अपनों से अपनी बात

May 1990

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उच्चस्तरीय प्रशिक्षण हर जगह नहीं हो सकते। उसके लिए उपयुक्त साधन, वातावरण एवं प्रशिक्षकों का स्तर भी ऊँचा होना चाहिए। सेना के उच्च अफसर प्रशिक्षित कहाँ किये जायें, इसके लिए ऐसा स्थान तलाश करना पड़ता है, जहाँ से गोपनीय राज-नीति के रहस्य फूट कर अनुपयुक्त लोगों तक न पहुँचे। सैनिकों के स्वास्थ्य से लेकर मनोभूमि बनाने की उपयुक्त स्थिति वहाँ है या नहीं? चूँकि प्रसंग देश की सुरक्षा से जुड़ा होने के कारण अत्यधिक महत्व का है। उसके लिए तीक्ष्ण बुद्धि वाले अनुभवी, बहुज्ञ और व्युत्पन्न मति वाले अध्यापक भी हुए, जो बहुत कठिनाई से थोड़ी ही मात्रा में मिल सकते हैं।

ऊँची क्वालिटी के पौधे जिन नर्सरियों में तैयार किये जाते हैं, वहाँ की भूमि में पाये जाने वाले रसायनों की विशेष रूप से देखभाल की जाती है। इसी प्रकार घटिया पौधे लगाने वाले मालियों की अपेक्षा इन विशिष्ट नर्सरियों को विकसित करने के लिए विशेषज्ञों का पता लगाना और उन्हें महँगे वेतन पर भी किसी प्रकार सहमत करने और नियुक्त करने की आवश्यकता पड़ती है।

प्राणवान प्रशिक्षण हेतु शान्तिकुञ्ज आएँ

वेधशालाएँ हर जगह नहीं बन सकती। जहाँ ग्रह-उपग्रहों की कक्षाएँ सीधे कोण बनाती हैं, वहाँ उनके लिए स्थान का चयन होता है। प्राचीन काल का कोणार्क इसी स्तर का होने के कारण वहाँ सूर्य मन्दिर बना था। उज्जयिनी की वेधशाला भी स्थान−विशेष की महत्ता के कारण बनी थी। मिस्र के पिरामिड भी निर्माण की दृष्टि से अत्यंत असुविधाजनक होते हुए भी इसी कारण एक विशेष स्थान पर बनाये गये थे। आधुनिक खगोलवेत्ताओं ने भी वेधशालाएँ जहाँ भी बनाई हैं, वहाँ अनेक तथ्यों और विशेषताओं की उपस्थिति का ध्यान रखा है। भले ही वहाँ का आवागमन कितना ही कष्टसाध्य क्यों न हो? उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव जहाँ भी अवस्थित हैं, वहाँ से समस्त भूमण्डल असाधारण रूप से प्रभावित होता है। भूमध्य रेखा, कर्क रेखा, मकर रेखा आदि के अक्षांश अपने-अपने समीपवर्ती क्षेत्रों में वातावरण को असाधारण रूप से प्रभावित करते हैं।

सौर मण्डल की ग्रह-उपग्रहों की पृथ्वी के जिस क्षेत्र पर जिस स्तर की किरणें पहुँचती हैं, वहाँ के लोगों के रंग, कद, स्वभाव, आकार प्रकार भी उसी स्तर के बनते हैं। मोटे तौर पर समझा यह जाता है कि वंश परंपरा के अनुरूप जीन्स संरचना इसका प्रमुख कारण है, पर वस्तुतः ‘जीन्स’ अन्तरिक्षीय अभिवर्षण की सूक्ष्मता के अनुरूप ही अपना ढाँचा खड़ा करते है।

