आइए! देखें विचारों के रंग एवं रूप को

May 1990

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विचारों को कभी चिन्तन क्षेत्र में घुमड़ते रहने वाले और मस्तिष्क को कुछ काम देते रहने वाली प्रक्रिया भर समझा जाता रहा है, किन्तु अब स्पष्ट हो गया है कि चिन्तन चेतना की यह एक महत्वपूर्ण शक्ति है। इस शक्ति का उपयोग करके ही विचारशील महत्वपूर्ण योजनाएँ बनाते, महत्वपूर्ण कार्य करते और सफल महापुरुष कहलाते हैं। भाग्य निर्माण का आधार भी यही है। उत्कृष्ट विचारणाओं-संकल्पों का महत्व समझने और जीवन व्यवहार में उतारने की कला जिन्हें आती है, धवल चरित्र वाले वही व्यक्ति अपनी यश गाथा शरीर न रहने पर भी अक्षुण्ण बनाये रखते हैं। विविध रंग-रूपों वाले सशक्त विचार प्रवाह अदृश्य रूप में अपनी विद्यमानता से समानधर्मी व्यक्तित्वों का सतत् पोषण करते और अमर बने रहते हैं।

वस्तुतः स्थूल वस्तुओं की भाँति विचारों के भी अपने रूप और रंग होते हैं, जिनकी सुन्दरता-असुन्दरता उनकी भली बुरी प्रकृति पर निर्भर करती है। व्यक्तित्व का वजन भी तद्नुरूप ही होता है। अध्यात्मवेत्ताओं के अनुसार चूँकि विचार सूक्ष्म होते हैं अतः उनके वर्ण और आकार चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं पड़ते। पर अन्तः नेत्रों द्वारा उन्हें अवश्य पहचाना जा सकता है और तद्नुरूप उनमें काट-छाँट कर व्यक्तित्व का गठन किया जा सकता है।

अध्यात्मवेत्ताओं की इस मान्यता पर अब विज्ञानवेत्ताओं, परामनोविज्ञानियों ने भी अपनी मुहर लगा दी है। फ्राँस के मूर्धन्य भौतिकशास्त्री डॉ. वेरडुक ने अतिसंवेदनशील कैमरे के माध्यम से विचारों के अनेक चित्र लेकर यह प्रमाणित कर दिया है कि इनके भी निश्चित आकार और वर्ण होते हैं जिनका व्यक्तित्व की गहराई से सीधा सम्बन्ध होता है।

विचार आकार कैसे ग्रहण करते हैं, इस संबंध में उनका कहना है कि चूँकि यह एक प्रकार की शक्ति है, अतः जब शक्तिशाली प्रवाह के रूप में वे मानवी मस्तिष्क से निकलते हैं तो अपने आस-पास आकाशीय परमाणुओं में भी हलचल उत्पन्न कर देते हैं। इस हलचल से परमाणुओं की गति प्रभावित होती है और वहाँ एक आकार उभर आता है। इसका रूप ठीक उस वस्तु की अनुकृति होता है जिसकी मन में कल्पना की जा रही होती है। कैमरा इसी की तस्वीर खींचता है। फोटोग्राफी की इस परोक्ष प्रक्रिया को “थॉट फोटोग्राफी” कहते हैं।

परामनोवेताओं का कहना है कि चूँकि मानव मन में सदैव किसी न किसी प्रकार के विचार उठते रहते हैं अतः इनके द्वारा बाह्यवातावरण में नित नाना प्रकार रूप बनते और बिगड़ते रहते हैं। इन संकल्प प्रवाहों के बाह्य रूप कभी स्पष्ट तो कभी अस्पष्ट होते हैं, जो यह प्रकट करते हैं कि संकल्प कितने बलवान है। चिंतन की उत्कृष्टता एवं संकल्प की प्रबलता जितनी अधिक सुदृढ़ होगी उतना ही अधिक स्पष्ट उनका रूप उभर कर आयेगा। यदि संकल्प विश्रृंखलित या कमजोर हुए विचारों में अस्त–व्यस्तता हुई तो उसके प्रकंपन भी कमजोर होंगे और स्पष्ट आकार न ग्रहण कर सकेंगे।

साधना विज्ञान में इसी सिद्धान्त का उपयोग कर छाया पुरुष की सिद्धि की जाती है। यह और कुछ नहीं संकल्पों द्वारा गढ़ी अपनी ही काया की छाया की साधना है। साधना के दौरान जब इस दृढ़ संकल्प को आरोपित किया जाता है तो धीरे-धीरे यह जीवन्त, जाग्रत और सशक्त बनने लगती है और अन्ततः एक पृथक् सत्ता का रूप धारण कर लेती है। अस्थिर एवं कमजोर संकल्प वालों का छाया पुरुष भी निर्बल होता है और यदा-यदा अपनी हलकी झलक-झाँकी दिखाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पाता। संकल्प की दृढ़ता न केवल व्यक्तित्व को सामर्थ्यवान बनाती है, वरन् इसके साधक अपने छाया पुरुष को भी बलिष्ठ बनाकर उससे कोई भी दुरूह कार्य सम्पन्न करा लेते हैं।

