देवता, जिसकी भटकन छूटी

May 1990

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वह ताँगे से उतर कर एक ओर चल पड़ा। रूखा चेहरा, उलझे बाल, सूखे होंठ, व्यथा और आक्रोश को अपने में संजोई हुई आँखें, सभी मिलकर उसकी मानसिक संतप्तता को मुखर होकर बता रहे थे। हो भी क्यों न? इन कुछ ही दिनों में उसे अपने कहे जाने वालों से क्या कुछ आघात नहीं सहने पड़े। क्या यही है जिन्दगी? द्वेष-कलह चिन्ता ईर्ष्या की आग में जलने सुलगने वाला ईंधन। यह नहीं तो फिर और क्या? जीवन या तो घुटन है या फिर उन्माद। वह सोचता हुआ बढ़ रहा था। आखिर सिसकते हुए जीने की भी हद होती है। कब तक जकड़ रहेंगे परिस्थितियों की जटिलता ही एक उपाय है सिर्फ एक। इस जिन्दगी से निजात वह अपने आपसे कह उठा। तभी तो वह इधर आया है परिचितों से दूर। उसके आगे बढ़ते कदम जैसे जिन्दगी में व्यथा के बवंडर परेशानियों के झंझावात को लिए चलता जा रहा था इन सभी से अन्तिम छुटकारा पाने हेतु। कब गंगा घाट आ गया पता ही न चला। सामने थी गंगा की विशाल जल राशि। जिसमें कुछ लोग तैर रहे थे। इन सभी को अनदेखा करता हुआ वह जगह ढूँढ़ रहा था वह जगह जहाँ से छलाँग लगाकर वह गंगा की गोद में चिरविश्रान्ति पा सके।

इतने में सामने से आ रहे एक किशोर ने उसे पहचानने का प्रयास करते हुए पुकारा-मामा आप यहाँ अकेले’। उसने आँखें उठाई होठों को दाँतों से काटा। फिर सामान्य बनने का प्रयत्न करते हुए कहा- अरे सिद्धू तुम?’

‘पर आप यहाँ कैसे’? ‘कुछ नहीं बस वैसे ही’ अन्तर के भावों को छिपाने का प्रयास करते हुए कहा। पर चेहरा मानव मन का दर्पण जो है। मन में उठने वाले विचारों की तरंगें, उमड़ने वाले भावों की लहरें इस पर प्रतिबिम्बित हुए बिना नहीं रहती।

‘छिपाने की कोशिश भले करें-पर आप परेशान जरूर है-किशोरवय से युवावस्था में छलाँग लगाते तरुण ने उसके चेहरे की ताकते हुए कहा। ‘मुझे अकेले छोड़ दो और तुम जाओ फिर कभी बैठेंगे उसने पीछा छुड़ाने की गरज से कहा। ‘नहीं आज मैं तो नहीं छोड़ने का’। किशोर ने अपने से वय में पाँच-सात साल बड़े मामा का हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा। फिर जैसे कुछ सोचते हुए बोला-मामा एक बात कहूँ। ‘मामा दक्षिणेश्वर चलोगे’?

भाँजे की जिद्द के सामने उसे झुकना पड़ा घाट पर खुलने जा रही नाव पर बैठ कर चल पड़े दक्षिणेश्वर की ओर। उसकी समस्याओं से अनभिज्ञ बालक चटपटी बातें किए जा रहा था। न चाहते हुए भी मन पर चढ़ा आवेश का बुखार उतरता जा रहा था।

दक्षिणेश्वर का घाट आ गया। दोनों उतरे गंगा में हाथ-पाँव धोकर चल पड़े- सामने बने मन्दिर की ओर। देवालय में प्रणाम के अनन्तर सिद्धू ने कहा- ‘मामा उधर की ओर चलना है सामने वाले कमरे की ओर उसी में वह रहते हैं।’

‘कौन’? ‘वही संत’। कमरे में प्रवेश करते हुए उन्होंने देखा लाल किनारी की धोती उस पर एक कुर्ता पहने हल्की दाढ़ी वाला एक व्यक्ति हलकी सी तुतलाहट भरी किन्तु मोहक आवाज में सामने बैठे लोगों से कह रहा था- ‘इंसान भटका हुआ देवता है। भटकन छूटे तो देवता बने। भटकाव के कारण ही परमात्मा की अमूल्य धरोहर जिन्दगी उसे घुटन उन्माद भरी लगती है। ‘महाजनो येन गतः सपन्थाः’ की नीति न सुहाने के कारण वह पगडंडी छोड़कर चल पड़ा है बीहड़ में। ऐसे में काँटे लगे विषैले जीवों के दंश का शिकार होना पड़े तो आश्चर्य क्या’?

सन्त ने सहास्यवंदन उन आगन्तुकों को देखा मुस्कराए और बैठने का इशारा करते हुए अपना कथन जारी रखा पहचानो अपने को और उस राह को जिस पर चलना उचित है। जिन्दगी का उद्देश्य और उपयोग का पता चल जाने के बाद साफ अनुभव हो जाता है कि परिस्थितियों की जटिलता भी मानव विकास हेतु प्रशिक्षण मात्र है।’

उसे यह सब सुनकर लग रहा था जैसे वह सब कुछ उसी को कहा जा रहा है। तो क्या वह भी भटका हुआ देवता है। फिर राह कैसे पाए? देवत्व को कैसे उपलब्ध करे?