प्राचीनकाल में महामानव ढालने वाले विशेषज्ञों ने भी अपने क्रिया कलाप सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए उपयुक्त स्थानों का चयन किया था, भले ही वे आवागमन अथवा अन्य कठिनाइयों से घिरे हुए ही क्यों न रहे हों? राम-लक्ष्मण को शिक्षा के लिए अन्य स्थान भी सुविधाजनक हो सकते थे, पर दशरथ की असहमति होते हुए भी वशिष्ठ के दबाव से उन्हें विश्वामित्र के आश्रम में ही भेजा गया? भले ही उसकी तुलना में अन्य स्थान अधिक सुविधा-सम्पन्न ही क्यों न रहे हो? कृष्ण की शिक्षा उज्जैन में संदीपनि आश्रम में ही बहुत कुछ सोच समझकर की गयी। भले ही मथुरा के समीपवर्ती स्थानों में ही अधिक सुविधा संपन्न स्थान क्यों न रहे हो। कण्व आश्रम में चक्रवर्ती भरत का शिक्षण संयोगवश ही नहीं, किन्हीं विशिष्ट कारणों पर अवलंबित था। लव-कुश के शिक्षण हेतु अन्य स्थान अधिक सुविधा संपन्न ढूँढ़े जा सकते थे, पर बाल्मीकि आश्रम अभीष्ट प्रयोजनों के लिए हर कसौटी पर खरा समझा गया था। बुद्धकाल में तक्षशिला एवं नालन्दा विश्वविद्यालयों में दूर देशों से छात्र वहाँ की विशेषताओं के कारण ही पहुँचते थे। इसमें छात्रों की अपनी प्रयत्नशीलता तो कारण रही ही होगी, पर इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि उन स्थानों, शिक्षण केन्द्रों एवं अध्यापकों का भी उन सफल छात्रों पर अतिरिक्त अनुदान होगा।

प्राचीनकाल में ऋषिकल्प अध्यात्म विज्ञानी अपनी आत्मशक्ति का प्रयोग और प्रयोगशालाओं के लिए स्थानों के चयन को प्राथमिकता देते थे। छात्र सुविधा के सहारे कहीं भी पसर नहीं जाते थे। हिमालय की ऊबड़-खाबड़ जमीन और शीत की अधिकता आदि अनेक असुविधाओं के रहते हुए भी उन स्थानों का चयन अति गंभीरता में रखते हुए भी किया गया था। महाभारत के लिए कुरुक्षेत्र की भूमि का, बहुत बातों को ध्यान में रखे हुए चयन किया गया था।

मैसूर का चन्दन, अरब के खजूर, नागपुर के सन्तरे, लखनऊ के आम, भुसावल के केले, लसाड़ के चीकू अपनी-अपनी विशेषताएँ लिए हुए है। यों पौधे लगाने और सींचने आदि के कार्य अन्यत्र भी उसी प्रकार होते हैं, पर स्थान की विशेषता अपना अतिरिक्त परिचय वहाँ के उत्पादनों की गहराई तक घुस कर देती है। तद्नुरूप स्वाद था गुण-आकार आदि को भी प्रभावित करती है।

प्राचीनकाल में हर दृष्टि से विशिष्ट गरिमा से पूरे-पूरे क्षेत्रों में ही तीर्थ स्थानों की स्थापना होती थी। वहाँ की प्रेरणा अनायास ही आगन्तुकों में अतिरिक्त शक्ति संचार कर देती है। उन्हीं स्थानों में गुरुकुल आश्रम आरण्यक व तपोवन स्थापित किये जाते थे। आज के समय में तो कुछ कहा नहीं जा सकता, क्योंकि विकृतियों का प्रवेश और अवांछनीयताओं का प्रतिशत बाहुल्य हो जाने से तीर्थ भी वह प्रयोजन द्वारा नहीं करते। अब तो ये पर्यटन केन्द्र मात्र न कर रह गये हैं।

इन दिनों युग परिवर्तन की पृष्ठभूमि बन रही है। इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण होने ही जा रहा है। इसके लिए कोई ऐसा ऊर्जा स्रोत चाहिए, जहाँ से युगान्तरीय चेतना का आलोक अद्भुत हो और समस्त विश्व को अनुप्रमाणित करे। मत्स्यावतार की तरह इस छोटे से कमण्डलु पैदा होकर भी विश्व-वसुधा को उस प्रभाव से अनुप्राणित करे जो इस संधि काल में अनिवार्य रूप से आवश्यक है। यह महाक्रान्ति की बेला है। पिछले दिनों छिट-पुट प्रयोजनों और क्षेत्रीय समस्याओं में हेर-फेर करने के लिये सीमित स्तर की क्रांतियाँ होती रही है, पर इस बार तो भौतिक क्षेत्र की ही नहीं, पर इस बार तो भौतिक क्षेत्र की ही नहीं, आध्यात्मिक स्तर की समस्याओं को प्रभावित करने वाली समस्याओं से भी जूझना है और उनके द्वारा अपनायी गयी उलटी रीति-नीति को उलट कर सीधा किया जाना है। इसके लिए धरती पर ही एक ऐसा केन्द्र अभीष्ट था, जहाँ से उदय होता दिनमान समूचे विश्व को अपनी आभा से अनुप्राणित करे।

