समाज के पुनर्निर्माण की दिशा में कुछ ठोस कदम

July 1993

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गाय घोड़ा आदि पालने वाले उनकी समुचित देख-भाल रखते हैं। कठिनाइयों को सुलझाते और सुविधाओं को बढ़ाते हैं तो वे हृष्ट पुष्ट भी रहते हैं। और मालिक की देख-भाल पर प्रसन्नता भी व्यक्त करते हैं। किन्तु उनकी उपेक्षा बरती जाय, तो न केवल उदास रहते हैं, और मालिक की देख-भाल पर प्रसन्नता भी व्यक्त करते हैं। किन्तु उनकी उपेक्षा बरती जाय, तो न केवल उदास रहते हैं, वरन् क्षीण भी होने लगते हैं। राजाओं के निजी हाथी-घोड़े उन्हें अन्यायों की तुलना में अधिक अच्छी तरह पहचानते थे और उनका आदेश पालने, वफादारी दिखाने में पीछे नहीं रहते थे इसका कारण यह था कि वे उनके हिमायती एवं साथी हैं। इसका परिणाम प्रतिदान के रूप में जानवरों की ओर से भी वैसा ही दिया जाता था लड़ाई के मैदान में वे मालिक के इशारे पर जान तक होमने को तैयार रहते थे।

समाज भी ऐसा ही महागज है उसके ऊपर उसके सदस्यों की पूरी देखभाल रहनी आवश्यक हैं। जो व्यक्ति अपने शरीर और मन के परिपोषण, अभिवर्धन का ध्यान रखता है उसकी काया सुदृढ़ बनी रहती है और दीर्घायुष्य जीने की सुविधा भी मिलती है। ठीक यही बात समाज के ऊपर भी लागू होती है। उसके सदस्यगण यदि सर्वजनीन उत्कर्ष का ध्यान रखते है, सामाजिक वातावरण को उच्चस्तरीय बनाए रखने में पूरा-पूरा ध्यान देते हैं तो उसका अभ्युदय,उत्कर्ष, परिष्कृति करण स्वाभाविक है। उपेक्षा का बर्ताव भी ऐसा है, जिसका परिणाम सड़ांध बढ़ते जाने और अनेकानेक विकृतियों के घुस पड़ने के रूप में दृष्टिगोचर होता है। यह न होने पाए इसके लिए उन सभी विचारवानों को समुचित ध्यान रखना चाहिए जो अपने आप को समाज का जिम्मेदार सदस्य मानते हैं। अपनी नागरिक जिम्मेदारी और समाज निष्ठा के प्रति निरंतर सतर्क रहते हैं।

समाज का आकार प्रकार बहुत बड़ा है। उसकी शाखा प्रशाखाएँ तो अनेकानेक हैं पर साथ ही वैसे कोंतर भी कम नहीं है जो थोड़ी सी खाली जगह होते ही पक्षियों द्वारा गहरी लम्बाई में पोजे खोखले कर दिए जाते हैं। इससे पेड़ कुरूप भी होता है और कमजोर भी। जहाँ मालिकों की देखभाल रहती है। वहाँ ऐसी दुर्गति बनने नहीं पाती।

