आचार्य, जो दधीचि परमात्मा से जुड़ गए

May 1990

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तक्षशिला विश्वविद्यालय वधू की तरह सजा हुआ था। मण्डप चौक प्राँगण सभी जगह खुशी फूटी पड़ रही थी। आचार्य उपाध्याय विद्यार्थी सभी प्रमुदित थे। हों भी क्यों न? आखिर कल दीक्षान्त समारोह जो था। इस खुशी के समय भी उनके चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ चमक रही थीं, वह गृह वाटिका में टहल रहे थे। कदमों के रखने के ढंग माथे की सलवटें बता रही थीं कुछ विशेष जरूर है जिसके कारण मन में ज्वार आया है।

पर इस अवसर पर चिन्ता! वह भी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति को जिसे सर्वाधिक प्रसन्न होना चाहिए। चिन्ता का सामान्य कारण तो कामना की पूर्ति में अवरोध है। पर उन जैसे तपस्वी को कामना आक्रान्त करे यह भला कैसे सम्भव है? तो फिर तपस्वी की चिन्ता सामान्य नहीं। सामान्यजनों की चिन्ता से जहाँ दुःखों की बेल बढ़ती मनोरोग उपजते हैं। वहीं तपस्वी की चिन्ता से सुख उपजता है, अनेकों अशान्त मन सुशान्त होते हैं। क्योंकि जहाँ अन्य सब स्वहित के लिए व्याकुल होते हैं वहीं वह सर्वहित के लिए बेचैन हो उठता है। तत्पश्चात व्यक्ति युग युग में नीलकण्ठ बन कर समाज में रहते हैं फैल रहे जहर को पीने और तप साधना से अर्जित अमृत का अभिसिंचन करने हेतु।

वह टहलते-टहलते बड़-बड़ा उठे तो क्या विश्वविद्यालय रूपी यह महावट ढह जाएगा। जिसे अनेकों विकसित किया और अनेकों की श्रान्ति हरण करने वाले के रूप में इसे वर्धित किया है? क्या ठप्प हो जाएगी वह कार्यशाला जो अब तक समाज के लिए अनेकों शिल्पी तैयार करती आयी है। यदि नहीं तो फिर मेरे बाद संचालन का गुरुतर दायित्व। एक एक शब्दों से पीड़ा छलक रही थी। मुखमण्डल के भाव बता रहे थे कि व्यथा हड्डियों तक को छेदे दे रही है।

कौन बनेगा अगला दधीचि? कौन दे सका बलिदान निज-सुख का मोह का वैभव का? किसे प्रियकर लगेगा स्वजनों का वियोग? धन की चमक किसकी आँखों की चमक न हरण कर पाएगी? अनेक वर्षों में एक जो आया वह भी कल के दीक्षान्त समारोह के बाद नहीं।

इतने में किसी आने वालों के कदमों की आहट ने उन्हें चौंका दिया। आने वाला उनके पदों में प्रणत होने के लिए झुका ही था कि उनके मुख से निकला “अरे तुम?”

जी हाँ मैंने सोचा महाचार्य के चरणों में अपनी प्रणति निवेदन कर दूँ। कल की व्यस्तता में आपको अवकाश न मिलेगा और कल के बाद में भी “घर चला जाऊँगा” आने वाले के स्वरों को काट कर उन्होंने स्वयं कथन पूरा किया।

जी जी आगन्तुक के स्वरों में एक सकपकाहट के साथ संकोच भी था।

“हर कोई यही दुहराता है। जन्मा, कुछ दिन खेला कूदा, किशोरावस्था आने पर कल्पना की रंगीली उड़ाने भरी युवा होते-होते विवाह बंधनों में बँधे, जो बोझ लादा उसे वहन करते रहने के लिए रात दिन कमाने के लिए खटते रहे, बढ़ाए हुए परिवार की बढ़ती समस्याओं को जिस तिस प्रकार किसी हद तक सुलझाया। ढलती आयु के साथ अशक्तता और रुग्णता चढ़ दौड़ी, समर्थ सन्तानों द्वारा समस्त वैभव पर कब्जा जमा लिया गया, स्वयं को असहाय अपमानित स्थिति में दिन गुजारने के लिए बाधित होना पड़ा और रोते कलपते मौत द्वारा दबोच लिया गया-क्या यही है आज के मनुष्य की नियति? जिसे स्वीकारने के लिए तुम जैसे विवेकी भी विश्वामित्र, अगस्त्य आदि के ज्योतिर्मय ऊर्ध्वमुखी जीवन को विस्मृत कर दौड़ पड़ते हैं।”