साधना विज्ञान के विशेषज्ञों का कहना है कि मात्र विचार परिवर्तन से उनके आकारों में परिवर्तन आता हो, ऐसी बात नहीं है, वरन् भाव परिवर्तन से भी आकृतियों में बदलाव आता है। उनके अनुसार स्नेहसिक्त भाव आकर्षक फूलों की भाँति होते हैं और अनायास ही हर किसी को अपनी ओर खींच लेते हैं। इसी तरह भगवद् भक्तियुक्त भावना प्रवाह के आकार गुम्बदनुमा होते हैं तो ईर्ष्या, द्वेष और हिंसायुक्त विचार आयुध की आकृति लिए होते हैं। शाप और वरदान इसी आधार पर कार्य करते एवं भले-बुरे परिणाम प्रस्तुत करते हैं। शाप में चूँकि अहितकर भावों का समावेश होता है, अतः वह जिस व्यक्ति को लक्ष्य कर दिये जाते हैं, उस तक पहुँच कर विचारों के यही अस्त्र अमंगलकारी प्रभाव उत्पन्न करते हैं। इसके विपरीत वरदान में जीवन की सफलता और सुख-समृद्धि का संकल्प जुड़ा होता है, फलतः वह निर्दिष्ट व्यक्ति के लिए वैसी ही परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं।

विचारों की आकृतियों के अस्तित्व के सम्बन्ध में विशेषज्ञों का कहना है कि उनकी दृढ़ता और लघुता की प्रकृति के आधार पर ही उनकी समयावधि का निर्धारण होता है। उद्देश्यपूर्ण विचारों पर बारम्बार किया गया चिन्तन मनन उनके आकार को स्थायित्व प्रदान करने के साथ ही उन्हें चिरकालिक बनाता है। निरुद्देश्य एवं अस्थिर मनःस्थिति में किये गये संकल्प भी क्षणिक होते हैं। छोटे-मोटे प्रभाव छोड़कर वे थोड़े दिनों में समाप्त हो जाते हैं।

आकारों की भाँति विचारों के भी अपने पृथक्-पृथक् रंग होते हैं। भक्तिमय विचारों का रंग साधना विज्ञान में आसमानी बताया गया है और कहा गया है कि इस रंग की ध्यान साधना द्वारा इन्हें परिपुष्ट बनाया जा सकता है। रक्ताभवर्ण कामुकताजन्य विचारों की अभिव्यक्ति करता है। सात्विक लोगों के विचार पीत रंग वर्ण के बताये जाते हैं, जबकि स्वार्थ परायण व्यक्ति हरे रंग के विचार उत्पन्न करते हैं। भावनाओं में क्रोध का समावेश हो तो रंग लाल मिश्रित काला होता है। इस तरह विचारों में जो जो भाव समाविष्ट होते जाते हैं, तद्नुरूप उनकी आकृतियाँ भी उन वर्णों का सम्मिलित स्वरूप प्रकट करती हैं।

धर्मशास्त्रों में उपास्य देवों के वर्ण, रूप, अलंकार, आयुध आदि की मर्यादाएँ इसी कारण निर्धारित की गई है कि विचारों को अनुकूल रंग और आकार प्रदान किया जा सके। इससे साधना की सफलता सुगम बन जाती है। मंत्र-शास्त्रों में इसी हेतु विभिन्न प्रयोजनों के लिए इष्टदेव के भिन्न-भिन्न रूप रंग, छंद, ऋषि आदि निश्चित किये गये हैं। मंत्र सिद्धि के लिए इस संदर्भ में ऋषियों द्वारा निर्देशित नियमों-विधानों का पालन करना आवश्यक होता है। पर प्रायः लोग अनभिज्ञता या अज्ञानतावश इन निर्धारणाओं को मात्र मस्तिष्क की कोरी कल्पना मान लेते हैं और लकीर पीटते रहने भर से खाली हाथ रह जाते हैं। इसी तरह तामसिक पूजा विधान तथा हेय विचार भी सत्परिणाम के स्थान पर उलटे दुखदायी संकट ही खड़े करते हैं। उनसे मात्र अरुचि ओर घृणा ही उत्पन्न होगी और विचार एवं उसकी आकृति की अनुकूलता न बन पाने के कारण सिद्धि भी प्रायः संदिग्ध ही बनी रहेगी। तमसाच्छन्न विचार लक्ष्यवेध में सदैव विफल ही रहते हैं।

विचारों का स्थूल रूप शब्द-तरंग है, तो इसका सूक्ष्म रूप प्रकाश तरंग की तरह-लेसर स्तर का कार्य करता है। अपनी इसी सूक्ष्मता के कारण विचार अत्यधिक सामर्थ्यवान होते हैं, जिसकी शक्ति इनके विशेष आकार और रंग पर निर्भर करती है। भले-बुरे प्रभाव, इसी के प्रतिफल होते हैं। स्वाध्याय, मनन-चिन्तन सज्जनों का संग आदि कुछ ऐसे उपाय हैं जिनके द्वारा अपनी विचारशक्ति की प्रभावोत्पादकता को बढ़ाया और स्वयं के उज्ज्वल भविष्य की संभावना को सुनिश्चित किया जा सकता है।


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