गीता को जिनने जीवन में उतारा

May 1990

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आने वाले के पैरों की आहट से बेखबर वह मेज पर झुके लिख रहे थे। हाथ की अंगुलियों के सहारे कागज की भूमि पर थिरकती कलम अभिव्यक्त कर रही थी उनके अन्तर भावों को। अभिव्यक्त हो रही थी वह प्रचण्ड ऊर्जा जिसका स्पर्श मात्र देशवासियों को कुछ कर गुजरने के लिए बाध्य करता था। आने वाला काफी देर तक खड़ा सोचता रहा। तलाशता रहा अपने मन की पिटारी में से उस तकनीक को जिसके सहारे वह इस महायोगी की तल्लीनता भंग कर सके। आखिर बात भी तो कुछ ऐसी ही थी जिसे इस सतत् कर्मशील तपस्वी को बताना ही था। पर किन शब्दों में कहे उस व्यथापूर्ण संवाद को। नहीं मिल रहे थे वे अक्षर जो दर्दनाक भाव को सहज अपने से उड़ेल कर उन तक पहुँचा सके।

आखिर किसी तरह हिम्मत बटोरी शब्द जुटाए और कहा ‘आप को एक सूचना देनी थी।’ तनिक उच्च स्वर में कहे गए इन शब्दों को सुनकर वह चौंक से पड़ें। पर एक ही पल में पूर्ववत् सामान्य होकर बोले ‘अरे तुम कब आए, ठीक तो हो’? एक ही वाक्य में अनेक प्रश्न वह जवाब न दे सका। सोच रहा था कैसे कहे उस दारुण संवाद को। शब्दों से न कहकर भी उसकी मुखाकृति डबडबाई आँखें मुखर हो कर कह रही थीं कुछ विशेष घटित हुआ है। जवाब न सुनकर वह फिर बोले सब कुछ सामान्य तो है।

जी-वह-बाकी शब्द गले में अटक गए। ‘कहो! कहो! क्या है’?

‘आपका पुत्र चल बसा।’

वज्रपात सा करने वाले इन शब्दों के तीव्र आघात से उनके मुख से निकला ‘ओह’ और कुछ सोचने लगे बीमार तो पहले से भी था, पर इस तरह अचानक चलो भगवान को शायद यही मंजूर था। किन्तु ‘केसरी’? इसे तो पूरा करके अभी प्रेस में देना है। सम्पादकीय और लेख तैयार करना है। इसे तो किसी भी स्थिति में करना है अन्यथा--- कुछ आगे न सोच सके। चिन्तन से उबरते हुए उन्होंने सामने खड़े मित्र की ओर देखते हुए कहा ‘मित्र! तुम तो मेरे असमय के साथी रहे हो इस समय भी सहायक बनो।’

‘मैं तो सर्वदा आपकी आज्ञा पालन करने के लिए तैयार हूँ।’ ‘तुम शव को लेकर श्मशान पहुँचो।’ तुम सबको इस कार्य में लगभग ३-४ घण्टे लगेंगे। इतने में मैं सारा काम निबटाकर सीधा वहीं पहुँच जाऊँगा।

‘पर भाभी ने कहा है उन्हें लेकर आना। फिर ऐसी स्थिति में आप भी।’

आगन्तुक कुछ आगे बोलता इसके पहले उसे समझते हुए उन्होंने कहा लड़का सिर्फ मेरा मरा है किन्तु केसरी की प्रतीक्षा तो समूचा भारत कर रहा है। फिर मेरी उनके प्रति भी जिम्मेदारी है वे मेरे कहीं सघन आत्मीय हैं जो मेरे लेखों के पढ़कर समाज प्रणाली को बदलने के लिए दीवाने हो उठे हैं। न जाने कितनों ने अपनी पत्नी पुत्र के मोह को त्यागा है। न मालूम कितने बेघर बार हुए हैं। कितनों ने ही राष्ट्र समाज के लिए मेरे दर्द को नीलकण्ठ बन पीने की आतुरता दिखाई है। उठती जवानी में उनकी भीष्म प्रतिज्ञाएँ क्या मुझे भूल सकती है जिसके अनुसार वह विवाह, परिवार के सुख को तिलाञ्जलि दे समाज सेवा के लिए व्रती हुए हैं। नहीं मेरे परिवार बहुत बड़ा है। सत्यभामा को समझाना कि मैं यहाँ से सीधा श्मशान पहुँचूँगा वहाँ से सीधा पर आऊँगा। अच्छा, अब मुझे काम करने दो इन नम्र किन्तु दृढ़ शब्दों ने मित्र का वापस लौटने के लिए मजबूर कर दिया।