प्रत्येक जिम्मेदार नागरिक को शरीर, परिवार उपार्जन की तरह ही समाज व्यवस्था के हर पक्ष पर ध्यान रखना चाहिए। जहाँ उत्कर्ष की गुँजाइश है, वहाँ मिलजुल कर उसकी पूर्ति करनी चाहिए। यहाँ यह आवश्यक है कि समाज सुधार एवं सामूहिक अभ्युदय का कार्य मिलजुल कर संगठित रूप से ही हो सकता है कोई प्रतिभावान कितना ही समर्थ चतुर क्यों न हों, पर एकाकी प्रयास से कुछ सीमित कार्य ही कर सकता है। इसलिए समाज के प्रति सच्ची निष्ठा रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्रभाव-परिचय के क्षेत्र में समाज सेवी संगठन खड़े करने और उन्हें मजबूत बनाने के प्रयत्न करने चाहिएं राम, कृष्ण, गाँधी, बुद्ध आदि अवतारी महा मानव थे। फिर भी उन्होंने अपने-अपने कार्य प्रयोजनों के लिए साथियों के बड़े-बड़े समुदाय एकत्रित किए थे यह कार्य अपने समय में भी अनिवार्य रूप से आवश्यक है। समाज सेवा के एक-एक पक्ष को लेकर कतिपय अन्यान्य संस्थाएँ भी काम कर रही है। पर जिसने हर पहलू पर व्यापक दृष्टि से सोचा और नव निर्माण का समय ढाँचा बनाया हो, वह युग निर्माण योजना या प्रज्ञा अभियान अपने ढंग का अनोखा है। उसकी गतिविधियाँ इतनी लोकप्रिय हुई है कि समर्थक और सहायकों की शृंखला में भाव-भरी कड़ियाँ निरंतर जुड़ती जा रही हैं और संगठन सुदृढ़ ही नहीं सुविस्तृत भी होता जाता है। स्थान-स्थान पर अलग-अलग नाम, रूप, उद्देश्य और कार्यक्रमों को छुटपुट ढाँचे खड़े करने की अपेक्षा यही उत्तम है कि इसी संगठन के अंतर्गत काम किया जाय। अनेकानेकों की प्राण शक्ति के सम्मिलित ऊर्जा भण्डार का जो उद्भव हो रहा है, उसी महाप्रयास में अपना योगदान जोड़ देना चाहिए।

हम सबको यह स्मरण रखना चाहिए कि विनाश तो एक जलती हुई माचिस की तीली या चिनगारी भी कर सकती है, पर उठाने-बढ़ाने के लिए संयुक्त जनशक्ति का उद्भव किए बिना काम नहीं चल सकता। इसके लिए आर्थिक क्षेत्र को प्रधान मानकर सरकार की ओर से सहकारी संगठनों का विभाग बनाया गया है। उससे संबंधित अनेकानेक समितियाँ बन रही हैं। सहकारी बैंक-सहकारी स्टोर आदि खुल रहे है। यदि उस संगठन के सभी सदस्य देश सेवा की भावना से भरे पूरे हों और मिलजुल कर काम करने की आदत डाले, तो आर्थिक उत्कर्ष के समस्या हल नहीं हो जाती। आहार विहार के साधन भी जुटाने पड़ते हैं। लंका दहन तो एकांगी था। समग्रता के लिए रामराज्य की स्थापना भी उत्तरार्ध में आवश्यक हुई। घायल का मात्र आपरेशन ही पूर्ण नहीं है। उसके बाद टाँके लगाने और घाव भरने का दूसरा कार्य भी उतनी ही निष्ठा से करना पड़ता है। अंधेरा दूर करने के लिए प्रकाश जलाने तक की बात अच्छी होते हुए भी अधूरी है। पूर्णता तब बनती है जब उस प्रकाश की परिधि में कुछ उपयोगी कार्य भी ऐसे चल पड़े, जो रचनात्मक हों।

कुरीति उन्मूलन को एक महत्वपूर्ण पक्ष तो माना जाय पर यह न भुला दिया जाय कि उसके साथ ही सत्प्रवृत्ति संवर्धन के निमित्त भी जुटने की आवश्यकता है। परशुराम जी ने अपने जीवन में झाड़-झंखाड़ों का उच्छेदन किया और उसके उपराँत वे उद्यान आरोपण में शेष आधे जीवन को नियोजित किए रहे। अंग्रेजी सरकार को भगा देने के उपराँत अब हमें अनेकों सृजन योजनाओं के विकास कार्यक्रम पूरे करने पड़ रहे हैं।

सृजनात्मक प्रवृत्तियों में अर्थ उपार्जन को प्रथम दर्जा दिया जाता है। गरीबी हटाओ का नारा किसी उद्देश्य से दिया गया है। पर संतोष की बात इतनी है कि रोटी कपड़ा और मकान की आवश्यकताएँ शरीर के साथ इतनी सघनता पूर्वक जुड़ी हुई है कि व्यक्ति हर स्थिति में हर उपाय से इन्हें इस स्तर पर अर्जित कर लेता है कि वह जीवित रह सके।

