लोक-शिक्षण की कथनी व करनी

May 1990

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लगता है दुनिया की सारी गर्मी कलकत्ता में सिमट आई है और कलकत्ता की समूची तपन इस कमरे में-आपस में बातचीत कर रहे सदस्यों में से एक न उकताहट भरे स्वर में कहा। बाहर क्या स्थिति होगी? कहकर एक अन्य सदस्य ने उठकर दरवाजे पर पड़ी चिट उठाई और बाहर झाँका। देखकर उसे आश्चर्य हुए बिना न रहा कि ऐसे में कोई पैदल चला आ रहा है। बढ़ रहे कदमों के साथ रंग-रूप से स्पष्ट होने लगा कि कोई अँग्रेज है। इतनी तपन में पैदल चलना वह भी परतन्त्रता के दिनों में अँग्रेज का सचमुच विचित्र था।

थोड़ी देर में आने वाला नजदीक आ चुका था। देख कर सुखद आश्चर्य हुए बिना न रहा-अरे यह तो अपने-चिर-परिचित मित्र हैं। दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्कराए। उनका हाथ पकड़ कर कमरे के अन्दर ले गए। घड़े के शीतल जल से हाथ मुँह धुलवाया और बिठाकर हाथ से पंखा झलने लगे।

बातों के सिलसिले में एक सज्जन ने आगन्तुक से कहा “भाई यह तो अत्याचार है” स्वर में पर”। “कैसे”?

“इतनी भीषण तपन में पैदल आना और क्या है? अब आप ही बताइए कहाँ जोरासाँको स्थित टैगोर निवास और कहाँ यह अपर सर्कुलर रोड पर स्थित यह ‘विशाल भारत’ का कार्यालय, दो मील से कम दूरी न होगी”?

“तो क्या हुआ”? “कहिए क्या नहीं हुआ”? “आप जैसे अहिंसक भी अपने ऊपर हिंसा करने से चूकते नहीं”।

सुनकर वह कुछ गम्भीर हो गए फिर मुस्कराने का प्रयास करते हुए बोले “यह हिंसा नहीं मर्यादा के अनुशासन है। अनुशासन सर्वदा कठोर दिखता है। मर्यादाओं से बँधा जीवन उच्छृंखल उपभोग न करने के लिए स्वेच्छया बाध्य है”।

“समझ में नहीं आता आप न जाने क्यों अपने को इन अनेक स्वनिर्मित बन्धनों में जकड़े रहते हैं? अब इतनी कड़ी धूप में ताँगा न लेना, सवारी का उपभोग न करना भी अनुशासन हो गया”। “बात ऐसी नहीं है समझने की कोशिश करिए चतुर्वेदी जी। अनुशासन तटबन्ध है जिनसे अपने को कठोरतापूर्वक बाँधे जीवन नदी सहज ही अपने उद्देश्य सत् चित आनन्द के महासागर को पा लेती है”।

“पर” पूरी बात तो सुनिये! “लोक शिक्षक की गरिमा सामान्य से कुछ अधिक ही होती है। उसे स्वयं के जीवन द्वारा प्रयोगात्मक रूप से यह प्रमाणित करना होता है कि कम से कम साधनों में औसत नागरिक स्तर पर जीते हुए किस तरह उत्कृष्टतापूर्वक महानता की राह पर चला जा सकता है। “किन्तु आप तो सिर्फ शान्ति निकेतन में शिक्षक हैं। क्या वहीं पर पूरा लोक समाया है”।

“नहीं इतना ही होता तो कुछ विशेष नहीं था। शान्ति निकेतन में पढ़ाने के साथ विभिन्न पत्रों में लेख लिखता हूँ और दूसरों को उन्नत जीवन के लिए प्रवचनों के माध्यम से भी प्रेरणा देता हूँ। ऐसी स्थिति में यदि स्वयं नहीं करूँगा तो लोग समझेंगे कि ये बड़ी बातें खाली लिखने और कहने भर के लिए हैं। आचरण और व्यवहार के लिए यदि इनका महत्व रहा होता तो प्रवचन करने, लेख लिखने वाला भला स्वयं के जीवन में क्यों न उतारता?”

“सो तो ठीक है पर इतनी अधिक कठोरता”। “ऐसा न होने पर कितने ही यह समझ बैठेंगे कि उत्कृष्ट जीवनयापन का मार्ग सिर्फ किन्हीं विशेष साधन सम्पन्नों के लिए है। यही कारण है आदि से संतों ने त्याग के मार्ग को अपनाया है। कुछ रुककर कमरे में उपस्थित लोगों की ओर देखते हुए बोले-लोक शिक्षक का दायित्व बड़ा कठिन है। जब वह सोलह आने आदर्शों को अपने जीवन में उतारेगा तो दूसरे एक आना उतारने की सोचेंगे।

“सुनकर सभी मित्र गण उनके अनूठे व्यक्तित्व से अभिभूत हो उठे। जीवन के माध्यम से व्यावहारिक लोकशिक्षण करने वाले यह तपः पूत मानव थे, सी. एफ. एण्ड्रूज। जो जन-जन के हृदय में दीनबन्धु बन प्रतिष्ठित हुए। उनके जीवन के आलोक में अपने अन्दर झाँक कर जरा स्वयं देखें कि औरों को हम जो सिखलाते, उसे स्वयं कितना अपनाते हैं”?


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