हृदय क्षेत्र की अंतर्गुहा

May 1990

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काय-कलेवर का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हृदय संस्थान है। रक्ताभिसरण एवं प्राण प्रवाह का तो यह केन्द्र है ही, अध्यात्मवेत्ताओं के अनुसार इसी क्षेत्र विशेष को भाव संस्थान अंतःकरण, कारण शरीर आदि विभिन्न नामों से संबोधित किया गया है। धावना, आस्था, प्रेरणा साहस, आत्मीयता, आदर्श जैसे तत्व इसी क्षेत्र में उभरते हैं। किसी को महामानव स्तर तक विकसित करने की अलौकिकता इसी क्षेत्र में उभरती है। इसके विपरीत यदि इस क्षेत्र पर अनैतिक अवांछनीयताएँ आधिपत्य जमा लें तो व्यक्तित्व के आततायी असुरों जैसे स्तर का बनते देर नहीं लगती।

भाव संवेदनाएँ अन्तराल से ही प्रस्फुटित होती और बीज से वट वृक्ष बनकर आत्मीयों को ही नहीं, समस्त प्राणि समुदाय को अपनी चपेट में लेती हुई उन्हें तद्नुरूप सोचने, समझने और कुछ करने के लिए बाधित करती है। जिस किसी का यह क्षेत्र जग जाता है, हृदय ग्रंथि खुल जाती है उसे आत्म साक्षात्कार का ईश्वर दर्शन का परम लाभ प्राप्त करने और दिव्य विभूतियों से सराबोर होने का अवसर भी उपलब्ध हो जाता है।

योगशास्त्रों में हृदय स्थान को अनाहत चक्र कहा गया है। नीचे से ऊपर की ओर क्रमशः चलने पर मूलाधार, स्वाधिष्ठान एवं मणिपुर चक्रों के बाद इसी का नंबर आता है। तप-साधना द्वारा चक्रों के बेधन से प्राण ऊर्जा का ऊर्ध्वीकरण होता और साधक पशु-प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर पेट प्रजनन से आगे की बात सोचता और प्रगति की दिशा में अग्रगमन करता है। परन्तु आत्मोन्नति का मार्ग इतने से ही प्रशस्त नहीं हो जाता। इससे आगे का मुख्य सोपान है गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करना एवं हृदय की अन्तः मलिनता को धोना। उसकी जटिल गाँठों को खोलना, और उलझी गुत्थियों को सुलझाना पड़ता है। हृदय ग्रंथि यदि परिष्कृत हो सुलझ जाय तो फिर मनुष्य-मनुष्य नहीं रह जाता, वह देव मानव, महामानव बन जाता है। बुद्धत्व की और नारायणत्व की ओर बढ़ने का राजमार्ग यही है जब तक अन्तर में वासनाओं का दुर्भावनाओं का घटाटोप छाया रहता है, मनुष्य नर-पशु से ऊपर नहीं उठ सकता। पुण्य परमार्थ की उदार सहकार की बातें नहीं सोच सकता। किन्तु जब हृदय में ईश्वर प्रेम की, उच्चादर्शों सिद्धान्तों की स्थापना कर ली जाती है और हृदय के साथ परिपालन करने की ओर मानवी मन उन्मुख हो जाता है, तो यही से उसकी जटिलताओं ग्रंथियों की गाँठें खुलनी आरंभ हो जाती है। हृदय चक्र की ओर बढ़ने और हृदय गुफा में निवास करने का मार्ग खुल जाता है। अष्टावक्र गीता के अष्टादश प्रकरण के ८८वें श्लोक में इसी तथ्य का रहस्योद्घाटन करते हुए अष्टावक्र ने राजा जनक को संबोधित करते हुए कहा है कि जिसकी हृदय ग्रंथि टूट जाती है अर्थात् अहंभाव परमात्मभाव में विलीन हो जाता है, वह रज और तम प्रधान गुणों से मुक्त होकर आत्मा में ही रमण करने लगता है। जिसने अपने हृदय को पवित्र बना लिया है। वासना तृष्णा, अहंता जैसी विष बेलों को समूल नष्ट कर दिया है। उस निर्मल हृदय मनुष्य की तुलना सांसारिक भोग-लिप्सा की कीचड़ में फंसे मनुष्यों से नहीं की जा सकती।

प्रख्यात ग्रीक दार्शनिक एवं ज्योतिर्विद् एग्रीपा एवं बूनों ने जीवात्मा के केन्द्र हृदय की तुलना सृष्टि के केन्द्र से की है जिसमें सौर मण्डल के समस्त ग्रह अपने सूर्य के तथा विश्व ब्रह्माण्ड के सूर्य महासूर्य की परिक्रमा करते है। उसकी अनुकृति होने के फलस्वरूप ही संकल्प स्थल हृदय में विविध प्रकार के विश्व ब्रह्माण्डीय घटना चक्र, अविज्ञात प्राकृतिक होती रहती है। उनके अनुसार जिस तरह मनुष्य विश्व ब्रह्माण्ड के केन्द्र में स्थिति है उसी तरह सारी सृष्टि सूक्ष्म रूप में उसके हृदय में अवस्थित है। अतः ईश्वर और मनुष्य दोनों की समानता है। दोनों की अनुरूपता एवं मिलन का स्थान उसका हृदय ही हो सकता है। यही जगत का केन्द्र भी है। परमात्मा और जीवात्मा की अभिन्नता समरूपता एवं मूलभूत एकता होने के कारण ही सभी धर्मों एवं तत्त्वदर्शनों में हृदय की पवित्रता शुचिता पर बहुत जोर दिया गया है। हृदय गुहा में प्रवेश करके ही व्यक्ति अपनी वर्तमान स्थिति से ऊँचा उठकर श्रेष्ठतम सोपानों तक पहुँच सकता है एवं यही अध्यात्म साधना का लक्ष्य है भी।


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