प्रिय! ऐसे मत बनो कि तुमको लख कोई घबराये। या कि तुम्हारी आँख देख कर आँख कोई भर आये॥
मेघ बनो-जल की धारा ले इस दुनिया में बरसो। किन्तु किसी की आशा पर मूसलाधार मत बरसो।
इसी तरह ऊषा की लाली बनकर तमस् मिटाओ। धूम दुपहरी की बनकर मत कोमल अंग जलाओ॥
बना रहे संतुलन, न सीमा टूट कहीं भी पाये॥
वचन न बनने दो अंगारे वे भीतर जाते हैं। और जलाकर राख हृदय मानव का कर आते हैं॥
अपनी तरह दूसरे को भी ठण्डक ही भाती है। और आग मिलती है तो आत्मा तक जल जाती है॥
क्रोध त्याग दो, यह ज्वाला है जो बुझती न बुझाए। जितना बने-बनें हम औरों के हित फूल सुकोमल॥
कमल न बन पायें तो कम से कम न बनें हम दलदल॥
यह संसार चाहता है बस प्यार और कोमलता। अतः त्याग दो औरों के प्रति दंभ, द्वेष, छल, कटुता॥
पारस बनो-मिले जो हमसे वह सोना हो जाय॥
-माया वर्मा