महाप्रभु ईसा के अज्ञात जीवन के अनसुलझे रहस्य

July 1993

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बाइबिल के ‘न्यू टेस्टामेण्ट’ के मत्ती, मरकुस, लूका, जाँन, यूहन्ना आदि अंजीलों के अंतिम काण्डों में ईसा के सूली पर चढ़ाये जाने, दफनाये जाने के बाद कब्र से गायब होने तथा पुनर्जीवित होने का वर्णन है। उनमें उल्लेख है कि पुनर्जीवन के बाद सबसे पहले उनने मरियम मबदलीनीनी एवं मरियम को दर्शन दिया और उनसे अपने शिष्यों को गलीलिया नामक पर्वत पर मिलने को कहा। यरुशलेम से सात मील दूर इम्माऊस में भी वे कुछ व्यक्तियों से मिले थे। गलीलिया पर्वत पर ग्यारह प्रमुख शिष्यों से मिलने के पश्चात् वे उन्हें वैतनिययाह तक ले गये और हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया तथा अलग हो गये। शिष्य तो उन्हें प्रणाम करके वापस यरुशलेम लौट गये, पर ईसा कहीं अंतर्ध्यान हो गये।

अनुसंधानकर्ता मनीषियों ने उन लुप्तप्राय कड़ियों को अब खोज निकाला है जिनसे प्रमाणित होता है कि पुनर्जीवित होने और शिष्यों से मिलकर उन्हें कर्मक्षेत्र में उतरने का आदेश देने की यात्रा करते हुए दूसरी बार भारत आ गये थे और कश्मीर को अपना स्थायी निवास बनाया था। लोगों की उन पर श्रद्धा थी। 80 वर्ष से अधिक की परिपक्व अवस्था में वहीं पर उनने अपना पंचभौतिक शरीर त्यागा था, जिसके अनेकों प्रमाण अभी भी वहाँ विद्यमान है।

जर्मनी के मूर्धन्य मनीषी होल्गर केर्स्टन ने इस संदर्भ में गहराई से खोज-बीन की है। इसराइल, मध्य पूर्व देशों, अफगानिस्तान और भारत सहित उन सभी ऐतिहासिक स्थलों की उनने यात्रा की जो किसी न किसी रूप में ईसा से संबंधित हैं। उन्होंने अपनी और अपने पूर्ववर्ती खोजकर्ताओं द्वारा इस संबंध में की गयी प्रामाणिक खोजों को “जीसस लिव्ड इन इंडिया” नामक पुस्तक में सविस्तार प्रकाशित किया है जिसमें ईसा के सूली पर चढ़ाये जाने से पहले एवं बाद के अज्ञात जीवन की संपूर्ण जानकारी संग्रहित है। उसके अनुसार सन् 6 में लगभग 13 वर्ष की उम्र में ईसा व्यापारियों के एक वर्ग के साथ पहली बार भारत आये थे और लगभग 16-17 वर्ष तक पुरी एवं तिब्बत के बौद्ध विहारों में अध्ययनरत रहे। वैदिक साहित्य एवं बौद्ध दर्शन के अध्ययनरत रहे। वैदिक साहित्य एवं बौद्ध दर्शन के अध्ययन के साथ-साथ उनने उच्चस्तरीय तप साधनाएँ भी की थीं। यही कारण था कि जब सन् 30 में 30 वर्ष की आयु में वे वापस यरुशलेम पहुँचे तो भौतिक सिद्धियों और आत्मिक विभूतियों से संपन्न महामान बनकर पहुँचे। उनकी इस क्षमता से प्रभावित होकर लोगों की भारी भीड़ सदैव उन्हें घेरे रहती थी। अपने मिशन का प्रचार करते हुए तीन वर्ष से कुछ अधिक ही दिन बीते थे कि विरोधियों ने उन पर ईश निन्दा का अभियोग लगाकर सूली पर चढ़ा दिया और घोषणा कर दी गयी कि ईसा की मृत्यु हो गयी।

ईसा को जिस कब्र में दफनाया गया था, देखने पर वह खाली मिली चमत्कार स्वरूप जीवित होकर गलीलिया (गलीली, पर्वत पर चले गये थे जैसा कि बाइबिल में उल्लेख है कि वहाँ पर शिष्यों से मिलने के बाद वे लुप्त हो गये। सन् 34 में उनकी भेंट डैमस्कस (दमिश्क) में पाँल से हुई और वह उनका शिष्य बन गया। इसके बाद वे कुछ दिन निसबिस तुर्की में ठहरे और ईरान सहित आसपास के देशों में उपदेश करते रहे, तदुपरान्त तक्षशिला होते हुए कश्मीर आ गये और वहीं पर 80 वर्ष की उम्र में शरीर त्यागा, ऐसा केर्स्टन का मत है।

