मुक्तिसेना के जन्मदाता धर्म गुरु बूथ

May 1990

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लन्दन की सड़क पर एक फटेहाल बच्चा हाथ में कुछ लिये तेजी से भागा जा रहा था और उसके पीछे दो चार लोग और पता नहीं कारण क्या था? कुछ देर दौड़ने के बाद लड़के को ठोकर लगी और वह सड़क पर ही गिर पड़ा। इतने में पीछे उसे पकड़ने के लिए दौड़े आ रहे लोगों ने उसे दबोच लिया और पकड़ कर ले जाने लगे उस दिशा की ओर जिससे कि वे पीछा करते आ रहे थे।

यह सारा घटनाक्रम एक पैंतीस वर्षीय पादरी देख रहे थे। उनकी समझ में नहीं आया कि लड़का क्यों भागा उसके हाथ में क्या था और उसका पीछा करने वाले लोग कौन थे? कहीं बदमाश या गुण्डे तो नहीं। इस आशंका से उनका हृदय भर आया और उसी दिशा में चल पड़े जिधर कि वे लोग गए थे। कुछ दूर तक तेज कदमों से चलकर उन्होंने देखा कि एक बेकरी की दुकान पर वह लड़का पीट रहा है और पाँच-दस लोग खड़े तमाशा देख रहे हैं।

अनुमान लगाया पादरी ने कि शायद लड़का इस दुकान से रोटियाँ चुराकर भागा है और दुकानदार ने उसे चोरी करते देख लिया है। इसी कारण उसकी पिटाई हो रही है। फिर भी उन्होंने अनुमान को परख लेना चाहा और दुकान वाले के पास जाकर खड़े हो गए। वहाँ खड़े लोगों ने अपने धर्म गुरु को देखा तो ठिठक गए और उनके अभिवादन में झुके। पादरी ने कहा मेरे बच्चों! तुम इस मासूम बच्चे पर क्यों यह अन्याय कर रहे हो।

‘फादर’ दुकानदार ने कहा ‘यह लड़का मासूम नहीं, चोर और शातिर है। प्रायः रोज ही हम लोगों की दुकान पर से रोटियाँ चुरा ले जाता है।’

‘राज नहीं’ फादर ने झूठ बोलते है-लड़के ने दुकान वाले की बात काट कर कहा-मैंने आज ही रोटी चुराई है।’

‘प्यारे बच्चे! तुमने ऐसा क्यों किया? तुम नहीं जानते कि यह समाज के लिए अपराध तो है ही प्रभु के राज्य में भी तुम्हें दण्ड मिलेगा।’

‘दण्ड मिलेगा, वह सह लूँगा फादर! पर भूख नहीं सही जाती’ लड़के ने बड़े कातर भाव से कहा और पादरी इसके आगे निरुत्तर हो गए। उस समय तो उन्होंने बच्चे को छुड़ा लिया पर उसकी निरुत्तर करने वाली बात ‘दण्ड सह लूँगा पर भूख नहीं सही जाती’ रह रहकर उन्हें बेचैन कर देती। उसी समय से वह विकल हो उठे। तो क्या धरती में अन्न नहीं रह गया? ओह नहीं। धरती तो अपनी छाती फाड़कर मनुष्य के लिए पोषण सामग्री उपजा देती है। पर धरती के बेटों की छाती में संवेदनशीलता की उपजन संभवतः बंद हो गई। निष्ठुरता से बंजर हुए अन्तःकरण ने ‘जिओ और जीने दो’ की सामान्य नीति भी भुला दी। उनकी आँखों के सामने निष्ठुरता की चपेट में आए और निष्ठुरता को अपना हथियार बनाए शत सहस्र मनुष्यों के चेहरे नाच उठे। उन्हें अपने सब उपदेश सारी सभाएँ और समूची प्रार्थनाएँ व्यर्थ जाती दिखाई दीं क्योंकि अब उन्हें लगने लगा था कि आप को कोसने से भी अधिक समस्या जीवन जीने की कला का व्यावहारिक मार्गदर्शन देने की है। यदि यह न सिखाई जा सकी तो संसार को स्वर्ग प्रभु का साम्राज्य बनाने के सारे प्रयास व्यर्थ जाएँगे।

तो क्या हाहाकार करवाती पशुता शैतानियत के गगनभेदी इन ठहाकों के बीच जिन्दगी जीना सिखाना संभव है? क्या इनसान एक बार पुनः ईश्वर पुत्र होने की अपनी गरिमा सिद्ध कर सकेगा। एक साथ एक कई प्रश्न उठते और क्रमशः उत्तर भी मिलते गए। पेट नहीं मन भी भूखा है। इसे प्यार और सद्विचार चाहिए। निष्ठुरता की पाषाण शिला के नीचे सिसक बिलख रही है मानव की आत्मा। जिसे उबार कर उदात्त भावनाओं से स्नान करना होगा। और आत्मा की यह दशा पेट की भूख से भी गई गुजरी है। यदि इसे सुधारा जा सका तो जिन्दगी की सामान्य जरूरतों भी पूरी होती चलेगी।

