विशेष ज्ञातव्य- - विराट स्तर पर साइकिल तीर्थयात्रा का आयोजन

May 1990

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तीर्थयात्रा से जब भी अर्थ लिया जाता है उसे धर्म प्रचार की पदयात्रा कहा जाता है। धर्म में यों अनेक विशेषताएँ हैं पर शास्त्रकारों ने उसे अपंग कहा है। वह अपने पैरों चल सकने में असमर्थ रहती है। इसलिए उसे कंधों पर बिठा कर चलने का विद्यमान है। श्रवण कुमार अपने माता-पिता को काँवर में बिठाकर कंधों पर रखकर तीर्थयात्रा कराने ले गये थे। माता-पिता को यात्रा कराने से श्रवण कुमार को पुण्य लाभ हुआ और माता-पिता की इच्छा भी पूर्ण हुई। धर्म के संबंध में भी यही बात है साधु व ब्राह्मणों को देव-संस्कृति में देवमानव का स्थान दिया गया है क्योंकि वे धर्म चेतना को गाँव-गाँव तक, व्यक्ति-व्यक्ति तक अपना श्रम और समय लगाकर पहुँचाने का पुण्यकार्य करते रहे हैं।

भूसुर या मनुष्यों में देवता उन्हीं को कहा जाता रहा है जो बिना बुलाये बिना माँगे सद्ज्ञान जैसी उच्चकोटि की सम्पदा वितरित करने के लिए घर-घर पहुँचते रहे हैं। तीर्थयात्रा को परमार्थ कहा गया है। इसमें लेने वाले की नहीं, देने वाले की महत्ता है। सद्ज्ञान से आगे बढ़कर सद्भावना का वितरण कर पिछड़ों को ऊँचा उठाया जा सकता इससे बड़ा कोई पुण्य नहीं।

परमार्थ परायणता की भावना का बाहुल्य होने व तप तितिक्षा कर स्वयं दुखी पीड़ितों दलितों तक पहुँचने की साधु ब्राह्मण परम्परा के जीवित होने के कारण ही पुरातन युग सतयुग कहा जाता था। जन-जन में अलख जगाने की प्रक्रिया जीवन्त होने के कारण धर्मधारणा का व्यापक विस्तार था। यही कारण था कि विचारों और सत्प्रवृत्तियों का बाहुल्य था न कहीं मानसिक क्लेश, संताप पारस्परिक विग्रह, कलह, अपराधी प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होती थी, न कोई दुष्प्रवृत्तियों को अपनाता ही था। आज जन-जागरण की वह परम्परा ऋषियों-साधुओं ब्राह्मणों के अभाव के कारण लुप्त हो गयी है। तीर्थ यात्रा तो अब भी चलती है, पर वह होती बसों से, रेलों से, विमानों से है तथा पिकनिक, चित्र विचित्र दृश्य देखने के मनोरंजन तक ही सीमित होकर रह गयी है।

श्रुति के अनुसार तीर्थ व देवालय भारत भूमि के चप्पे-चप्पे में विद्यमान हैं। श्री गोखले ने गाँधीजी को विशाल भारत की पदयात्रा कर फिर अपनी स्वतंत्रता संग्राम की रणनीति बनाने को कहा था। उसने वही किया, दरिद्रता अभाव की वस्तुस्थिति देखकर वैसा ही बना पहना एवं ग्रामीण अर्थ व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने वाली नीति बनायी। स्वामी विवेकानन्द ने पूरे भारत की पैदल यात्रा कर जब कन्याकुमारी की श्रीपाद शिला पर ध्यान लगाया तब उनका भारत भूमि की विराट आत्मा से साक्षात्कार हुआ एवं मठ व संन्यासी परिव्राजक परम्परा द्वारा जन-जन तक पहुँचने की एक व्यापक योजना बन कर सामने आई।