सुप्रसिद्ध कानूनविद् अलहज ख्वाजा नजीर अहमद ने भी अपनी पुस्तक “जीसस इन हेवन आन अर्थ” में लिखा है कि ईसा ने भारत में न केवल अपने यौवन के 17-18 वर्ष अध्ययन एवं साधना में बिताये थे, वरन् सूली पर चढ़ाये जाने के बाद पुनर्जीवित होकर दूसरी बार भारत आ गये थे और कश्मीर में रहने लगे थे। वृद्धावस्था में यहीं पर उनका स्वर्गवास हुआ था उनके अनुसार स्वयं मूसा भी कभी काश्मीर आयें थे।

पर्शिया के सुविख्यात इतिहासवेत्ता मीरकावन्द ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि पुनर्जीवन के बाद ईसा डैमस्कस चले गये। जिस स्थान पर वे लोगों को उपदेश किया करते थे। वह “मायौम-इ-ईसा” के नाम से जाना जाता है और डैमस्कस से 5 कि0मी0 दूर स्थित है। ईसा को वहाँ ठहरे हुए कुछ ही दिन बीते थे कि तुर्की में निसबिस के प्रशासक ने उन्हें अपनी चिकित्सा के बुला लिया। ईसा ने पहले तो अपने एक शिष्य-थाँमस को उसके पास भेजा जिसके उपचार से ही बादशाह ठीक हो गया। पीछे वे भी निसबिस पहुँच गये। इमा-अबू-जफर मोहम्मद ने अपनी कृति “तफसीर-इब्न जरीर एत-तबरी” में लिखा है कि यह घटना सन् 35 के बाद की है। इसके पश्चात् वे जगह-जगह घूमते और उपदेश करते रहे।

सूली पर चढ़ाये जाने एवं पुनर्जीवित होकर अन्यत्र चले जाने के बाद उनका उपचार चले जाने के बाद उनका उपचार जड़ी-बूटी द्वारा किये जाने का उल्लेख तिब्बत हेमिस मठ में रखे दस्तावेजों में सुरक्षित है। इसकी पुष्टि करते हुए नोतोबिच ने अपनी कृति” द अननोन लाइफ ऑफ दी जीसस क्राइस्ट” में कहा है कि स्वस्थ होने के पश्चात् ईसामसीह ने तक्षशिला होते हुए दूसरी बार भारत में प्रवेश किया। उन दिनों बृहत्तर भारत की सीमाएं ईरान और अफगानिस्तान तक फैली हुई थीं। तुर्की और सीरिया के मध्य स्थित ‘निसबिस’ (नुसायबिन) को छोड़कर वे सन् 41-50 में तक्षशिला पहुँचे थे वहीं इनकी भेंट इण्डो-पर्शियन बादशाह गुन्दाफर से हुई। इससे पूर्व उन्होंने ईरान, पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान की यात्राएँ की थी और जगह-जगह उपदेश किये थे। ईसा के पट्टशिष्य थॉमस ने अपने संस्मरण में इस बात की पुष्टि की है कि वह ईसा के साथ तक्षशिला में राजा गुन्दाफर के यहाँ ठहरा था। इससे पहले ईसा ने उसे भारत जाने का आदेश दिया था, पर थॉमस के इनकार करने और यह कहने पर कि वह यहूदी है और भारतवासियों को सत्य की शिक्षा कैसे दे सकता है? ईसा ने उसे इब्बन नामक एक दक्षिण भारतीय व्यापारी के हाथों इसलिये बेच दिया ताकि इसी बहाने वह भारत पहुँच जाय। वस्तुतः इब्बन राजा गुन्दाफर का एक कर्मचारी था जिसे एक वास्तुशिल्पी ढूँढ़ लाने के लिए नियुक्त किया गया था। इस तरह थॉमस राजदरबार में पहुँच गया। वहाँ उसे एक भव्य महल बनवाने के लिए एक बड़ी धनराशि दी गयी जिसे उसने जरूरतमंद गरीबों में खर्च कर दिया। बाद में यही राजा अपने भाई के साथ ईसा का शिष्य बन गया और थॉमस को दक्षिण भारत में मिशन के प्रचार प्रसार के लिये भेज दिया गया। मद्रास में उसने अनेकों अनुयायी भी तैयार किये चौथी सदी के आरंभ में उसकी हड्डियों के अवशेष को मायलापोर मद्रास से उनके पैतृक नगर इडेसा सीरीया ले जाया गया था। थॉमस की मद्रास में कब्र होने की पुष्टि मार्कोपोलो ने भी की थी।

