आत्म विस्तार ही सर्वोच्च धर्म

May 1990

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जीवन का एक लक्ष्य है ज्ञान और द्वितीय सुख। ज्ञान और सुख के समन्वय का ही नाम मुक्ति है। आत्मचिंतन के द्वारा हम माया बन्धनों और सांसारिक अज्ञान को काट लेते हैं और विषय वासनाओं से छूट जाते हैं तो हम मुक्त हो जाते हैं। किन्तु ऐसी मुक्ति तब तक नहीं मिल सकतीं जब तक कि सृष्टि के शेष प्राणी बन्धन में पड़े हैं।

जब हम किसी को क्षति पहुँचाते हैं तो अपने आप को क्षति पहुँचाते हैं। हम में और हमारे भाई में कोई अन्तर नहीं है। जिस तरह छोटे-छोटे अवयवों से मिलकर शरीर बनता है, उसी प्रकार छोटे-छोटे प्राणियों से मिलकर संसार बना है। कान को दुःख होता है तो आँख रोती है। उसी तरह समाज के किसी भी व्यक्ति का दुःख हमारे पास पहुँचता है, इसलिए केवल अपने सुख से मुक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती।

इस कसौटी पर जब लोगों को अपने लिए बढ़-चढ़ कर अधिकार माँगते हम देखते हैं तो ऐसे आदमी से बड़ी घृणा लगती है। अधिकार ही व्यक्ति को स्वार्थी और संकीर्ण बनाते हैं। विश्व में जो कुछ अशुभ है, उसका उत्तरदायित्व प्रत्येक व्यक्ति पर है। अपने भाई से अपने को कोई पृथक् नहीं कर सकता। सब अनन्त के अंश हैं। सब एक दूसरे के रक्षक और सहयोगी है। वास्तव में वही सच्चा योगी है, जो अपने में सम्पूर्ण विश्व को और सम्पूर्ण विश्व में अपने को देखता है। अपने लिए अधिकारों की माँग करना पुण्य नहीं है। पुण्य तो यह है कि हम छोटे से छोटे जीव के प्रति अपने कर्तव्य का पालन कर सकते हैं या नहीं। इसके लिए अपने अधिकार छोड़ने पड़ते हैं। इस लोक में यही सब से बड़ा पुण्य है। आत्म विस्तार ही इस संसार का सर्वोच्च धर्म है। इसे सौ टके की एक बात समझ कर हृदयंगम करना चाहिए।


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