सुनने वाला स्तब्ध था। कुछ रुक कर वे फिर बोले। प्रतिभा ईश्वर की विभूति है-विष्णुगत ईश्वरीय कार्यों में इसका नियोजन ही व्यक्तित्व को सुभोभन बनाता है।

आचार्य मुझे याद नहीं कि मैंने आपकी कोई आज्ञा भंग की हो। आपके प्यार की अलभ्य निधि भी नहीं भूली है। इन क्षणों में भी आपके द्वारा दिखाया गया मार्ग मेरा जीवनपथ बनेगा और आपका आदेश मेरा पाथेय। सभी कष्टों को सहकर सब कुछ गँवा कर इस पर चलने में मुझे गौरव की अनुभूति होगी।

सच पुत्र! सब कुछ लुटा कर भी कहने के साथ उसे छाती से चिपटा लिया।

हाँ सब कुछ लुटाकर भी स्वर स्वस्थ था।

तो छोड़ दी घर लौटने का विचार और मानव गढ़ने की इस टकसाल में मेरे सहकर्मी बनो। इतना ही नहीं एक गुरुतर कार्य और है।

वह क्या? रूढ़ियों के आघातों मूढ़तापूर्ण प्रथा प्रचलनों के थपेड़ों और कुरीतियों की दीमक के प्रकोप से जर्जरित समाज को नया स्वरूप देना। उसे नूतन व्यवस्था देना।

अर्थात् समय क्रान्ति आगन्तुक चौंक उठा भला कैसे सम्भव हो सकेगी यह।

सद्विचारों के व्यापकतम प्रसार से जिसे तुम्हारा भगीरथ संकल्प पूरा करेगा।

संकल्प के बल पर इतना बड़ा कार्य उसे आश्चर्य हो रहा था।

संकल्प साधारण नहीं होते वत्स! ये कल्पनाओं और विचारों से नितान्त, भिन्न हैं। मन के सागर में कल्पनाओं की लहरें यों ही बिखरती नष्ट होती रहती हैं। इन्हें जब बुद्धि सँवारती है तब ये विचार कहलाते हैं। पर यही जब अन्तर के प्राण प्रवाह से जुड़ते हैं तो संकल्प बन जाते हैं। संकल्पवानों के प्राण मचल उठते हैं, मन व्याकुल हो उठता है और शरीर क्रियाशील हुए बिना नहीं रहता। प्राण की अन्तिम श्वास मन की आखिरी सोच, शरीर की अन्तिम क्रिया तक वह जुटा रहता है अपने संकल्प की पूर्ति में ऐसों के प्राण ही सृष्टि के सूत्र संचालक के महाप्राण से जुड़ते हैं-वह उसके पास प्राणवानों को भेजता है। तथ्य समझे?

जी उसे आश्चर्य हो रहा था संकल्प की अनजानी इस महत्ता पर वह सोचने लगा तो यही कारण था आचार्य की व्याकुलता का। उन जैसे तपोधन को भला सर्वहित के अतिरिक्त किस की चाहत चिन्तित करेगी। साथ ही कितना सौभाग्यशाली हूँ मैं कि उन्होंने मुझ अकिंचन को चुना। उन महाचार्य पुंडरीक ने, जिनके चरणों पर माथा नवाने के लिए देश देशांतर के मनीषी तरसते हैं। समग्र संसार का वैदूष्य-जिनके पाँवों की धूल से ईर्ष्या करता है।

उधर आचार्य पुलकित थे-उन्हें अपनी महात्याग की परम्परा में एक नया दधीचि मिला। दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा। आचार्य की आँखों में वात्सल्य था विष्णुगत की आँखों में श्रद्धा।

“क्या सोचने लगे वत्स! ‘अपने सौभाग्य के बारे में सोच रहा था’ सचमुच उनके सौभाग्य के समक्ष त्रैलोक्य का सारा वैभव भी तुच्छ है जो महाकाल के अग्रदूत बनते हैं।

अगले दिन का दीक्षान्तपर्व विष्णुगुप्त के लिए संकल्प पर्व बन गया। यही विष्णुगुप्त इतिहास में चाणक्य के नाम से जाने गए। जिन्होंने वृहद्तर भारत का गठन किया। धरती पर सतयुगी परिस्थितियाँ लाने में सफल हुए। इस अनोखे सृजन की शक्ति का स्रोत उनकी संकल्प निष्ठा ही थी।

हम भी ढूँढ़ें और जगाएँ अपनी इसी निष्ठा को। वर्तमान के देवमुहूर्त में सचेतन हो उठे हमारा संकल्प स्वयं को बदलने समाज को सँवारने में। नियोजित हो जाए जीवन की समूची सामर्थ्य इसी ईश प्रयोजन में।


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