“किधर चलूँ देव” छन्दक ने पूछा।
आज राजकुमार पहली बार राजमर्यादाओं के आडम्बर के परे हटाकर भ्रमण हेतु निकले थे। साथ था सारथी जिसके इस प्रश्न ने उनकी विचारमग्नता को भंग किया। छींक कर बोले ‘वन की ओर चलें।”
शब्दों के साथ रथ भाग चला। साथ ही कुछ पल ठहरी विचारश्रृंखला भी। तो क्या जीवन निरुद्देश्य है? यदि उद्देश्य है तो फिर क्या? प्रश्न जहन को मथ रहे थे। वह सब कुछ तो था उनके पास जिस अधिकतम की संसार में कामना की जाती है, फिर भी कुछ अभाव खटक रहा था।
अचानक वह सकपका गया। सामने एक जर्जर व्यक्ति पथ के मध्य खड़ा था। पोपला झुर्रीदार चेहरा सिर पर श्वेत केश, जो झड़कर थोड़े बचे थे, झुककर दोहरा हुआ जा रहा शरीर धँसी आँखें। हाथ से पकड़ी लकड़ी के सहारे काँपते हुए स्वयं को सँभालने की कोशिश कर रहा था। निर्बलता के कारण हटना चाहकर नहीं हट सका था।
“सौम्य! इसे क्या हो गया है”? उसने सारथी से पूछा। प्रभु! इसे बुढ़ापा हो गया है।
“बुढ़ापा! क्या यह भी दरिद्रता की कोई यातना है। नहीं आर्य। उसने मुस्कराकर महाकुमार की ओर देखते हुए कहा इसके सामने धनी और निर्धन दोनों समान हैं। वैभव का अतिरेक विलासिता की बाढ़ इसे रोकने की बजाय कहीं शीघ्र आकर्षित कर लेती है”।
ओह! वह चुप हो गया विचारों की तेज गति के साथ रथ गतिमान हो गया। फिर शरीर पर इतना अभिमान क्यों? क्यों वैभव के प्रदर्शन का आडम्बर? विलासिता की क्षुद्रता में डूबे अरे मनुष्य के अहं, चूर-चूर हो जा। आत्मा पर आस्था रखने वाले देख तूने स्वयं को कितने चक्रव्यूहों में आबद्ध कर रखा है। आँखें बंद करे कोल्हू के बैल की तरह घूमने वाले कहाँ है तेरा जीवनोद्देश्य।
हटात् वह फिर चौंक उठा। स्त्रियों का दारुण रुदन क्यों? उसे लगा जैसे गगन बिखर जायगा। गहन अंतराल में से वेदना के ज्वालामुखी फूटे पड़ रहे थे।
“सारथी”! उसने पुकारा “आर्य”! “ये पुरुष अपने कंधों पर किसे उठाए लिए जा रहे हैं”। देव! यह मृत शरीर है”। “तो इस मुर्दे के लिए लोग रोते क्यों हैं”।
“कुमार! स्नेह की अनर्गलाओं के तड़कने से किसका हृदय व्याकुल नहीं होता। मनुष्य स्वयं के स्वार्थी के परिप्रेक्ष्य में औरों के जीवन और मृत्यु का मोल करता है।” ऐसे नहीं! “नहीं श्रीमन्त”! इसी तरह हर किसी के मरने पर सब रोने लगे तो लोग जीवित क्यों हैं। “मरना तो सभी को होगा कह कर सारथी ने दीर्घ निःश्वास ली”।
“सभी को” उसके अपने मुख से निकला और रथ की गति के साथ विचार तेज होते गए। बुढ़ापा-मृत्यु-लाश का जलना एक एक दृश्य मन पर उभरने लगा। हर किसी के पास मृत्यु आती है। पर आती कहाँ है वह तो है, हाँ अभी भी हर साल वह व्यक्ति की आयु को एक-एक साल करके अपने मुँह में निगलती जाती है। ठीक उसी तरह जैसे अजगर किसी शिकार को पकड़ कर शनैः शनैः निगलता है। तो क्या जीवन अर्थहीन है। नहीं सिर झटक दिया ऐसा नहीं हो सकता इस सुगठित देहयष्टि चिन्तनशील मन, विभीषण की अपूर्व क्षमता बुद्धि के समन्वित स्वरूप का कुछ उद्देश्य जरूर होगा। कहाँ से आती है समस्त शक्तियाँ? कौन है शक्तिस्रोत? कोई न कोई अवश्य होगा!
