धर्म संस्कृति के सच्चे उपासक प्रज्ञाचक्षु विरजानन्द

May 1990

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गंगा के जल में कटि प्रदेश तक डूबा वह शांत सुस्थिर खड़ा जप की साधना में निमग्न था। जल का उद्वेलन लहरों की बेचैनी उसकी स्थिरता का संस्पर्श पा सुशान्त हो उठी थी। बाह्य हलचलों से अछूते चेतना के अन्तरतम् में कुछ घट रहा था। मन तदाकार हो रहा था मंत्र से। हृदय गुहा से झर रहा था अलौकिक दिव्य नाद। आत्मा विकीर्णित कर रही थी अपना अद्भुत वैभव सत्ता के विभिन्न अंग-उपांगों पर। मन बुद्धि चित्त के प्रत्येक कोने के साथ प्राण भी दिव्य हो रहा था। लालसाओं-वासनाओं तृष्णाओं की मलीनता दुर्गन्ध गायत्री साधना की हवा में कहाँ उड़ गई कुछ पता नहीं। अब तो एक सुवास थी। प्रसारित थी एक अनोखी सुरभि जिसका स्रोत थी स्वयं की सत्ता का मूल केन्द्र आत्मा।

आज कितने वर्षों से चल रही थी उसकी यह तपश्चर्या किशोरावस्था के प्रवेश काल में आया था तब से एक ही क्रम बन गया आहार बिहार की कठोरता के साथ महाप्रज्ञा गायत्री के दिव्य मंत्र का जप। रात्रि के मध्यभाग को छोड़ कर शेष समय नियम बन गया। जप और उसके साथ अरुणोदय के सूर्य का ध्यान। कुछ वैसा ही सूर्य जैसा उसने अपने वचन में देखा था। रात दिनों के आवागमन से उपराम वह धियो यो नः प्रचोदयात्, की टेर लगाए था।

जप की समाप्ति के पश्चात उसने भाव सागर में डूब रहे मन को बाहर निकालने के साथ जल से बाहर निकलने के लिए किनारे की ओर कदम बढ़ाए। आहिस्ते-आहिस्ते एक एक कदम रखते किनारे को टटोला। दृष्टि के अभाव में हाथ और हाथ में रहने वाली लकड़ी यही तो उसका सहारा थी। इन्हीं के सहारे कुछ देर चलते हुए आ बैठे एक पीपल के पेड़ के नीचे। जो इन दिनों उसका एक मात्र संगी था। सुहृद छूटे मित्र सगे संबंधी छूटे परन्तु बदले में मिला यह एक आश्रय दाता। जिसने शीत में उसे अपने से चिपटाया वर्षा की बूँदों को स्वयं सहकर भीगने से बचाया ग्रीष्म में अपनी बयार से उसके शरीर को दुलराया।

उसी की छाँव में बैठ गया यह तरुण जिसकी देहयष्टि में यौवन की अरुणिमा का उल्लास था। पर इसकी मादकता उन्माद की जगह था साधना का तेजस। पता नहीं क्यों आज उसे अपना अतीत याद आ रहा था। वह तुलना करने लगा सबसे आज की। तब बही नदी के किनारे गंगापुर था आज गंगा नदी के किनारे कनखल तब पंजाब का करतारपुर था आज हिमालय का चरण प्रान्त। पाँच वर्ष की आयु में चेचक के प्रकोप से दृष्टिहीन को जाना। उस अंधे को भी पिता ने अपनत्व दिया था और माँ ने दुलार। पर दैव का विधान माता-पिता भी न रहे और तब का निराश्रित जीवन किसी ने अंधा कहा, किसी ने भाग्यहीन व्यंगबाणों की बौछार। उफ़! मानव इतना निर्मम क्यों है? पर सभी तो नहीं एक ये ग्रामवासी भी हैं जो मेरे लिए भोजन जुटा देते हैं और एक वह स्वामी जी नाम था जिनका पूर्णानन्द जी। हाँ! उन्होंने ही तो साधना मार्ग सुझाया। भगवान से सन्मार्ग प्रदर्शन की गुहार लगाने का मंत्र सुझाया था तो फिर इनमें इतना अन्तर क्यों है? जरूर वह ठोस कारण तत्व है जिसके कारण मनुष्य निर्मम हो उठता है न स्वयं जीता है न औरों को जीवित रहने देता है।

