पत्नी गुरु-पति शिष्य

May 1990

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द्वार के सामने से निकलती पशुओं की कतार को देखकर वह चिल्लाया ‘उद्र उट्र’। भीतर से पति की वाणी सुनकर गृहिणी निकली उसके कानों में अन्तिम शब्द पड़े। व्याकरण की महापण्डिता, दर्शन की मर्मज्ञा, देवनागरी और देव भाषा की यह विचित्र खिचड़ी देखकर सन्न रह गई। आज विवाह हुए आठवाँ दिन था। यद्यपि इस एक सप्ताह में बहुत कुछ उजागर हो चुका था। मालूम पड़ने लगा था जिसे परम विद्वान बताकर दाम्पत्य बंधन में बाँधा गया था वह परम मूर्ख है और ऊँट को संस्कृत में बोलने के दाम्भिक प्रयास ने अनुमान पर प्रामाणिकता की मुहर लगा दी।

उफ! इतना बड़ा छल! ऐसा धोखा! वह व्यथित हो गई। व्यथा को पीने के प्रयास में उसने निचले होंठ के दाहिने सिरे को होठों से दबाया। सदियों से इसी प्रकार पुरुष ने नारी को ठगा है। कभी समर्पण की महत्ता बताकर कभी पतिव्रता के कानून बनाकर स्वयं पत्नीव्रत से च्युत होकर पर्दा प्रथा की दीवारें खड़ी कर। धोखेबाजी यहीं तक सीमित रहती तो भी खैर थी। ढेरों स्वाँग रचकर दहेज की लूट। लूटने के बाद भी त्रास यहाँ तक हत्या की नृशंसता भी। ओह! नारी कितना सहेगी तू? कितनी घुटन है तेरे भाग्य में कब तक गीला होता रहेगा आँचल आँसुओं की निर्झरिणी से। सोचते-सोचते उसे ख्याल आया कि वह उन्हें भोजन हेतु बुलाने आयी थी। चिन्तन का एक ओर झटककर पति के कंधे पर हाथ रखा ‘आर्य! भोजन तैयार है’। अच्छा कहकर वह चल पड़ा।

भोजन करते समय तक दोनों निःशब्द रहे। हाथ धुलवाने के पश्चात गृहिणी ने ही पहल की। ‘स्वामी’। कहो स्वर में अधिकार था।

‘यदि आप आज्ञा दें, तो मैं आपकी ज्ञान-वृद्धि में सहायक बन सकती हूँ।’

‘तुम ज्ञान वृद्धि में’ आश्चर्य से पुरुष ने आँखें उसकी ओर उठाई।

‘हाँ’ स्वर को अत्याधिक विनम्र बनाते हुए उसने कहा अज्ञान अपने सहज रूप में उतना अधिक खतरनाक नहीं होता जितना कि तब जबकि वह ज्ञान का छद्म आवरण ओढ़ लेता है, एक झूठी कलई अपने ऊपर पोत लेता है। ‘तो तो मैं अज्ञानी हूँ’ अटकते हुए शब्दों में भेद खुल जाने की सकपकाहट नर्तन कर रही थी।

‘नहीं’ नहीं आप अज्ञानी नहीं है’ स्वर को सम्मान सूचक बनाते हुए वह ‘बोली पर ज्ञान अनन्त है और मैं चाहती हूँ कि आप में ज्ञान के प्रति अभीप्सा जगे। फिर आयु से इसका कोई बंधन भी नहीं। अपने यहाँ आर्य परम्परा में तो वानप्रस्थ और संन्यास में भी विद्या प्राप्ति का विधान है। कितने ही ऋषियों ने आप्तपुरुषों ने जीवन का एक दीर्घ खण्ड व्यतीत हो जाने के बाद पारंगतता प्राप्त की।’

सो तो ठीक है पर पति की मानसिकता में परिवर्तन को लक्ष्य कर उसका उल्लासपूर्ण स्वर फूटा ‘मैं आपकी सहायिका बनूँगी। ‘तुम मेरी शिक्षिका बनोगी पत्नी और गुरु!’ कहकर वह ही ही करके हंस पड़ा। हंसी में मूर्खता और दंभ के सिवा और क्या था?

‘पति के इस कथन को सुनकर उसके मन में उत्साह का ज्वार जैसे चन्द्र पर लगते ग्रहण को देख थम सा गया। वह सोचने लगी आह! पुरुष का दंभ। नारी नीची है, जो जन्म देती है वह नीची, जो पालती है वह नीची है, जिसने पुरुष को बोलना चलना, तौर तरीके सिखाए वह नीची है। और पुरुष क्यों ऊँचा है? क्यों करता है- सृष्टि के इस आदि गुरु की अवहेलना क्योंकि उसे भोगी होने का अहंकार है। नारी की सृजन शक्ति की महानता और गरिमा से अनभिज्ञ है।

‘क्या सोचने लगी’? पति ने पूछा।

अपने को संभालते हुए उसने कहा,’कुछ खास नहीं। फिर कहने से लाभ भी क्या? नहीं कहो तो’? स्वर में आग्रह था।

सुनकर एक बार फिर समझाने का प्रयास करते हुए कहा हम लोग विवाहित हैं। दाम्पत्य की गरिमा परस्पर के दुख सुख हानि लाभ वैभव सुविधाएँ धन-यज्ञ का मिलकर उपभोग करने में है। पति-पत्नी में से कोई अकेला सुख लूटे दूसरा व्यथा की धारा में पड़ा सिसकता रहे क्या यह उचित है।