प्रख्यात विद्वान हजरत मिर्जा गुलाम अहमद ने भी अपनी कृति में इस बात की पुष्टि की है कि ईसा ने अपने जीवन के अतिम 40 वर्ष ‘युज ओशफ’ के नाम से कश्मीर में बिताये थे। शत्रुओं से बचने के लिए ही उनने यह छत्त नाम रखा था। अग मुस्तफा ने अपने ग्रंथ-“अबली अहलिऊ-परस” में कहा है कि ईसा ही युजआशफ थे। तक्षशिला के पश्चात् उन्होंने उससे 70 मील दूर कश्मीर की सीमा पर स्थित-मुरी नामक एक छोटे से गाँव में निवास किया था वहीं पर उनकी माता का स्वर्गवास हुआ। आज भी वहाँ सदियों पुराना “मरियम मेरी का एक मकबरा बना हुआ है जिसे मरियम मेरी का स्थान” कहा जाता है।

सुविख्यात इतिहासवेत्ता मुल्ला नादिरी ने अपनी कृति “तवारीख-ए-कश्मीर” (कश्मीर का इतिहास) में ईसा के कश्मीर में निवास करने का सुविस्तृत वर्णन किया है। उनने लिखा है कि जिन दिनों ईसा- युजआशफ के नाम से यहूदियों के एक बड़े समुदाय के साथ कश्मीर आये थे उन दिनों वहाँ राजागोपदत्त-जिन्हें गोपानन्द भी कहा जाता था, का शासन था। यह घटना प्रथम शताब्दी के मध्य की है। यरुशलेम से दुबारा भारत आने के बाद ईसा ने अपना सम्पूर्ण जीवन इसी घाटी में व्यतीत किया। घाटी के लोगों की उन पर अगाध श्रद्धा थी। वे प्रायः एक संन्यासी की तरह एक-स्थान से दूसरे स्थान तक उपदेश करते हुए घूमते रहते थे, पर प्रायः कश्मीर अवश्य लौट आते थे! कश्मीर से ईसा का विशेष लगाव था। तब भारत का वह भूभाग हर दृष्टि से इतना समृद्ध और खुशहाल था कि उसे धरती के स्वर्ग की संज्ञा दी गयी थी। बाद में ईसा के साथ भी अनेक यहूदी परिवार आकर वहीं रहने लगे थे। नादिरी के अनुसार श्रीनगर से कोई 70 मील दूर एक गुफा है जहाँ ईसा मसीह ध्यान किया करते थे। इस गुफा के द्वार पर एक सुन्दर भवन निर्मित है जिसे ‘ऐश-मुकाम’ कहते हैं। यही पर मूसा का बहुमूल्य दण्ड (छड़ी)जो परम्परा से ईसा को मिला था, स्थापित था। यही दण्ड 15 वीं शताब्दी में प्रसिद्ध संत शेष नूरुद्दीन को प्राप्त हुआ था।

ईसा को जिस स्थान पर दफनाया गया था, वहीं पर ख्याति प्राप्त इतिहासवेत्ता एवं ‘कश्मीर रिसर्च सेन्टर फार बुद्धिस्ट स्टडीज’ के निदेशक प्रोफेसर फिदा हुसैन को पत्थर पर खुदे हुए चिन्ह और दूसरी तरफ क्रूस के चिन्ह बने हैं यह इस बात का सुनिश्चित प्रमाण है कि वह ईसा की ही समाधि है। उनके अनुसार जब दूसरी बार ईसा ने भारत में प्रवेश किया था उन दिनों उत्तरी भारत में राजा शालिवाहन (सन् 31 से 50 ई0) का शासन था। राजागोपानन्द का सन् 41 से 82 एवं कुशान राजा-कनिष्क का सन् 78 से 103 ई॰ तक शासन था। कनिष्क के शासनकाल में कश्मीर इण्डो-सीथिन राजवंशों की राजधानी थी। वहाँ अनेक धार्मिक, साँस्कृतिक बौद्धिक और राजनीतिक संस्थाएं थीं। ग्रीक और राजनीतिक संस्थाएं थीं। ग्रीक और राजनीतिक संस्थाएं थीं। ग्रीक और भारतीय दर्शन अपने चरम उत्कर्ष पर थे। उन्हीं दिनों लगभग सन् 80 में महाराजा कनिष्क ने श्रीनगर से 12 कि0 मी0 दूर हारान में विविध धर्मावलंबियों की एक महासभा में विख्यात मनीषी एवं आयुर्वेद के ज्ञाता नागार्जुन के साथ ईसामसीह भी उपस्थित थे। तब उनकी उम्र 80 वर्ष से अधिक थी। इस तथ्य की पुष्टि कवि कल्हन ने भी अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘कादम्बरी’ में की है।

वस्तुतः ईसा की जीवन यात्रा देवसंस्कृति के बहुरंगी प्रवाह का एक अंग है जो रहस्योद्घाटन हुए हैं, वे सभी मत संप्रदायों को समीप लाकर देवसंस्कृति की संप्रदायों को समीप लाकर देवसंस्कृति की श्रेष्ठता का तथा “एकं सद्विप्रा बहुना वदन्ति” की ऋषि मान्यता का समर्थन ही करते हैं।


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