वह दूर से निकट होती जा रही पदचापों की ध्वनि से बेखबर सोच रहा था। न जाने कब तक चिन्तन प्रवाह गतिशील रहता पर आने वाले की वाणी ने उसे विराम दिया गया सोच रहे थे वत्स?

‘अ’ अ आप चौंक कर स्वर पहिचानने का प्रयास करते हुए बोला।

‘पहचान तो गए’ आगन्तुक के चेहरे पर पिता की दयालुता थी। वेशभूषा से वह संन्यासी लग रहे थे। अवस्था से वृद्ध प्रायः। पर काया पर छाए तप के तेजस प्राणों के छलकते ओजस और आत्मानुभूति के वर्चस से दमकते मुखमण्डल के समक्ष बढ़ती हुई अवस्था भी नतमस्तक थी।

‘भला आपको न पहचानूँगा तो और किसे? आप ही तो मेरे मार्गदीप हैं’। कहकर उसने अपने दृष्टिहीन नेत्र ऊपर उठाए। इनमें भाव विह्वलता रहस्य गहराई और जिज्ञासा छलछला रही थी। ‘आप किधर खड़े हैं’? ‘बस तुम्हारे पास ही पुत्र कहते हुए उन्होंने उसके सिर पर हाथ फेरा और उनके चरणों में झुक पड़ा।

‘पर तुमने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया’?

‘ओह! यही सोच रहा था कि मानव इतना निर्मम क्यों हो गया है? उसे ऐसा बनाने का कारण क्या है? इसे दूर कैसे किया जाय’?

‘तो उत्तर मिला?’ नहीं।

तो चलो बताए देता हूँ। जीवनोद्देश्य स्वात्म गौरव की विस्मृति की वजह से निर्ममता उपज पड़ी है। इसको बढ़ाने में कारण बनी है संकीर्ण मनोवृत्ति जिसने महत्त्वाकाँक्षाओं ईर्ष्या द्वेष हिंसा कलह की पूरी सेना खड़ी कर दी है और इसके निवारण का उपाय है जीवन जीने की कला का शिक्षण। जिसका क्रियात्मक रूप होगा प्रव्रज्या। कहते कहते वह उसके चेहरे की ओर लगे जिस पर प्रव्रज्या शब्द ने उदासी ला दी थी।

‘क्यों उदास क्यों हो गए? अपनी दृष्टिहीनता के कारण। चर्मचक्षु न हुए तो क्या? इनके रहते हुए भी करोड़ों की भीड़ अनेकानेक भ्रमों के बीहड़ में भटकती हुई कलप रही है। असली तो वह अन्तर्दृष्टि है जिसे आद्यशक्ति वेद जननी की कृपा से तुमने पाया है।’

साथ ही गुर चरणों का प्रताप स्वर श्रद्धा सिक्त था। अब आपका अगला आदेश जिसे सिर माथे पर धर सकूँ।

‘तुम्हारी एकान्त साधना पूर्ण हुई अब प्रव्रज्या व्रत में दीक्षित हो’। जो आज्ञा।

समिधा चुनी गई। विरजा होम की तैयारी हुई। वर्षों का सहचर आश्वस्त एक बार पुनः सहायक हुआ नव सृजन के संकल्पों की पुष्टि करने में। जीवन विद्या के विस्तार के लिए प्राणपण से जुटने का व्रत लिया गया।