नहीं तो पति कुछ समझने का प्रयास करते हुए बोला।

‘तो आप इससे सहमत है कि दाम्पत्य की सफलता का रहस्य स्नेह की उस संवहन प्रक्रिया में है जिसके द्वारा एक के गुणों की ऊर्जस्विता दूसरे को प्राप्त होती है। दूसरे का विवेक पहले के दोषों का निष्कासन परिमार्जन करता रहता है।’

‘ठीक कहती हो’ नारी की उन्नत गरिमा के सामने दंभ नतीजतन हो रहा था।

‘तो फिर विद्या भी धन है शक्ति है ऊर्जा है जीवन का सौंदर्य है। क्यों न हम इसका उपयोग मिल बाँटकर करें।’

‘हाँ यह यही है।’ तब आपको मेरे सहायिका बनने में क्या आपत्ति है?

कुछ नहीं स्वर ढीला था शायद नारी की सृजन शक्ति के सामने पुरुष का अहं पराजित हो उठा था। तो शुभस्य शीघ्र और वह पढ़ाने लगी अपने पति को। पहला पाठ अक्षर ज्ञान से शुरू हुआ। प्रारंभ में कुछ अरुचि थी पर प्रेम के माधुर्य के सामने इसकी कड़वाहट नहीं ठहरी। क्रमशः व्याकरण छन्द शास्त्र निरुक्त ज्योतिष आदि छहों वेदाँग। षड्दर्शन ज्ञान की सरिता उमड़ती जा रही थी दूसरे के अन्तर की अभीप्सा का महासागर उसे निःसंकोच धारण कर रहा था।

वर्षों के अनवरत प्रयास के पश्चात पति भी अब विद्वान हो गया था। ज्ञान की गरिमा के साथ मन ही मन वह नत मस्तक था उस सृजन शिल्पी के सामने जो नारी के रूप में उसके सामने खड़ी थी।

सरस्वती की अनवरत उपासना उसके अन्तराल में कवित्व की अनुपमेय शक्ति के रूप में प्रस्फुटित हो उठी थी और एक दिन वह कभी का मूढ़ अब महाकवि हो गया। देश देशान्तर सभी उसे आश्चर्य से देखते सराहते और शिक्षण लेने का प्रयास करते। वह सभी से एक ही स्वानुभूति तथ्य कहता, पहचानो नारी की गरिमा, उस कुशल शिल्पी की सृजन शक्ति को जो आदि से अब तक मनुष्य को पशुता से मुक्त कर सुसंस्कारों की निधि सौंपती आयी हैं। महाराज भोज ने उन्हें अपने दरबार में रखा अब वह विद्वत् कुलरत्न थे। दाम्पत्य का रहस्य सूत्र उन्हें वह सब कुछ दे रहा था जो एक सच्चे इनसान को प्राप्त है स्वयं के जीवन से लोक जीवन को दिशा देते थे दंपत्ति थे महाविदुषी विद्योत्तमा और कविकुल चूड़ामणि कालिदास। जिनका जीवन दीप अभी भी हमारे अधूरे पड़े परिवार निर्माण के कार्य को पूरा करने के लिए मार्ग दर्शन कर रहा है। दिव्यसत्ता के सृजन संकेत भी इसी दिशा में चल पड़ने का निर्देश दे रहे हैं।

भारतेन्दु हरिश्चंद्र को हिन्दी के खड़ी बोली वाले स्वरूप के जनक के रूप में जाना जाता उदारवादिता के लिए वे प्रख्यात थे। उनकी विपुल सम्पत्ति इसी प्रवृत्ति के कारण कुछ ही समय में समाप्त हो गई। कर्ज चढ़ गया। एक महाजन से उन्होंने ऋण लेकर एक नाव खरीदी। जिसका भुगतान वे समय पर न कर सके। महाजन ने कितनी बार तकाजा किया किन्तु वे रकम चुकाने का वायदा तो करते रहे उसे पूरा न कर पाते। विवश होकर उसने न्यायालय में मुकदमा दायर कर दिया। न्यायाधीश उन दिनों सर सैयद अहमद खाँ थे। जो बाद में अलीगढ़ विश्व विद्यालय के संस्थापक बने। उन्होंने अकेले में बुलाकर भारतेन्दु जी से पूछा कि क्या वास्तव में उन्होंने कोई उक्त रकम महाजन से उधार ली है। यदि भारतेन्दु जी चाहते तो साफ मना कर सकते थे क्योंकि न्यायाधीश का उनका बहुत घनिष्ठ परिचय था। किन्तु नैतिकता का तकाजा था कि न्यायाधीश की सहानुभूति का उसने किंचित् भी दुरुपयोग नहीं किया।

हरिश्चन्द्र जी के मित्रों ने वकीलों ने भी उकसाया कि जब न्यायाधीश से उनका घनिष्ठ परिचय है तो लाभ उठाया जाना चाहिए और उन्हें नट जाना चाहिए। वे सब के सुझाव तर्क-वितर्क सुनते रहे। किन्तु वे सत्यनिष्ठा पर अडिग रहे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया कि दावे में लिखित राशि उन्होंने ली है। चुकाने में विलम्ब हुआ जरूर है किन्तु उनकी नीयत में बेईमानी रच मात्र नहीं है।

ऋण का भार उन्होंने अन्ततः अपना मकान बेचकर उतारा। सत्यनिष्ठा पर आँच नहीं आने दी। ऋणी बने रहने, बेईमान कहलाने का कलंक का टीका उन्होंने नहीं लगने दिया।


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