ध्यान योग की व्यावहारिकता

May 1990

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बिखरे ध्यान को अन्तर्मुखी करने के उपरान्त भीतरी क्षेत्र में भी उसे नुकीला बनाना चाहिए जिसके आधार पर अन्वेषण-पर्यवेक्षण संभव हो सके। साथ ही अभीष्ट की उपलब्धि के लिए जो किया जाना चाहिए उसके एक नहीं अनेक विकल्प खोजें जा सकें।

वैज्ञानिकों के मस्तिष्क में यही हलचलें गतिशील रहती हैं। वे जिस विषय का अन्वेषण करते हैं, आविष्कार में निरत होते हैं उनकी कल्पनाएँ मोटे रूप में नहीं वरन् अत्यन्त बारीकी से करते हैं। वस्तुओं की जोड़-तोड़ से निकलने वाले परिणामों की आधे से अधिक जाँच पड़ताल मस्तिष्क क्षेत्र में ही कर लेते हैं। जब कोई बात तर्क, तथ्य और कल्पना के सहारे सही बैठती है तो ही उसे प्रयोगशाला में बनाते बिगाड़ते हैं। प्रयोगशाला का आधा काम तो उनके भीतर कल्पना क्षेत्र में पूरा हो चुका होता है। वे यथार्थ कल्पना कर सकने के अभ्यासी बन जाते हैं। इस क्षेत्र में जो जितनी सफलता संचित कर सका होता है उसका पासा उसी अनुपात में सही पड़ता है।

यह विशेषता किसी को भी अनायास नहीं मिलती। इस दिशा में एक-एक कदम आगे बढ़ाते हुए लक्ष्य तक पहुँचना पड़ता है। आरंभ में छोटा आधार अपनाने और उस पर अभ्यास करते हुए कल्पना को तीखा किया जाता है। उसके साथ आत्मीयता जोड़नी पड़ती है। उस कल्पना में रहने वाली पूर्णता अपूर्णता में अपनी व्यक्तिगत हानि लाभ होने वाली बात ध्यान में रखनी पड़ती है। पशुओं के मेले में बहुत जानवर बिकते हैं। पर उनमें से अपनी दृष्टि उसी पर जमती है जो अपनी इच्छा या आवश्यकता के अनुरूप हो। उसकी बारीकियों पर अधिक मनोयोगपूर्वक जाँच पड़ताल करने की इच्छा होती है और ऐसी बातें सूझती हैं जिनके आधार पर पसंदगी वाली वस्तु के हर पक्ष पर गंभीर विचार किया जा सके और इस निर्णय पर पहुँचा जा सके कि इसको खरीद करले जाना उचित होगा।

ध्यान में रूप की प्रमुखता रहती है। जैसा प्रत्यक्ष देखा गया है कल्पना में ठीक उसी आकृति और प्रकृति का समन्वय देखना चाहिए। यह कार्य तस्वीरों की सहायता से आरंभ करना उपयुक्त रहता है। यह किसी श्रद्धास्पद महापुरुष या आत्मीय परिजन का होना चाहिए ताकि उसके प्रति आत्मभाव का समन्वय सहज ही हो सके। जिसके प्रति प्रीति होती है उसका स्मरण जल्दी हो आता है।

चित्र को सरसरी नजर से नहीं वरन् गंभीरतापूर्वक देखना चाहिए। उसके चेहरे के नख-शिख केश, वस्त्र, मुखाकृति, मुद्रा आदि को पहले खुली आँखों से गंभीरतापूर्वक देखा जाय। इसके उपरान्त आँखें बन्द करके उसी छवि को ध्यान क्षेत्र में उतारा जाय। सूक्ष्म नेत्रों में वह छवि इस प्रकार बस जानी चाहिए मानों वह प्रत्यक्ष ही देखी जा रही हो। इसके उपरान्त आँखें खोल कर देखा जाय कि प्रत्यक्ष और कल्पना के बीच क्या अन्तर रहा। इसमें आभूषणों और वस्त्रों में बेलबूटे के स्वरूप में अन्तर रह सकता है। दूसरी बार के, तीसरी बार के ध्यान में यह अन्तर निकालते-निकालते इस स्थिति पर पहुँचा जाय, मानो वह नेत्र बन्द रहते हुए भी प्रत्यक्ष देखा जा रहा हो। चित्र की ही तरह यह प्रयोग किसी प्रतिमा को माध्यम बनाकर भी किया जा सकता है। जिनकी देवता, महापुरुष आदि में रुचि न हो वे अपने किसी संबंधी प्रियजन का चित्र सामने रख सकते हैं।