हवन की समाप्ति पर आगन्तुक संन्यासी ने कहा ‘अब तुम परिव्राजक हुए परिव्राजक विरजानन्द’। परम पूज्य गुरुदेव स्वामी पूर्णानन्द का अनुगत शिष्य विरजानन्द उसके मुख से मुस्कान के साथ निकला। घटना ने मोड़ लिया। संकल्प के धनी इस तरुण ने अपनी असाधारण स्मृति के बल पर समूचे आर्ष साहित्य का साँगोपाँग अध्ययन किया। वर्षों पैदल चल कर अनेकों का द्वार खटका कर जिन्दगी जीने का तरीका वितरित किया। वर्षों के इस प्रयास में लगे अब वह स्वयं वृद्ध हो चुके थे। पर वार्धक्य का मतलब निष्क्रियता नहीं थी। अभी भी वह वृन्दावन में रहकर अनेकों जीवन गढ़ रहे थे। कभी-कभी सचिन्त हो उठते-कौन बढ़ाएगा मेरे इस कार्य को? कौन कुरीतियों मूढ़ मान्यताओं के तम को चण्ड दिवाकर बन नष्ट करेगा? और एक दिन कुटिया का दरवाजा खटका?

‘कौन?’ प्रज्ञाचक्षु परिव्राजक का तेजस्वी स्वर था। ‘यही तो जानने आया हूँ’ वाणी में श्रद्धा और जिज्ञासा का पुट था।

तो प्रभु ने भेज ही दिया ऋषि संस्कृति के विस्तारक को यह अभीप्सा भला और किसी के पास कहाँ? वह होठों होठों में बुदबुदाए। उठाया हृदय से लगाया। अनवरत प्रयास से गढ़ा निखारा और अपने द्वारा तराशे हुए दमकते रत्न को नाम दिया दयानन्द। जीवन भर को तप-शक्ति सौंपते हुए कहा, ‘वत्स! करुणा की तुम्हारा आनन्द बने। अनेकों सूखते चटकते हृदयों तक करुणा की सरिता पहुँचाने वाले भगीरथ बनो। मत करना साधनों की बाढ़ की पुकार, मत डरना कि अवरोध कितने विषम हैं। बस बन जाना उस महाकाल के यंत्र जो नव सृजन के लिए तत्पर है। फिर किसी की क्या मजाल जो उसके निर्देशन पर चालित यंत्र को रोक सके। बढ़ जाओ। तुम्हारे चरणचिन्ह औरों का मार्ग प्रशस्त करे और वह स्वयं लीन हो गए महासमाधि में जीवन का मूल उद्देश्य जो पूरा हो गया था।

बुद्ध का जन्म हुआ। सभी देखने आए। एक महात्मा हिमालय से आए। पिता ने बालक बुद्ध को महात्मा के चरणों पर रखते हुए कहा, महात्मनः! आशीर्वाद दें प्रभु से मंगल कामना करें ताकि बालक दीर्घायु हो, यशस्वी हो, प्रतापी हो।’ किन्तु महात्मा कुछ उद्गार व्यक्त करने के पूर्व ही रोने लगे। राजा डर गए। पूछा कोई अपशकुन है? कुछ अशुभ है क्या?

महात्मा कुछ क्षणों बाद बोले- ‘नहीं राजन! ऐसा कुछ नहीं। जिसे खोजते खोजते सारी उम्र बीत गयी, वह प्रभु का भेजा संदेशवाहक अब मिला। करुणावतार आया तो सही पर मेरे लिए तो अब देरी हो गयी। उनकी लीला देखने का सुयोग मुझे तो मिल ही नहीं सकेगा। उसके चरणों में बैठने का अवसर मुझे न मिल सकेगा, बस यही सोचकर आँखें भर आई। राजन! आप धन्य है। ऐसी विभूतियाँ तो कभी-कभी हजारों लाखों वर्षों बाद अवतरित होती है।’

अन्तरिक्ष विज्ञानियों में आजकल यह चिन्ता का विषय बना हुआ है कि अब अन्तरिक्ष जगत के अनुदान पृथ्वी को मिलते रहने का क्रम कम क्यों होता जा रहा है? उसकी जगह उसके अभिशापों की वर्षा अधिक होने लगी है। ऐसा क्यों?