वन आ चुका था। दूर वृक्ष के नीचे बैठे ध्यानरत गौरवर्ण पुरुष को देख वह चकित हुए बिना न रह सका।
आश्चर्य से बोल उठे “वह कौन है रे छन्दक” “वह परिव्राजक है श्रीमन्त”। “यह परिव्राजक क्या होता है”?
“जो स्वयं जीवन का उद्देश्य प्राप्त करके औरों को जीवन जीना सिखाता है”। जीवन का उद्देश्य वह बुदबुदा उठा यही तो वह कई दिनों से सोच रहा था। कुछ सोचकर बोला “क्या इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भटकना अनिवार्य है”।
“नहीं स्वामी स्वयं के लिए नहीं। पर जानकर औरों को सिखाने के लिए तो घूमना ही पड़ेगा”।
“देख रे! वह अत्यल्प में कितना प्रसन्न है। कितना शांत। मन को जीतने पर ऐसा ही होता है, प्रभु लेकिन है यह बड़ा कठिन”। “भला क्यों-”?
“वासना, क्रोध, लोभ मोह आदि से उबरना होता है”। “अच्छा! अच्छा”! फिर कुछ सोचते हुए कहा “तू अभी कह रहा था कि वह जीवन का उद्देश्य जानता है। जीवन जीना सिखाता है”। “हाँ”। “मुझे सिखा सकेगा”? “क्यों नहीं”?
रथ उसके सामने से गुजर रहा था। कुमार ने रथ रुकवाया उतरे और चल दिये ओर जिस पेड़ के नीचे तपस्वी थे। उनके पीछे छन्दक भी चला।
पास पहुँचने तक परिव्राजक ध्यान से उठ रहा था। आगन्तुकों को देखकर मुस्कराया। पेड़ के नीचे बैठने का इशारा करते हुए पूछा कहो कैसे आना हुआ। कुमार वन भ्रमण हेतु आए थे, आपसे जीवन का उद्देश्य पूछना चाहते हैं।” छन्दक ने उत्तर दिया।
“क्यों कुमार? जानना चाहते हो या सिर्फ सुनना”। “सुनने से जाना नहीं जा सकता” उसने पूछा “कोई आवश्यक नहीं”। “जानने के लिए कोरा वाणी विलास नहीं साधना का पुरुषार्थ चाहिए। स्वयं बुद्ध बन कर ही औरों की बोधि में सहायक हुआ जा सकता है”। तब मैं जानना चाहता हूँ।”
“तब प्रयत्न करो। जीवन का उद्देश्य है आत्म कल्याण के साथ लोक कल्याण।”
“दोनों एक साथ”? हाँ। यही तो डडडड तथ्य है। दोनों एक सिक्के के दो पहलू है। लोक कल्याण की राह पर स्वार्थों को डडडड निष्ठापूर्वक चलने वाला राही आत्मकल्याण बिना किसी अन्य प्रयास के कर लेता है। इसी प्रकार आत्मकल्याण की साधना में निरत साधक को लोकजीवन की सेवा किए बगैर चैन नहीं मिलता”। फिर कुछ रुककर कुमार की आँखों में झाँकते हुए बोला-स्वल्पकालिक होते हुए जाना बहुमूल्य है। यह अनन्त यात्रा के पथ का पड़ाव है। जिसमें कुछ विशेष करना है। पर कितना भ्रम से ग्रसित है- जन जो इसे न समझ कर उन्मादी की तरह, सन्निपात के रोगी की तरह निरुद्देश्य ही जीता है। किन्तु उसे समझाया जा सकता है यदि कोई बुद्ध समझाए तो। अनुभवी का ज्ञान ही सार्थक और प्रेरक होता है। अन्यथा वाक्चातुर्य से कब किसका कल्याण हुआ है।”
“मैं बुद्ध बनूँगा” स्वयं के किसी गहन प्रदेश से संकल्प उभरा। कुमार की आँखें चमक उठीं। कुछ सोचते हुए उतने परिव्राजक को प्रणाम किया और लौट चला और एक रात्रि हुआ महाभिनिष्क्रमण आरम्भ हुई तपश्चर्या। धधक उठी साधना डडडड। जिसमें स्वार्थ वासना क्रोध लालसा डडडड एक करके भस्मीभूत होने लगीं। डडडड करुणा के बादल बरस पड़े। डडडड भी बह गई। अब शेष थी करुणा। गहरी भाव संवेदना। बोधिवृक्ष के नीचे बैठे वह अपने से कह उठे पीड़ा से आर्त हो संसार स्वयं को नष्ट करने पर उतारू है। एक दूसरे पर दुख को ठेलकर कर मनुष्य औरों को दुःखी करता स्वयं दुखी होता है। क्यों? सबके मूल में उसकी उलटी सोच है। इसलिए अब आवश्यक हो गया कि सोच परिवर्तित हो।
महाकुमार सिद्धार्थ व महात्मा बुद्ध हो उठ खड़े हुए। लोककल्याण के राही के रूप में वह भव्य ज्योतित गौरव से मण्डित करुणा दया, क्षमा की साकार प्रतिमा बन चल पड़े। बुद्धि की क्षुद्र सीमाओं से ऊपर उठ युग को बदलने लोकजीवन की आर्तावस्था को दूर करने काल गति की उलट फेर में आज बुद्ध ने नया जामा पहना है। विचारक्रान्ति का अमृत कलश लिए वह पुनः चल पड़े हैं। गति क्रमशः तीव्र होती जा रही है। इन दिनों पृथ्वी की धूलि में जीवन की पर्तों पर अमरता का जीवित संदेश लिखा जा रहा है। सचमुच अद्भुत क्षण हैं ये। ऐसे में भला हमारा पुरुषार्थ मौन क्यों?