स्थान ‘शान्तिकुञ्ज’ के छोटे से कार्य क्षेत्र के रूप में निर्धारित हुआ है। प्रत्यक्ष रूप से देखने पर यह गंगा की गोद हिमालय की छाया, सप्तऋषियों की तपोभूमि के रूप में देखा-जाना जा सकता है। पर इसके अतिरिक्त भी यहाँ बहुत कुछ है। जिस दैवी सत्ता ने महान परिवर्तन की रूप−रेखा बनायी है, उसी ने इस भूमि का भी परिशोधन, अखण्ड जप, नित्य नियमित रूप से नौ कुण्ड यज्ञशाला में अग्निहोत्र की प्रक्रिया आरंभ करायी है। इतना ही नहीं एक प्रशिक्षण शैली का उपक्रम भी निर्धारित किया है। साथ ही बैटरी चार्ज करने जैसी अतिरिक्त व्यवस्था भी बनायी है जिसका विद्युत प्रवाह उन सभी को अनुप्राणित उत्तेजित करता है जो उसके साथ भावनापूर्वक अच्छा उद्देश्यों को साथ लेकर आते और जो कुछ यहाँ विद्यमान है, उसके अवगाहन में लग जाते हैं।

शान्तिकुञ्ज में कम पढ़ाया जाता है, इसके लिए पाठ्यक्रम उलटने-पुलटने की आवश्यकता नहीं है। एक ही बात देखी जानी चाहिए कि यहाँ का एक ही मन्तव्य है ‘प्रतिभा परिष्कार’। यह किसी के हाथ लग सके, तो शरीर और बुद्धि तथा परिस्थितियों की दृष्टि से साधारण होते हुए भी व्यक्तित्व की दृष्टि से असाधारण बना जा सकता है। ऐसे कर्तृत्व प्रस्तुत हो सकते हैं, जैसा कि हनुमान, अंगद, नल-नील जामवन्त जैसों ने, साधारण दीख पड़ने वालों ने कर दिखाये। उन्होंने न केवल अनेक को उत्कृष्ट बनाया, वरन् अपने समय और वातावरण को भी परिष्कृत बनाने में वे समर्थ हो सके। तूफानी चक्रवात एवं प्रचण्ड धारा में दृष्टिगोचर होने वाली भंवरों के समतुल्य अपनी सत्ता व विशिष्टता का भी परिचय दे सके। समय की सबसे बड़ी आवश्यकता युग नेतृत्व की है। इसके साथ स्थानीय, क्षेत्रीय, वैयक्तिक, सामूहिक, राजनैतिक, आर्थिक, बौद्धिक, चारित्रिक एवं सृजन संभावनाओं का सही रूप में समाधान कर सकने की क्षमता भी जुड़ती है। संक्षिप्त में शान्तिकुञ्ज का प्रशिक्षण, शक्ति अनुदान एवं वह साहस कौशल उभारता है, जो बीज रूप में हर किसी के भीतर विद्यमान है।

शान्तिकुञ्ज की ५ या ९ दिवसीय सत्र साधना हर बीज को अंकुरित कर देने तक की सफलता उपलब्ध कराती है। यह प्रयत्न स्वयं का साहस और वातावरण जुटाने पर निर्भर है कि बीज में उगे हुए अंकुर किस गति से ऊँचे उठ सके और किस स्तर की द्रुतगामिता अपनाकर अपने को देव मानवों की, युग पुरुषों की पंक्ति में खड़े करने में सफल हो सके?