आर्चीटेक्ट अपने मस्तिष्क को ऐसा ही प्रशिक्षित कर लेते हैं। अपने द्वारा बनाई जाने वाली इमारत का कल्पना चित्र उनके मन में इतना स्पष्ट होता है कि वे उसमें लगने वाली खूँटियों तक की ठीक गणना कर लेते हैं। बिजली की लाइन कहाँ से जायेगी और बल्ब पंखे आदि कहाँ-कहाँ लगेंगे, इसकी कल्पना इतनी अच्छी तरह कर लेते हैं कि उसमें बनने के उपरान्त कोई भूल न निकाली जा सके। नदियों के पुल सड़कों के मोड़, उतार चढ़ाव आदि को सही रूप में अंकित कर सकना नहीं इंजीनियरों के लिए संभव होता है, जो कार्य क्षेत्र की स्थिति को ऐसी तरह नोट कर लेते हैं कि नक्शा बनाते समय कहीं कोई अन्तर न रहे। अच्छे सर्जनों की मनःस्थिति भी आपरेशन करने से पूर्व ऐसी बन जाती है कि अनावश्यक कतर–बतर न करना पड़े और न अनावश्यक समय लगे। इसी आधार पर उनकी वरिष्ठता समझी जाती है। रंगमंच पर पात्रों को भेजने से पूर्व जो व्यक्ति उनकी सजधज करता है। मेकअप बनाता है उसकी बुद्धि भी ऐसी तीक्ष्ण होती है जिससे उनकी कृति में कोई खोट न निकाला जा सके। ऐसा तभी संभव है जब क्रिया से पूर्व कल्पना का सही स्तर पर ढाँचा खड़ा कर सकें।

यह अभ्यास उस विषय के प्रवीण पारंगतों का निर्धारण और क्रिया−कलाप देखते रहने पर भी होने लगता है। फिर भी जिज्ञासा और अभिरुचि तो सीखने वाले की ही होनी चाहिए अन्यथा कुशलता का वातावरण रहने पर भी भोंड़ी बुद्धि का व्यक्ति हाथ पैर से सहायता करने वाला मात्र बनकर रह जायेगा।

यही बात लंबी यात्रा की या किसी बड़ी दावत की तैयारी करने से पूर्व करनी होती है। विवाह शादियों में अनेक प्रकार के छूट फुट सामान जमा करने पड़े तो अनेकों अवसरों पर अनेकों वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है। यदि वह सब परिस्थितियाँ मस्तिष्क में समय से पूर्व न आ सकें तो जब उनकी जरूरत पड़ती है तब भागदौड़ करनी पड़ती है और एक दूसरे पर दोषारोपण करने का सिलसिला चल पड़ता है।

प्रबंधक का पद सबसे ऊँचा है उसे वेतन भी अधिक मिलता है और अधिक सम्मान भी। जिस कारखाने में व्यवसाय में अच्छे प्रबंधकों का हस्तक्षेप होता है। वे कच्चा माल खरीदने, बने माल की हाथों-हाथ खपत करने, कार्य विस्तार को देखते हुए उपयुक्त मशीनों का चयन करने, कुशल कर्मचारी ढूँढ़ने, अयोग्यों को हटाने माल का स्टोर करने, बैंकों से व्यवहार रखने, पूँजी रुकने न देने आदि की अनेकों संबंधित बातों का पूरा ध्यान रखते हैं और व्यवसाय की उन्नति करके दिखाते हैं। जिनकी कल्पना भोंड़ी होती हैं वे पग-पग पर चुक करते हैं, अपमानित होते हैं और मालिक को डुबाने के साथ स्वयं भी बदनाम होते हैं। इस क्षेत्र में जो लोग सफल हुए हैं उनकी कल्पना शक्ति सही समय पर सही काम करती रही है। इसे व्यवसाय क्षेत्र का ध्यान योग ही कह सकते हैं।

ध्यानयोग को यों पारलौकिक-आध्यात्मिक प्रसंग माना जाता है। क्षेत्र कोई भी क्यों न हो प्रक्रिया एक ही काम करती है। कल्पना और यथार्थता को इस प्रकार मिला देना, जिसके आधार पर व्यक्ति को दूरदर्शी विवेकवान कहा जा सके। साथ ही व्यवहार कुशल भी।

कार्य पहले कल्पना क्षेत्र में आते हैं, बाद में क्रिया रूप में परिणत होते हैं तदुपरान्त वह स्थिति आती हैं जिसमें परिणति का कड़ुवा मीठा रसास्वादन करना पड़ा। बीज से अंकुर, अंकुर से पौधा, पौधे से पेड़ और पेड़ पर फल लगने का क्रम है। यही बात यथार्थवादी कल्पना के संबंध में भी है। उसी को ‘ध्यान’ कहलाने का श्रेय मिलता है। अन्यथा शेखचिल्ली जैसी कल्पनाएँ तो कोई भी करता रह सकता है जिसमें स्थिति के साथ वास्तविकता का सही तारतम्य न हो। मूढ़मति तो मात्र अनगढ़ अप्रासंगिक कल्पनाएँ करते हैं। पर जिन्हें इस क्षेत्र की कुशलता प्राप्त हैं वे अपने क्षेत्र के ध्यान योगी कहे जाते हैं।


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