गंभीरता से विचार करने पर जिन तथ्यों की जानकारी मिलती है वह यह है कि इन दिनों विभिन्न देशों की अन्तरिक्ष में अपना-अपना कब्जा जमाने की होड़ असाधारण रूप से बढ़ती है। मनुष्य ने अब पृथ्वी के अतिरिक्त चन्द्रमा, मंगल, बुद्ध, बृहस्पति जैसे ग्रह उपग्रहों तक यात्राक्रम चलाकर अंतरिक्ष में अपना हस्तक्षेप आरंभ कर दिया है। चन्द्रमा पर तो बस्ती बसाने की भी योजना बन रही है। ऐसी दशा में इन ग्रह-पिण्डों के गति प्रवाह में गतिरोध उत्पन्न होता है, जिसकी प्रतिक्रिया विभिन्न प्रकार के विक्षोभों के रूप में सामने आती है।

इसके अतिरिक्त विभिन्न उद्देश्यों को लेकर प्रति वर्ष न जाने कितने कृत्रिम भू उपग्रह छोड़े जाते हैं। यह सभी पृथ्वी के रक्षा-कवच को भेदते हुए निकल जाते हैं। ओजोन से बने इस रक्षा कवच पर लगातार होने वाले प्रहार से अब वह कमजोर पड़ता जा रहा है। उसमें जगह-जगह छिद्र बन गये हैं, जिससे विनाशकारी किरणें बेरोक-टोक आने लगी हैं और पृथ्वी पर तरह-तरह के उपद्रव खड़े कर रही है। जब एक कवच क्षतिग्रस्त हो, और अन्य सही हो, तो किसी प्रकार काम चल जाता है, पर जब सभी रक्षा कवच क्षतिग्रस्त हो गये हो, तो निश्चय ही यह चिन्ता की बात है। अब तक तो हमें सिर्फ ओजोन परत के रूप में एकमात्र रक्षा कवच की जानकारी थी, पर विशेषज्ञ बातें हैं कि पृथ्वी के चारों ओर इस प्रकार के अनेकानेक कवच है रेडियो किरणें, ब्रह्माण्डीय किरणें, आयनोस्फियर, स्ट्रेटोस्फियर थर्मोस्फियर आदि परतों को इन्हीं के समतुल्य समझा जा सकता है। अन्तरिक्ष से छेड़-छाड़ के दौरान यह सभी परतें न्यूनाधिक रूप में विनष्ट होती है। इसके अतिरिक्त इस क्रम में हम प्रकृति के उस स्वाभाविक क्रम में भी व्यतिक्रम उत्पन्न करते हैं, जिससे समस्त ग्रह-नक्षत्र संबंध हैं। आँकड़े बताते हैं कि प्रति वर्ष छोड़े जाने वाले सैकड़ों भू-उपग्रहों के क्षतिग्रस्त पुर्जे का कबाड़ा अंतरिक्ष में अब तक इतने बड़े परिमाण से इकट्ठा हो गया है, जिसे टनों में आँका जा सकता है। दिन-दिन इस मलबे में बढ़ोत्तरी ही हो रही है जिससे अन्तरिक्ष जगत के प्रवाह में गतिरोध उत्पन्न होता है। इन दिनों अन्तरिक्ष के बढ़ते दुष्प्रभाव का, अनेक कारणों में यह एक प्रमुख कारण है कि उसे नगरपालिका का कूड़ा घर बना दिया गया है।

आखिर यह हस्तक्षेप क्यों?