हिम्मत जुटाई। गले को खंखार कर बोला ‘एक जिज्ञासा है’? ‘पूछो’ सन्त ने बाल सुलभ मुस्कराहट के साथ कहा।

‘भटकन से कैसे उबरा जाय? स्वयं को कैसे पहचाना जाय’। ‘इधर आओ’ उन्होंने उसे स्नेह से बुलाया। पास पहुँच जाने पर कहा ‘यह शीशा देखते हो इसमें क्या दिखाई देता है’? ‘अपना चेहरा’ ‘उसका जवाब था।

‘ध्यान से देखा कुछ और दिखेगा’? प्रयत्न करते हुए अपने प्रतिबिम्ब की ओर निहारा पर कुछ तो नहीं दिखा। ‘भावों का परिवर्तन नहीं दिखा उस समय जब तुम खिलखिलाते थे तब और आज की सूजी आँखें चेहरे की रुपाई में परिवर्तन नहीं’। ‘हाँ सो तो है’। ‘और गहरे जाओ स्वयं की आँखों में प्रवेश करो’। उसने प्रवेश करने का प्रयास किया। ‘प्रतिबिम्ब की आँखों में आँखें डालो। कुछ समझ में आया? समझे हो तो सब-सच कहो’।

‘हाँ कुछ-कुछ उसने संत की ओर देखा संत के चेहरे पर पितृ सुलभ करुणा थी। आँखों में है विरक्ति वितृष्णा का भाव पलायन की दुर्बलता। किंचित् और अन्तर में प्रवेश करो। वहाँ पहुँचो जहाँ विचार समाप्त होते भाव उपजते हैं’ अब वह अपने को स्वस्थ महसूस कर रहा था। उसे थोड़ा विस्मय भी था।

दर्पण में भेदती उसकी दृष्टि अब अन्तर की ओर लौटने लगी थी। भावों का उद्गम बिन्दु। मन की कल्पनाओं के गहरे विश्लेषक बुद्धि के भी नीचे चित्तरूपी संस्कारों के जखीरे के भी परे आत्मा और प्रकृति का मिलन स्थल जिसे शास्त्र अहं कहते हैं ‘तो क्या यही है भावों का उद्गम। ‘नहीं और गहरे जाओ सत्ता के केन्द्र की ओर उस मूल की ओर जो तुम स्वयं हो’ और वह डूब गया गहरे ध्यान में।

काफी देर बाद संत ने उसके सिर पर हाथ फेरा ‘समझ पाए तुम कौन हो’?

‘हाँ’ उसके अधरों पर मुस्कान चेहरे पर आत्म तेज तथा। अन्तर में ‘अयमात्मा ब्रह्म’ का मधुर संगीत गूँज रहा था पर इस स्थिति में उद्देश्य और उपयोग।

उद्देश्य है आत्मचेतना को जीवन के सभी आयामों में उभारना। धरती पर दिव्य जीवन को सिद्ध करना। उपयोग है समूची मानव प्रकृति को दिव्य बना कर परम सत्ता के इस विश्व उद्यान को सुरम्य बनाना। धरती पर दिव्य जीवन भागवत कार्य है। ‘वसुन्धरा पर एक नया युग उदय हो रहा है अध्यात्मयुग। तुम स्वयं को पहचानने के बाद अपने कर्त्तव्य में तत्पर हो।’ ‘जो आज्ञा गुरुदेव। आज मैंने जीवन की सार्थकता समझी’ ‘और इस सार्थकता का बोध कराने वाला असली गुरु यह दर्पण है मैं नहीं।’ कहकर संत हंस पड़े। हंसी थमने पर गंभीर मुद्रा में कहा ‘सचमुच में दर्पण का महत्व है। इसकी सहायता से आत्मविश्लेषण आत्म परिमार्जन की साधना का क्रम नित्य रखना। इसे आत्मदेव की उपासना समझो’।

‘आप ठीक कहते हैं’। वह स्वयं अपना काया पलट देखकर आश्चर्य चकित थे। घर से चले थे जीवन को समाप्त करने। किन्तु अब? फिर कुछ सोचते हुए मुस्कराए सचमुच पिछला जीवन समाप्त हो गया। अब तो नया जीवन है पूर्णतया नया। २६ फरवरी, १८८२ ई. बन गई नवजीवन की जन्म तिथि। यह नया जीवन उपलब्ध करने वाले व्यक्ति और कोई नहीं श्री महेन्द्रनाथ गुप्त थे जिन्होंने श्री रामकृष्ण की सहायता से भटकाव से मुक्ति पा देवत्व को उपलब्ध किया। मास्टर महाशय के लघु नाम से परिचित इन महामानव ने अपना समूचा परवर्ती जीवन ईश्वरीय कार्य में नियोजित किया व इतिहास में अमर हो गए।


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