संकट का हल ढूँढ़ने की उपहासास्पद विडम्बना
आज और कल की मिलन बेला की अपनी महत्ता है। ऐसे में समूचा जीवन स्पन्दनमय हो उठता है। उपवन में खड़े पादपवृन्द अपने पुराने बासी फूलों को गिराने-झाड़ने लगते हैं। कारण कि कुछ ही देर में अबकी कठोर सुरभिहीन बेडौल लगने वाली कलियाँ कोमलता, सुगन्ध और सौंदर्य का समन्वित प्रतिमान बनने वाली होती हैं। इस परिवर्तन से अनजान मन फूलों का गिरना देख परेशान हो उठता है। हैरान हो सोचने लगता है, तो क्या वाटिका उजड़ जायगी? फिर क्या होगा जो यहीं के निवासी है? तब क्या सब भाग चले? मन को दुःखी करने इन सवालों के जवाब में परिवर्तन को भली भाँति देख समझ रहा माली एक बात कहता है-धैर्य रखो! समय विशेष कुछ करने का है। अवसर को पहचान कर खाद पानी जुटाओ ताकि उद्यान दूना सौंदर्य प्राप्त कर सकें।
हम सबके जीवन के इन क्षणों में आज और कल ने कुछ अधिक व्यापक हो वर्तमान और भविष्य का बाना पहन लिया है। मिलन बेला दशक और सदी की न होकर दो सहस्राब्दियों की है। यही क्यों दो महायुग मिलने वाले हैं। ऐसे में मिलन मुहूर्त का गौरव असंख्य गुना बढ़ जाना स्वाभाविक है और सचमुच सम परिवर्तन का महापर्व बन चुका है। दृश्य जगत के स्पन्दन किसी अदृश्य महाशक्ति के संकेतों के अनुसार तीव्र-तीव्रतर तीव्रतम होते चले जा रहे हैं। ऐसे में अवाक् है एक वर्ग उसे सूझ ही नहीं रहा कि क्या करें? क्योंकि हो रहा सब कुछ तो उसकी बौद्धिक गणना शक्ति के बाहर है।
इन दिनों परिवर्तन की व्यापकता से अनभिज्ञ अधिकांश वैज्ञानिक कुछ इसी तरह हैरानी में है। इसका एक कारण उनके अपने कारनामों की दीख पड़ने लगे परिणाम है। समूचे वातावरण में जहर घुल रहा है। औद्योगिक कारखाने वायु को विषमय बना रहे हैं। इनके उत्पादकों के विषैले रसायनों के पानी में लगातार बहने से हर किसी को जहर के घूँट पीने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। रेडियोधर्मिता के कारण बढ़ते तापमान ने हिम भण्डार पिघलने और समुद्रों में बाढ़ लाने की चुनौती दे दी है। पृथ्वी के ऊपर फटते सुरक्षा कवच व ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण खतरा और बढ़ गया है कि अन्तरिक्षीय मारक किरणें कहीं भून कर न रख दें। विज्ञान के कालिदास को अब समझ में आने लगा है कि अब तक उसने अपनी आश्रयदाता डाल पर ही कुल्हाड़े चलाएँ है। परन्तु अब क्या हो? बड़ी सकपकाहट में एक नयी योजना प्रकाश में आयी है पृथ्वी से भाग जाने की योजना।