वह पुनः व्यस्त हो गए विचारों को गूँथ कर भावों को संवार कर राष्ट्र समाज के लिए ‘केसरी’ का हार तैयार करने में। न उन्हें व्यथा थी न सन्ताप। सभी कुछ तो पूर्ववत् था ऐसा लग रहा था जैसे कुछ हुआ ही न हो। यही तो योगी का कर्म है। इसे ही तो शास्त्रों ने कर्मयोग कहा है। सामान्य कर्म इसे छू भी नहीं सकता। साधारण कर्म के प्रेरक दो तत्व हैं लोभ अथवा भय। कर्ता या तो किसी लोभ से कर्म में जुटता है अथवा किसी दबाव डर के वशीभूत होकर। लोभ-लोभ ही है, वह प्रोन्नति धन वैभव सम्मान यश कीर्ति का हो अथवा स्वर्ग सिद्धि जैसे पारलौकिक भोगों का। इसी तरह भय किसी अधिकारी हानि असम्मान जैसा कुछ भी हो सकता है। कर्मयोग में निरत साधक इन दोनों प्रेरक तत्वों से ऊपर उठता है। वह तो कर्म के माध्यम से अपनी समूची सामर्थ्य को उड़ेल देता है विरोध के लिए। कर्म उसके लिए साधन बनता है परम पुरुष की अर्चा का।

उनका कर्म कुछ ऐसा ही था। इन घण्टों में उन्होंने अपना काम पूरा कर लिया। कागजों को प्रेस कर्मचारी को संभाला हल्की सी अंगड़ाई ली। कुल्ला करके एक गिलास पानी पिया। कर्मयोग के महोपदेष्टा योगेश्वर श्री कृष्ण के चित्र को प्रणाम करके चल पड़े श्मशान की ओर।

थोड़े ही समय पश्चात जा पहुँचे वहाँ, जहाँ उनकी सभी सगे संबंधी प्रतीक्षा कर रहे थे। पहुँचकर शव को चितारूढ़ कर अन्तिम संस्कार सम्पन्न किया। प्रातः की अरुणिमा के बढ़ने की गति चिता की लपटों के साथ शान्त होती जा रही थी। उनके भी कदम मुड़ने लगे थे घर की ओर। इसी बीच रात्रि आए मित्र ने निस्तब्धता भंग की ‘क्षमायाचना के साथ कुछ पूछना चाहता हूँ। मेरे मस्तिष्क में एक उलझन है।’ ‘बताओ’ स्वर गंभीर था।

‘कल आपका विचित्र व्यवहार समझ में नहीं आया’ ‘क्यों इसमें विचित्रता क्या थी?’

‘आप जैसा दयालु व्यक्ति इतना कठोर भी हो सकता है? मैं सोच भी नहीं पा रहा हूँ।’

‘सच में मैं हूँ भी नहीं। हाँ मोहासक्त जरूर नहीं हूँ।’ ‘भला मोहासक्त और दयावान में क्या भेद है।’। ‘मोह संकीर्णता से ग्रसित पाशविक वृत्ति है। दया ईश्वर की दिव्य विभूति है। मोह से जकड़ा व्यक्ति जिस किसी से आकर्षित होता है उसे शाश्वत बनाए रख अपने अधिकार में बनाए रखना चाहता है। भ्रम से पीड़ित उस बेचारे को नहीं मालूम कि भागवत विधान को उलट सकना किसी के बूते की बात नहीं है। जबकि दया परम सत्ता के दिव्यांश से जन्मी है। मानव की मूलसत्ता का सहज गुण धर्म है। मनुष्यता की कसौटी है। इसके प्रेरित हो मनुष्य गिरे को उठाने, उठे को खड़ा करने खड़े हुए को अंगुली पकड़कर प्रगति की राह पर चलाने हेतु तत्पर हो उठता है। पीड़ा पतन उसे सहा नहीं जाता। इसके निवारण के लिए वह वैयक्तिक हितों की बलि दे निज के अस्तित्व को दाँव पर लगाकर सर्वस्व होम देता है।’ कथन की समाप्ति पर उन्होंने मित्र की ओर प्रश्न वाचक निगाहों से देखते हुए पूछा-कल मैंने कुछ कड़वा तो नहीं कह दिया। व्यस्तता और भूल से ऐसे कुछ बन पड़ रहा हो तो क्षमता करना।

उदार भरने के लिए अपना ही मुँह चलाना पड़ता है। पढ़ने के लिए अपनी ही बुद्धि काम देती है। पराये मुँह से किस का पेट भरा है। दूसरों की बुद्धि से कौन विद्वान बना है। आत्मिक प्रगति की आकांक्षा भी अपने ही साधनात्मक पुरुषार्थ से पूरी होती है।

अरे नहीं मित्र तो नतमस्तक थे इन महामानव पर जिन्होंने अपनी सत्कर्म साधना के सातत्य के बल पर सर्वात्मबोध प्राप्त कर लिया था। तभी तो वह बाल गंगाधर से लोकमान्य हुए। उनके कृतित्व की प्रेरणास्पद दीप शिखा को बीतते बदलते समय की आँधियाँ बुझा नहीं पाई। इन दिनों महाकाल को पुकार हृदय के हर स्पन्दन के माध्यम से पुकार रही है हम सबको सामान्य से लोकमान्य बनाने हेतु।


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