विपरीत ही सिद्ध हो रही है। इसलिए त्याग पत्र देने का विचार कर आपकी अनुमति माँगने आया हूँ’ और इतना कह उन्होंने हस्त लिखित त्याग पत्र का प्रारूप बापू के सामने रख दिया।
‘गाँधी जी ने इसे ध्यान से पड़ा और ताकते हुए बोले मानवी वृत्तियाँ ऊर्ध्वगामी बनानी पड़ती हैं इनका अधोगामी होना सहज है। अच्छाइयाँ सिखानी पड़ती है बुराइयाँ खुद ही आ जाती है। संसार में अच्छाइयाँ ऊर्ध्वमुखी जीवन अभी तक नहीं बन पड़ा है। जानते हो ‘क्यों?’ नहीं।
‘क्योंकि तुम्हारे जैसे अच्छे लोग जिन पर उन्नत जीवन सिखाने की जिम्मेदारी रही है पलायनवादी होते आए हैं।’
‘पर कुछ हकलाते हुए उन्होंने कहना चाहा। ‘पूरी बात सुनो’ बापू ने अंगुली के इशारे से उन्हें रोकते हुए आगे कहा ‘कारण एक ही रहा है स्वयं के व्यक्तित्व को सामने ले आना। निजी मानापमान का प्रश्न सामने रखना। तुम सार्वजनिक कार्यकर्ता अर्थात् लोकसेवी हो। लोकसेवी लोक शिक्षक भी होता है। उसका एक ही आदर्श होना चाहिए सब कुछ सहकर भी मानवीय व्यवहार को गढ़ने में निरत रहना। मनुष्यता को अधिकाधिक गरिमामय बनाने की कोशिश में लगे रहना।’
सुनने वाले के अंतर्मन में ये वाक्य तीर की तरह जा घुसे। उन्होंने सोचा ‘कैसी क्षुद्र अहमन्यता में फंसा था मैं। जब व्यक्ति लोकसेवा में अपने जीवन प्रवाह को नियोजित कर देता है तो उसके वैयक्तिक चैतन्य पर उसका अधिकार ही क्या? सेवा कार्य में मानापमान का ख्याल तो अधर्म है।
बदल गया निर्णय। इस्तीफे के टुकड़े करके वहीं कूड़ादान में डाल दिया। पलायन से कर्त्तव्य की ओर मुड़ने सन्नद्ध होने वाले लोकसेवी थे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जो बाद में भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने। अब उनके मन में उल्लास था अपने मार्गदर्शक को माथा नवाकर वे चल पड़े गन्तव्य की ओर।