इसके दो स्वरूप सोचे हुए हैं या तो किसी अन्य ग्रह की बस्ती में बतौर शरणार्थी के भाग चला जाय अथवा स्वयं अन्तरिक्ष में बस्तियाँ बनाकर रहा जा प्रथम सोच के तहत अमेरिकन बनाकर रहा जाय प्रथम शोध के तहत अमेरिकन स्थित “नेशनल रेडियो एस्ट्रोनॉमी आवजरक्ट्री” में खोज-बीन शुरू की डडडड वे जगहें कौन सी हैं, जहाँ बस्ती है। उन्होंने ८५ इंच बड़े आधुनिकतम रेडियो टेलिस्कोप की सहायता से जाँच पड़ताल शुरू की। इस परियोजना को नाम दिया गया। “प्रोजेक्ट ओज्मा” जो बाद में “लैण्ड ऑफ ओज” के नाम से जानी गई इसको अधिक सफलता ने मिलने पर “कॉस्मिक कनेक्शन” के कृतिकार एक ख्यातिलब्ध वैज्ञानिक कार्लसांगा ने सलाह दी कि अन्तर्ग्रही यात्राएँ करके निवास योग्य जगह ढूँढ़ जाय। प. जर्मनी के राकेट विशेषज्ञ हरम ओवर्थ ने अमेरिकी सरकार की एक गोपनीय योजना पर काम करते समय कुछ विशेष जानकारी हासिल करने की बात नहीं। उनके अनुसार उड़न तश्तरी एप्सिलोन और ताओ से टिके तारकों के किसी ग्रह से आती है। पृथ्वी से भागकर कहीं दूर जा बसने के कार्यक्रम बनाने वालों को एक आशा मंगल ग्रह से भी है। कैलीफोर्निया स्थिति एक्स रिसर्च लैबोरेट के डॉ. सीरल एवम् डॉ. हैरल्डक्लीन ने साबित कर की कोशिश की है कि तमाम सारी प्रतिकूलताओं बाद भी वहाँ नई दुनिया बस सकती है। भले इस धरती से थोड़ी भिन्न प्रकार की हो। फिर वह संभव है यहाँ से समझ में आने वाली प्रतिकूलता वहाँ पहुँचने पर झूठ साबित हों।
दूसरे पक्ष की पसन्दगी शरणार्थी होकर रहने की बजाय अन्तरिक्ष में नगर बसा कर रहने की है। वैसा ही नगर जैसा पौराणिक आख्यानों के अनुसार त्रिपुर और त्रिशंकु का बसा था। इस विज्ञान के क्लीवान जी ओस्टर ने अपनी पुस्तक “ट्वेन्टीएथ सेंचुरी इन स्पेस” में इसका प्रारूप प्रस्तुत करते हुए विशद चर्चा की है। जिसके अनुसार ये बस्तियाँ बहुत कुछ उपग्रहों का बृहदाकार स्वरूप जैसी होगी। यद्यपि एच. जी. वेल्स सदृश वैज्ञानिक शिल्पकार अब तक अपनी कथाओं में ऐसा स्वप्न लोक बसाते आए थे। किन्तु श्री ओस्टर ने अपने वैज्ञानिक साक्ष्य प्रस्तुत कर इसे एक विकल्प के रूप में बताया है।
प्रारूपों में पर्याप्त भिन्नता के बावजूद दोनों का उद्देश्य एक है। बुद्धिमानों के शीर्षस्थ वर्ग की इन योजनाओं पर समालोचनाजन्य क्षोभ प्रकट करते हुए लास एन्जेल्स के विज्ञानवेत्ता जैक कार्टन ने एक पुस्तक की रचना कर डाली। जिसका नाम रखा “इज देयर इण्टेलीजेण्ट लाइफ ऑन अर्थ” “अर्थात् क्या धरती पर बुद्धिमत्तापूर्ण जीवन है?” उनके अनुसार “यदि यह रहा होता तो शायद ऐसी योजनाएँ न बनतीं। इस कथन का तात्पर्य यह नहीं है कि अन्य ग्रहों पर जीवन का अभाव है अथवा अन्तरिक्ष में बस्तियाँ नहीं बसाई जा सकतीं। सम्भव है ऐसा हो सके। यद्यपि अभी तक इसके ठोस आधार नहीं हैं” उनका अभिमत है कि मानवी सभ्यता के अस्तित्व पर आए संकटों के कारणों की खोज किये बिना बनजारों की तरह अपना डेरा उखाड़ कर अनजाने अनबने लोक में जा पहुँचने की बात करना सोचना क्यों बाल कल्पना और दिवा स्वप्न जैसा नहीं है?