मिशन की पत्रिकाओं के पाठक परिजनों को प्रथम आवाहन में आमंत्रित किया गया है कि यथा संभव जल्दी ही युग संधि की बेला में एक रात्र प्रशिक्षण शान्तिकुञ्ज आकर सम्पन्न कर लें, और बन पड़े तो हर साल एक बार आकर अपनी बैटरी को नए सिरे से चार्ज करा लिया करें।

शान्तिकुञ्ज की भूमि एक प्रकार से अभिमंत्रित की गयी है। लक्ष्मण रेखा भी इसी प्रकार अभिमंत्रित की गई थी, जिसकी मर्यादा में रहने पर सीता हर दृष्टि से सुरक्षित रहती। इसी प्रकार इस भूमि को लगभग वैसा बनाया गया है जैसा कि माता के गर्भ में भ्रूण सुरक्षित रहता है। साधना एवं शिक्षण की अवधि में छात्रों को अधिकांश समय इसी परिधि में रहने का अनुबंध है। समुचित लाभ के लिए यह आवश्यक भी था। अनावश्यक लोगों को, अशिक्षितों, वयोवृद्धों, बीमारों, बच्चों को साथ लेकर चलने की मनाही इसीलिए की है कि सैर-सपाटे के उत्सुकों और अति गंभीर अध्यात्मप्रसंगों पर दत्तचित्त होने वालों के बीच किसी प्रकार का तालमेल बन नहीं पाता, साथ ही आश्रम का अनुशासन भी भंग होता है। जिस प्रकार इन दिनों पिता का नाम भी सरकारी कागजों में दर्ज किया जाता है, उसी प्रकार पुरातन काल में उस गुरुकुल का भी उल्लेख रहता था, जिससे ज्ञात होता था कि प्रशिक्षण का अविच्छिन्न अंग समझी जाने वाली महत्ता एवं गरिमा कहाँ से प्राप्त की? जिस प्रकार राजा की संतानें राजकुमार कहीं जाती और अपेक्षाकृत ऊँचे स्तर पर सम्मानित होती थीं, उसी प्रकार अगले दिनों शान्तिकुञ्ज के प्रशिक्षण के साथ अपने को जुड़ा हुआ होने के रूप में अपना परिचय देने वाले भी निश्चित रूप से गौरवान्वित होंगे। वंश-गोत्र के रूप में पूर्वजों के साथ जुड़ी परम्पराओं का उल्लेख चिरकाल तक होता रहता है। गुरुकुल एवं वंशकुल का स्तर प्रायः एक ही प्रकार की श्रृंखला में सम्मिलित होने वाले अपनी गौरव-गरिमा का अभिवर्धन करेंगे वरन् अपनी भावी पीढ़ियों को भी उस श्रेय से अभिभूत करने का सुयोग सौभाग्य प्रदान करेंगी। अनुमान के वंशज समझे जाने वाले बन्दरों की अभी भी मंगलवार के दिन अभ्यर्थना होती है। बगीचा लगाने वाला स्वयं यशस्वी होता है, उसकी दूसरी-तीसरी पीढ़ियाँ भी लाभान्वित एवं यशस्वी होती है।

शान्तिकुञ्ज का कोई प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले अपने में कोई अतिरिक्त विशिष्टता उत्पन्न न करें, यह हो ही नहीं सकता। उस आधार पर कोई गौरव गरिमा भरे काम करने में जन नेतृत्व में समर्थ होकर ही रहेगा। इस आधार पर उस यशस्वी परम्परा की चर्चा भविष्य में भी होती है। अगले दिनों जब शान्तिकुञ्ज से संबंधित नवनिर्माण में योगदान करने वालों का इतिहास लिखा जायेगा तो हो सकता है कि उस प्रकाशन में मात्र पहली पीढ़ी का ही नहीं, वरन् उन पद चिन्हों पर चलने वाली दूसरी-तीसरी पीढ़ी भी अपने को गौरवान्वित अनुभव करे।

देवर्षि नारद कहीं कुछ समय ही ठहरते थे। संक्षेप में ही वार्तालाप करते थे। कभी-कभी तो उनका प्रयोग बैखरी वाणी की अपेक्षा मध्यमा, परापश्यन्ती वाणी में इस स्तर का होता था कि वह क्षण भर में अन्तराल की गहराई तक जा पहुँचता था और पाने वाले को असाधारण सौभाग्यशाली बना देता था। इतिहास साक्षी है कि नारद के संपर्क में आने वाले कितने सामान्य व्यक्ति असाधारण ऊँचाई तक पहुँचे। इसी प्रसंग को इन दिनों इस रूप में भी समझा जा सकता है कि शान्तिकुञ्ज का संपर्क जुड़ने पर विद्युत प्रवाह के साथ जुड़ जाने जैसा चमत्कार उत्पन्न होता है एवं व्यक्ति का कायाकल्प कर देता है।


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