इस विचार मंथन ने पादरी को एक निर्णय तक पहुँचाया और उन्होंने १८६४ ई. में एक सभा का संगठन किया। जिसका उद्देश्य था मानवीय उत्कर्ष की मूल समस्या का समाधान पतित और दलित लोगों का उत्थान। मसीही धर्म के आद्य प्रवर्तक ईसा ने भी तो पतितों और दलितों को गले लगा कर उन्हें मनुष्य बनाया था और कहा था कि सौ भेड़ों की अपेक्षा किसी गड़रिये की भाँति में उस भेड़ की अधिक चिन्ता करता हूँ जो राह भटक गई है और उक्त पादरी ने एक बार पुनः ईसा का कार्य आरंभ करने के लिए क्रिश्चियन मिशन नामक एक संस्था की स्थापना की। मजदूर पेशा, निम्न वर्ग के और शोषितजनों को इसका सदस्य बनाया तथा उनके लिए हर आवश्यक सहायता कार्यक्रम चलाए गए। यही संस्था आगे चल कर साल्वेशन आर्मी (मुक्तिसेना) के से नाम विख्यात हुई और उसके नेता जनरल बूथ के नेतृत्व में उनके ही जीवनकाल में इसकी लगभग ९००० शाखाएँ विश्व भर में क्रियाशील हुई और चौंतीस भाषाओं में मुक्तिसेना के साहित्य का अनुवाद हुआ।

सन १८२१ में इंग्लैण्ड में नटिंघमशायर में जन्मे विलियम बुध का पालन-पोषण सामान्य परिवार में हुआ। अभावों के बीच भी उनकी माता सहज करुणाशील थी। वह कहा करती कोई भी व्यक्ति कैसा ही क्यों न हो आत्मीयतापूर्ण सद्व्यवहार से अच्छा बनाया जा सकता है। माँ का यह कथन बूथ की जीवन निधि बन गई। शिक्षा के उपरान्त उन्होंने पादरी का काम संभाला, किन्तु शीघ्र ही उन्हें लगने लगा कि उद्देश्य की प्राप्ति इस पद से चिपके रहने से न होगी। उन्नीस सौ वर्ष ईसा ने जो शिक्षाएँ दीं और उनका जो स्वरूप लोगों के सामने रखा वह कालक्रम से अब असंगत हो चला था जबकि परम्परागत रूप से उन्हें वही दोहराना पड़ता। जबकि सुनने वाला उसे व्यवहार में किस तरह उतारें यह बिल्कुल ही न समझ पाता। पादरी का पद छोड़कर अपनी पत्नी कैथराइन के साथ नगर-नगर गाँव-गाँव घूम कर धार्मिक सिद्धान्तों पर अपना व्यावहारिक दृष्टिकोण उसने लोगों को समझाना शुरू किया। पति पत्नी के इस स्वरूप को जिसने भी देखा उसने दाँतों तले अंगुली दबा ली। दाम्पत्यनिष्ठा, कर्मनिष्ठा आदर्शनिष्ठा की त्रिवेणी जहाँ भी जाति तीर्थराज का सा भाव उपस्थित हो जाता लोग विभोर हो जाते कारण कि उनकी अनेकों समस्याओं का समाधान जो मिल जाता।

इन्हीं यात्राओं के दौरान उन्होंने मुक्तिसेना का गठन किया। कार्य के विकास के साथ विरोधी भी बढ़े। यही नहीं इन विरोधियों ने एक समानान्तर संगठन भी तैयार किया ‘ठठरी सेना’। जिसका एक मात्र कार्यक्रम था मुक्तिसेना की गतिविधियों में बाधाएँ डालना और उसे असफल करना। लंबे समय तक यह विरोध चला पर बूथ ने न कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की और नहीं बैर का सामना बैर से किया। इसे उन्होंने अपनी परीक्षा का समय माना और बैर का प्रत्युत्तर आत्मीयता से देते रहे।

आखिर सज्जनता की विजय हुई। प्रबुद्ध और विचारशील जनों ने मुक्तिसेना के उद्देश्य और क्रियापद्धति को समझकर उसका महत्व स्वीकार किया। सम्राट एडवर्ड, महारानी अलेक्जेंड्रा और कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों से लेकर धार्मिक संस्थाओं के नेताओं तक उसके समर्थक हो गए। कठोर से कठोर परीक्षाओं को उत्तीर्ण करते हुए वह कार्य को गति व विस्तार देते रहे।

आज उनके न रहने पर भी मानव की समग्र मुक्ति का प्रयास जारी है। अपेक्षाकृत नए संदर्भ में इसकी बागडोर स्वयं दिव्यसत्ता ने थामी है। उसने अपने प्रत्येक संकेत से मनुष्य की अन्तश्चेतना को जगाना झकझोरना शुरू किया है। संकेत हम सब तक पहुँच रहे हैं। जरूरत पहचानने भर की है। इस आवाहन को सुन कर जो अपनी समूची सामर्थ्य को इन दिनों किए जा रहे इस अपूर्व सृजन में लगा सकें वह न केवल स्वयं सौभाग्यशाली बनेगा अपितु अनेकों अन्यों को भी जीवन की सौभाग्य भरी राहें उद्घाटित कर सकेगा।


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