साँप जब कुण्डली के भीतर रहता है तो वह हर प्रकार सुरक्षित होता है। पिंजरों में रहने वाले चूहों एवं अन्य पशु-पक्षियों के संबंध में भी यही बात लागू होती है। मनुष्य के संबंध में भी यही बात लागू होती है। मनुष्य के संबंध में यही बात सत्य है। उसकी सुरक्षा इसी में है कि वह पृथ्वी कवच की लक्ष्मण रेखा के भीतर रहे अन्तरिक्ष अन्वेषण के नाम पर उससे बाहर निकलने की अनावश्यक चेष्टा न करे, अन्यथा समस्त मानवता के लिए प्राण-हरण जैसी विपदा का सामना करना पड़ सकता है। समय-समय पर होने वाले परीक्षणों से इसकी जानकारी भी मिल रही है कि इन दिनों मनुष्य द्वारा उठाया गया कदम अन्ततः आत्मघाती सिद्ध हो सकता है, क्योंकि विभिन्न क्षेत्रों में पूर्व की और अब की परिस्थितियों में जब परस्पर तुलना की जाती है तो पाया जाता है कि दोनों की स्थिति में जमीन-आसमान जैसा अन्तर आ गया है। इन दिनों पृथ्वी की रक्षा कुण्डली के टूटने के कारण परिस्थितियाँ और खराब ही हुई है। जिन्होंने अन्तर्ग्रही परिस्थितियों और हलचलों के सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन किया है, उनका मत है कि विगत कुछ दशकों में असंतुलन इतना बढ़ गया है, जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी की प्रकृति में विपरीतता का व्यवहार दृष्टिगोचर हो रहा है। इसका कारण बताते हुए खगोलवेत्ता कहते हैं कि इस विशाल ब्रह्माण्ड का हर घटक परोक्ष रूप से एक-दूसरे से संबंध है। यहाँ एक ही हलचल सदा दूसरे को प्रभावित करती है अतः प्रत्यक्ष रूप से कोई अवांछनीय कार्य न करके भी परोक्ष रूप से हम वैसे कार्यों में संलग्न हो रहे हैं, जिनका दूरगामी दुष्परिणाम बाद में सामने आकार रहेगा।

क्रिया की प्रतिक्रिया का सिद्धान्त सर्वविदित है। जब किसी को अनावश्यक रूप से छेड़ा जाता है, तो उसका परिणाम सदा बुरा होता है। पिंजरे में बन्द शेर, भालू, बन्दर जैसे प्राणियों को छेड़ने पर वह कुपित होते और आक्रमण के प्रयास करते है। विषधर सर्प छेड़े जाने पर न फुफकारता है, वरन् कई अवसरों पर तो वह छेड़खानी करने वाले के लिए प्राणघातक सिद्ध होता है। अन्तरिक्ष के संबंध में हमारे वर्तमान क्रिया-कलाप भी इसी स्तर के हैं, फलतः उसके दुष्परिणाम भी भुगतने पड़ रहे हैं।

चन्द्रमा को ही लें। वह पृथ्वी के समीप होने के कारण आकाश मंडल में विद्यमान तारों की रश्मियों को हम तक पहुँचाने में संचार उपग्रह का काम करता है। पृथ्वी का मौसम बहुत कुछ इसी के संतुलन पर निर्भर करता है। इसमें थोड़ा सा भी व्यतिरेक भूकम्प, ज्वालामुखी, विस्फोट, उल्कापात, अतिवृष्टि, अनावृष्टि जैसे विनाशकारी परिवर्तनों को जन्म देता है। काफी पहले सन १९३० में अमेरिका में पड़े दुर्भिक्ष का प्रमुख कारण चन्द्रमा की असंतुलित गतिविधियों को बताया जाता है। स्काउट एयरफोर्स बेस के विलियम कैम्पबेल ने अध्ययनों के आधार पर बताया है कि पिछले दिनों भारत में पड़ने वाला असाधारण सूखा ऐसे ही अन्तर्ग्रही असंतुलन का परिणाम था। वैज्ञानिकों के अनुसार चन्द्रमा के गति-चक्र संबंधी ५०० वर्षों के रिकार्ड का जब अध्ययन किया गया, तभी अनेक देशों में बार-बार आने वाले प्राकृतिक प्रकोपों का रहस्योद्घाटन हो सका। उनका कहना था कि इसी अध्ययन के बाद यह जाना जा सका कि क्यों चीन का उत्तरी भाग बाढ़ और सूखे की चपेट में लंबे समय से आता रहा है। जापान और दक्षिण अमेरिका में आने वाले प्राकृतिक प्रकोप भी अन्तर्ग्रही असंतुलन के परिणाम बताये जाते हैं।