क्या यह योजना मुहम्मद तुगलक के राजधानी बदलने वाले भारत के ऐतिहासिक कथानक जैसी नहीं लगती। जिसमें समूची जनता को इधर से उधर करने के फेर में आधे से अधिक मारे गए। यह तो दिल्ली से दौलताबाद की फेर बदल थी, वह भी एक छोटे से जन समूह की। कल्पना करके देखें यदि समूचे धरतीवासी एक साथ अनजाने लोक की और भागने को विवश हों तो परिणाम के बारे में सोचकर सिहरन के साथ हँसी आए बिना न रहेगी।
श्री कार्टन ने अपनी इसी रचना में वर्तमान संकटों का कारण स्पष्ट करने की कोशिश की है। उनके अनुसार आया संकट अपने बाहरी रूप में कितना ही अलग-थलग और अनेक रंग-रूपों वाला क्यों न लगे? पर जड़ में एक है। इसको वह विकृत मस्तिष्क और निष्ठुर हृदय का नाम देते हैं। जब तक इसे परिवर्तित नहीं किया जाता कल्याण नहीं है। क्योंकि इनके रहते स्वर्ग भी नरक बन जाएगा। इन्हें छोड़ने से नरक भी स्वर्ग के रूप में दिखाई देने लगेगा। कारण कि प्रत्येक जैव मण्डल का अस्तित्व अपने -अपने अनेकों घटकों में सामञ्जस्य रहने पर ही संभव है। यदि हम उसे बिगाड़ने के लिए तैयार बैठे हों तो कहीं ठिकाना मिलने की गुंजाइश नहीं।
निःसन्देह उलटी सोच और भावना शून्य हृदय के रहते कोई भी युक्ति समाधान नहीं बन सकती। परिवर्तन की इस आँधी ने हममें से प्रत्येक को चुनाव के बिन्दु पर ला खड़ा किया है जहाँ उसे दो में से एक को चुनना है स्वयं की सोच और निष्ठुरता का बदलाव अथवा अस्तित्व की समाप्ति। किन्तु यह समाप्ति समूची जाति अथवा सभ्यता की नहीं अपितु सिर्फ उनकी होगी जो महाक्रान्ति के अवरोध हैं। यद्यपि आश्रयदाता डाल कर कुल्हाड़ा चलाने वाले कालिदास को युग मनीषा अभी भी सिखा पढ़ा कर मूढ़ से महापण्डित निष्ठुर से भावुक हृदय कवि के रूप में गढ़ने को तैयार खड़ी है।
किसी भी दृष्टिकोण से क्यों न विचार करें, समाधान भाग निकलना नहीं, अपितु बदलाव है-निजी व्यक्तित्व और परिवेश का। प्रख्यात-अध्येता कार्ल मानहीम “द् डायग्नोसिस ऑफ ओवर टाइम” में इसे स्वीकारते हुए कहते हैं शायद समूची प्रकृति अथवा स्वयं नियन्ता व्यक्ति और समाज का आमूल-चूल परिवर्तन करने के लिए उठ खड़ा हुआ है। संकटों का व्यापकता का कारण यही है और महाक्रान्ति के प्रबल वात्याचक्र का उठ खड़ा होना यही सिद्ध करता है।
कारणों के निवारण के बाद अथवा परिवर्तन की दिशा में गतिमान होने के साथ विभीषिकाओं की काली घटाएँ उज्ज्वल-भविष्य के हिमालय के समझ अपना सिर फोड़ने और धूल चाटने के लिए मजदूर होती दिखाई देगी। आज की अन्धकारजन्य परिस्थितियाँ बीतते वर्तमान की समाप्त होती यात्रा का अन्तिम चरण भर है। यदि हम नियन्ता के प्रतिपल आ रहे संकेतों के अनुसार बढ़ सके तो इस ब्रह्ममुहूर्त को उषाकाल अरुणोदय में बदलते दोपहर के तपते ज्योतिर्मय मध्याह्न तक पहुँचाते देखकर हर्ष विभोर हुए बिना न रह सकेंगे। ऐसे में जबकि हमारे चरण उल्लसित होकर कर्तव्य निर्वाह की ओर बढ़ने चाहिए भाग निकलने की कल्पना कितनी हेय है? महायुगों के महामिलन के अवसर पर धरती को सँवारने विश्व उद्यान को हरा भरा करने का दायित्व उन सभी पर है जो वर्तमान में जी रहे हैं। आज के कर्तव्य का निष्ठापूर्वक निर्वाह ही कल का स्वर्णिम भविष्य है।