जिसके बिना प्रगति रुकती है वह है शिक्षा का अर्थ सामान्यतया न्यूनतम साक्षरता और अधिकतम नौकरी में काम आने वाले प्रमाण पत्र तक सीमित समझा जाता है। पर असल में शिक्षा वह है जिसके आधार पर व्यक्तित्व को सुसंस्कृत, परिष्कृत एवं प्रतिभावान बनाया जा सके। यह प्रयोजन स्कूली पढ़ाई से पूरा नहीं होता क्योंकि उसमें जीवन काल से संबंधित महत्वपूर्ण बारीकियों का समावेश नहीं है। यह कार्य धार्मिक एवं सामाजिक सेवाभावी संस्थाओं को अपने जिम्मे लेना चाहिए। इस निमित्त स्वतंत्र कक्षाएँ और परीक्षाएँ चलनी चाहिए। अशिक्षितों को भी सुनने कहने के आधार पर यह ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। स्कूली बच्चों को पाठ पक्का करने के अतिरिक्त आस्तिकता एवं सामाजिकता के हर पक्ष की शिक्षा दी जानी चाहिए। इसके लिए बाल संस्कारशाला जैसी स्थापनाओं की सेवा भावी अध्यापकों द्वारा ऐसे समय में व्यवस्था की जानी चाहिए जो स्कूली पढ़ाई से बचता हो। सबसे महत्वपूर्ण प्रयोग इस संबंध में हो सकता है सद्ज्ञान पुस्तकालय। इसमें मात्र उन्हीं विषयों की पुस्तकें रहें जो व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास एवं समाज में संव्याप्त समस्याओं के स्वरूप और समाधान के समय के अनुरूप एवं आदर्शवादी आधार पर सर्वसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत कर सके।

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कला के कई पक्षों को भी काम में लाया जा सकता है। संगीत गायन, अभिनय के माध्यम से विचारणा एवं भावना की दिशा दी जा सकती हैं। कठिनाई यह है कि घटिया स्तर का मानस उथली, बचकानी प्रवृत्तियों को भड़काने वाले माध्यम ही पसंद करता है। आदर्शवाद उसके गले नहीं उतरता। ऐसी दशा में यह एक विशेष आवश्यकता सामने आ पड़ती है कि सर्वसाधारण की रुचि को निष्क्रियता से विरत करके उत्कृष्टता के साथ किस प्रकार जोड़ा जाय। इसका उपचार वह है जो दुर्व्यसनी अपने साथी संगाती बनाने बढ़ाने के लिए करते हैं। वे संपर्क साधते हैं। घनिष्ठता बढ़ाते हैं। अपने प्रिय आधारों के साथ उनका रिश्ता जोड़ते हैं, चस्का लगाते हैं। इसके बाद चिड़िया फंसाते हैं जो नियत पिंजड़े में ही जिन्दगी बिताती है। नशेबाजी का तौर-तरीका यही है। सत्प्रवृत्ति संवर्धन में भी समाजनिष्ठ लोगों को यही करना चाहिए उन्हें जीवन साहित्य को पढ़ाने सुनाने तथा इसी स्तर की कलायें रस लेने की आदत डालनी चाहिए। इसके लिए जनसंपर्क साधने और रचनात्मक कार्यक्रमों के आकर्षक दृश्य दिखाने की आवश्यकता है।

सामाजिक समस्याएँ विभिन्न क्षेत्रों भाषाओं, संप्रदायों, कबीलों में अलग-अलग प्रकार की हो सकती है पहले उन क्षेत्रों में जाकर स्थिति को समझना होगा। तदुपराँत लोगों की मनोभूमि के

साथ संगति बिठाते हुए उन्हें ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने की स्थिति के अनुरूप मार्ग दिखाना होगा।

शरीर के लिए रोटी कपड़ा और मकान की आवश्यकता पूरी करने के लिए आज लोगों द्वारा जिस प्रकार प्रयास किए जाते हैं उसी प्रकार चेतना की, अन्तरात्मा की तुष्टि, तृप्ति, एवं शान्ति के लिए शिक्षा की आवश्यकता है उसके लिए धर्म, दर्शन, नीतिशास्त्र, समाज विज्ञान जैसे विषयों में भी प्रवीणता प्राप्त करनी चाहिए समाज निर्माण के अन्याय अनेक कार्यों में आजीविका की तरह जीवन शिक्षा को भी अति आवश्यक माना गया है।


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