अन्तर्ग्रही संबंधों और प्रभावों का उल्लेख भारतीय मनीषियों ने हजारों वर्ष पूर्व ही कर दिया था और कहा था कि हम सब ग्रह नक्षत्रों से असंदिग्ध रूप से प्रभावित होते हैं। इसी आधार पर उन्होंने ज्योतिष का विकास किया था, ताकि ग्रहों का विशिष्ट लाभ विशिष्ट परिमाण में हस्तगत करने के लिए विशिष्ट एवं उपयुक्त समय की जानकारी प्राप्त की जा सके। उसकी गणना और परिणामों की सत्यता के आधार पर ही उसे विज्ञान स्तर की मान्यता मिल सकी और उसकी एक स्वतंत्र शाखा के रूप में उसे स्वीकार किया जा सका। इससे न सिर्फ इस विद्या की प्रामाणिकता सिद्ध हो सकी, वरन् अन्तर्ग्रही प्रभावों परिणामों की भी सत्यता असंदिग्ध सिद्ध हुई। तब ज्योतिर्विज्ञान का विकास इसलिए किया गया था कि अन्तर्ग्रही अनुदानों से लाभान्वित हुआ जा सके, पर अन्तरिक्षीय प्रवाह के स्वाभाविक क्रम में छेड़छाड़ से अब स्थिति वैसी नहीं रही। कारण है कि अब उसकी गणनाएँ और भविष्यवाणियाँ प्रायः गलत सिद्ध होने लगी है। तथा ग्रह पिण्डों के दुष्परिणाम बढ़ने लगे हैं, पर ऐसी बात नहीं है कि ग्रह-नक्षत्रों ने अपने अनुदान पूर्णतः बंद कर दिये हो। सूर्य अब भी महासूर्य से ताप और तेजस्विता अर्जित करके पृथ्वी सहित अन्य अनेक ग्रहों को आभा और ऊर्जा प्रदान करता रहता है। उसी प्रकार चन्द्रमा शीतलता प्रदान करता है। यदि उसकी शीतलता पृथ्वी को प्राप्त होती नहीं रहती तो यहाँ सब कुछ जल कर भस्मसात् हो गया होता।

क्रोध का अपना मूल्य है, इसको विशेष समय के लिये ही रखना चाहिए। मनीषी कहते हैं कि जब कभी गुस्सा आने लगे तो सोचना चाहिए कि यह बात मेरे गुस्से के लायक नहीं। मनुष्य को लकड़ी की छीलन की तरह नहीं होना चाहिए, जिसमें जो चाहे दियासलाई की एक तीली से आग भड़का दे। गुस्से को कुछ खास मौके के लिये सुरक्षित रखना चाहिए जहाँ वह न्याय संगत हो और उपयोगी भी। गुस्से का मृत्यु के रूप में उपयोग ही उसका सुनियोजन है।

यह सब ग्रहों के धरतीवासियों पर उपकार है, जो आगे भी बने रह सकते है, बशर्ते कि उपकार का बदला प्रत्युपकार से चुकाया जाय छेड़खानी न की जाय, अन्यथा माँ जैसी स्नेह-शीलता का अनुदान-वरदान प्रदान करने वाले ग्रह गोलक काली, दुर्गा, फुफकारती सर्पिणी, खूँखार शेरनी की भूमिका निभाने लगे, तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए। अच्छा हो, हम पहले अपने ग्रह का पृथ्वी का ध्यान करें, अन्तरिक्ष में अनावश्यक हस्तक्षेप न करें, तभी हम उनके बढ़े-चढ़े अनुदानों को हस्तगत करने में सफल हो सकते हैं।


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