दृष्टिकोण के अनुरूप मान्यता

May 1990

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वस्तुएँ वस्तुएँ हैं। पदार्थों के रंग, रूप, नाम और गुण अनेक होते हुए भी अंततः वे निष्प्राण हैं, निर्जीव और चेतना रहित। उनका स्वरूप तो है, पर ऐसा कुछ नहीं जिसमें वे भावनात्मक प्रतिक्रिया उत्पन्न कर सकें। यह मनुष्य की अपनी मान्यता है जो उसके साथ भले-बुरे का आरोपण करती है वही प्रिय-अप्रिय की छाप लगाती है और अपने पराये की मान्यता के साथ-साथ किसी को प्रिय पात्र बनाती है और कई बार उसे अनुपयुक्त और घृणास्पद भी ठहराती है।

यह मान्यता या प्रवृत्ति मनुष्य की अपनी संपदा है। अपनी ही विनिर्मित और निर्धारित भी। इसी से प्रभावित होकर जिसके साथ चाहता है वह उसके साथ राग या द्वेष का आरोपण कर लेता है। प्रशंसा या निन्दा आमतौर से वस्तुओं की होती देखी जाती है, पर वस्तुतः वैसा होता नहीं। आँखों पर जिस रंग का चश्मा पहन लिया गया है, दृश्यमान वस्तुएँ प्रायः उसी स्तर की देखी पड़ती है। उनका अपना वास्तविक स्वरूप मात्र पड़ती है। उनका अपना वास्तविक स्वरूप मात्र जड़ पदार्थ का होता है। जिसका जैसा उपयोग बन पड़े, वह उसी स्तर के अनुभव में आने लगता है। इसका एक अर्थ यह भी है कि इच्छानुसार किसी को भी प्रिय से अप्रिय और अप्रिय से प्रिय भी बनाया जा सकता है। इस प्रकार के परिवर्तन बार-बार भी होते रहते हैं। अभी जो वस्तु सुन्दर लगती है, वह दृष्टिकोण बदलते ही अप्रिय अनुपयोगी कुरूप भी प्रतीत हो सकती है। एक बार की स्थिर की हुई मान्यताएँ भावनाएँ भी वैसी ही बनी रहेंगी, यह कोई निश्चित नहीं।

एक व्यक्ति अभी जीवित है। अपना संबंधी, कुटुम्बी या प्रियजन भी है। उसके साथ अपना पूरा सद्भाव या लगाव भी है, पर कदाचित कुछ ही क्षण बाद उसकी मृत्यु हो जाय तो मृत शरीर के प्रति दृष्टिकोण बदलने में देर न लगेगी। उसे हटाने या मिटाने की जल्दी पड़ेगी। कुछ देर घर में रखे रहना भी असह्य हो जायेगा। अन्त्येष्टि कर्मों से जल्दी निपट लेना ही श्रेयष्कर प्रतीत होगा। जीवित, कमाऊ, हितैषी या उपयोगी लगने पर जो व्यक्ति प्रिय लगता है, वह मृतक या संक्रामक रोग ग्रस्त हो जाने पर ऐसा लगता है कि उसकी निकटता से जितनी जल्दी हो सके दूर हटा या हटाया जाय। यह दृष्टिकोण का अंतर स्थिति बदलते ही हो जाता है।

किसी वस्तु पर अपना अधिकार हो तो उसकी सुरक्षा और साज-संभाल करने का मन सदा रहता है। पर यदि उस पर किसी दूसरे का अधिकार हो जाय, बेच दी जाय तो फिर उसकी चोरी या टूट-फूट हो जाने पर भी इस बात की चिन्ता नहीं रहती है कि वह कहाँ और किस स्थिति में है। अपनेपन का भाव ही उसे प्रिय बनाये हुए था। जब वह हट गया और उसके स्थान पर परायापन आ गया तो प्रिय भाव के उपेक्षा में बदलते देर नहीं लगती।

इन्द्रिय स्वाद के संबंध में भी यही बात है। जो पदार्थ अभी स्वादिष्ट लगता था, और खाने के लिए जी मचलता था, वही बुखार की दशा में मुँह कड़ुवा हो जाने पर बुरा लगने लगता है। पेट भरा होने अथवा उसमें हानिकारक वस्तु होने की मान्यता बन जाने पर वही वस्तु कुछ देर में अखाद्य बन जाती है।

मूर्तिकार की दुकान पर बिकने के लिए रखी हुई प्रतिमा एक खिलौना मात्र है, पर जब उसी को देवालय में प्राण प्रतिष्ठा करके देवता के रूप में स्थापित कर दिया जाय तो पूज्य स्तर की इष्टदेव बन जाती है। गंगा का जल प्रवाह भक्तजनों के लिए पुण्यदायक और पापनाशक है, पर मछली पकड़ने वाले उसी जलाशय में देर तक रहने पर भी उसे मात्र आजीविका का एक क्षेत्र भर मानते है। इसे दृष्टिकोण के अन्तर के सिवाय और क्या कहा जाय?

बच्चे के लिए खरगोश का बच्चा एक सुहावना खिलौना मात्र है, पर किसी हिंस्र प्राणी की उस पर दृष्टि पड़ते ही सर्वोत्तम खाद्य पदार्थ पर रह जाता है। आस्तिक के लिए इस संसार के कण-कण में विराट ब्रह्म की दिव्य चेतना का निवास है पर नास्तिक उसे मिट्टी कूड़े का ढेर भर मानता है। महत्व वस्तु का नहीं दृष्टिकोण का है जिसके आधार पर प्रिय और अप्रिय संबंधी मान्यता की स्थापना होती है।


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