आज की परिस्थितियों में यदि भारत का नये सिरे से पुनर्निर्माण करना हो, संव्याप्त दुष्प्रवृत्तियों से जूझना हो तो एक ही मार्ग रह जाता है- पैदल यात्रा के परिष्कृत रूप साइकिल यात्रा द्वारा बहुसंख्य ग्रामीण भारत के हर भाग तक पहुँचा जाय तथा यह कार्य साधु ब्राह्मणस्तर के परिव्राजकों द्वारा निस्वार्थ भावना से धर्मधारणा के विस्तार हेतु किया जाय सतयुग को ऋषि युग को इसी आधार पर पुनः लाया जा सकता है।

यह जाना माना तथ्य है कि साइकिल ही इक्कीसवीं सदी का एकमात्र वाहन होगा। ईंधन के चुकते संसाधनों के इस युग में भेड़ से भरे प्रदूषण भरे यातायात में मात्र साइकिलें ही जिन्दा रहेगी। जापान व चीन की तरह पैडल पॉवर की महत्ता समझते हुए हमें भी साइकिलें ही जन-जन तक पहुँचने के लिए प्रयुक्त करनी होंगी। यात्रा की दृष्टि से वे सुगम भी है तथा किसी ईंधन की माँग नहीं करती। साइकिल चलाने वालों का स्वास्थ्य ही औरों की अपेक्षा अधिक अच्छा रहता है।

विगत चैत्र नवरात्रि पूर्व से शान्तिकुञ्ज से १०० साइकिलों का एक जत्था विभिन्न ग्रामों का एक यात्रा बनाकर रवाना हो चुका है। इसमें प्रशिक्षित परिव्राजक दोपहर बाद एक गाँव पहुँचकर दिन भर वहाँ वाक्य लेखन तथा नुक्कड़ सभाओं द्वारा अपने आने का उद्देश्य समझाकर शाम को भजनोपदेशक शैली में उद्बोधन देते हैं। एक साइकिल पर टेपरिकार्डर, एंप्लीफायर माइक आदि की व्यवस्था है, शेष चार पर सद्वाक्य लेखन का सामान, दीपयज्ञ आयोजन व पूजा आदि की सामग्री, ५ व्यक्तियों के रहने ओढ़ने, खाने पहनने आदि का सामान है। कभी भोजन व्यवस्था न होने पर वे स्वयं अपना भोजन दाल-चावल की खिचड़ी बना लेते हैं। अगले दिन प्रातः शान्तिकुञ्ज जैसी दिनचर्या में सभी ग्रामवासियों को भागीदार बनाकर दीपयज्ञ आयोजित करते हैं, जिसमें बड़े उत्साह से सभी ग्रामवासी भाग लेते हैं, देव दक्षिणा में अपनी दुष्प्रवृत्तियाँ छोड़ते हैं। संक्षिप्त आयोजन के बाद पूरे गाँव की परिक्रमा होती है व फिर वे अगले गाँव की ओर बढ़ जाते हैं।

इस प्रक्रिया से ग्रामीण परिकर में बड़ा उत्साह आया है, धर्मधारणा के, सत्प्रवृत्तियों का विस्तार हुआ है। २७ मार्च से आरंभ हुए इन कार्यक्रमों को अभी तो १ दिन का ही रखा गया है परन्तु १ मई से डेढ़ से दो दिन के स्थान विशेष की आवश्यकतानुसार कर दिये गये हैं। आयोजनों की सुरुचिपूर्ण व्यवस्था तथा प्रभावोत्पादकता को देखते हुए स्थानीय ग्रामवासियों के अनुरोध पर कार्यक्रमों को थोड़ा लंबा करना पड़ा है। पीली साइकिलों पर पीत वस्त्रधारी साधु ब्राह्मणों की नव भोज लगाती टोली जहाँ नजर आती हैं, सभी समझ जाते हैं कि ये शान्तिकुञ्ज के तीर्थ यात्री हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अपने रंग में रंग कर ये तीर्थयात्री अब क्रमशः मध्य प्रदेश गुजरात, राजस्थान व समूचे उत्तर प्रदेश में फैलने वाले हैं। प्रारंभ तो १०० साइकिलों से किया गया था किन्तु अब १०० पीली साइकिलें ही सीधे फैक्ट्री में मंगाई गयी है लक्ष्य एक लाख साइकिलों का है। स्थानीय कार्य कर्ताओं को न्यूनतम चालीस दिन के लिए इस पुण्य कार्य के लिए निकलने का आमंत्रण दिया गया है।

