समाकर ही होगा।”


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