शान्तिकुञ्ज से जुड़े सूत्रचालक के सभी आत्मीय घनिष्ठों से, पत्रिकाओं के पाठकों तथा समयदानी परिजनों से यह अनुरोध किया गया है कि वे एक लक्ष साइकिलों द्वारा एक लाख गाँवों तक पहुँचने के युग ऋषि के संकल्प को पूरा करने के लिए शीघ्र ही अपने सहयोग-योगदान की सूचना शान्तिकुञ्ज दें। जिनसे कभी केन्द्र को अपना समयदान भेंट कराया था, वे भी दस दिन का प्रशिक्षण लेकर एक माह के लिए ग्रामीण अंचलों तक जाने के लिए तैयार रहें। इसके लिए प्रारंभिक शिक्षण हेतु पहले शान्तिकुञ्ज आना होगा भले ही उनका यात्रा क्षेत्र यहाँ से दूर कहीं और हो। चूँकि ये ग्रामीण जनता के लिए कार्यक्रम है, उन्हें मूलतः लोक संगीत पर आधारित, लोकवाद्यों के माध्यम से छोटी-छोटी मार्मिक सत्प्रेरणाओं को गूँथकर बनाया गया है। इस संभाषणकला तथा पौरोहित्य विद्या आदि का शिक्षण अपने आप में एक समूचा नया प्रशिक्षण जिसे किसी तरह दस दिन में ही दिये जाने की व्यवस्था बनाई गई है।

महाकाल का दैवी सत्ता का यह संकल्प है कि प्रस्तुत संधिवेला में विराट स्तर पर पूरे भारतवर्ष में एक लक्ष्य दीप यज्ञायोजनों को संपन्न किया जाना है। ७८ प्रतिशत से अधिक जनता, गाँवों में रहती है। नवयुग का संदेश यदि इन सभी तक पहुँच सका तो यह समझना चाहिए कि पूरे भारत को जगा दिया गया। भारत एक महाशक्ति है किन्तु इसे सोया हुआ दैत्य कहा गया है। जब यह जाग पड़ेगा तो इसकी शक्ति कितनी होगी व किस प्रकार धर्मधारणा-सुसंस्कारिता पर आधारित वह महाराष्ट्र विश्वनेतृत्व में अपनी भूमिका अगले दिनों सम्पन्न करेगा इस संबंध में कल्पना करते ही रोमांच हो उठता है।

साइकिल तीर्थयात्रा से भारत भूमि की यात्रा का पुण्य तो अर्जित होगा ही, अहंकार गलकर नवयुग के अनुरूप देवमानव बनने, युग नेतृत्व में भागीदारी, साधु व ब्राह्मण बनने तथा स्वास्थ्य लाभ जैसी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ भी जुड़ी हुई है। ब्राह्मण की वाणी तभी फलित होती है। जब इसका वाणी व रसना पर नियंत्रण हो। जो बोले वह सोद्देश्य हो व जिह्वा का संयम इतना हो कि जो मिल जाय उसी में संतोष कर ले। यही कठोर व्रत लेकर धर धर अलख जगाने शान्तिकुञ्ज के साइकिल तीर्थयात्री वर्ते संकल्पों के साथ निकल पड़े हैं। ब्राह्मणों से अर्थ है, सभी जिनमें पुण्य-परमार्थ की भावना जिन्दा हो, तथा तितिक्षा का माद्दा हो तथा अपने समय के सुनियोजन के महत्ता युग के अनुरूप आवश्यकताओं को पूरा करने में ही वे समझते हो। उन सभी से अनुरोध है कि यूँ देवता के आमंत्रण को स्वीकार करें एवं विशाल भारत की इस विराट तीर्थ यात्रा के भव्य आयोजन में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करे।


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